“ऋषि दयानन्द लिखित राजा भोज के जीवन की कुछ विशेष बातें”

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मनमोहन कुमार आर्य,

महर्षि दयानन्द सरस्वती (1825-1883) जी ने अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के ग्यारहवें समुल्लास में राजा भोज (1010-1055) के समय पुराणों की रचना एवं महाभारत व इसके प्रक्षेपों की चर्चा  की है। उन्होंने राजा भोज के समय में विद्यमान कुछ वैज्ञानिक आविष्कारों व उपकरणों का भी उल्लेख किया है। ऋषि दयानन्द वेद, वैदिक साहित्य, वैदिक विज्ञान एवं इतिहास आदि विषयों के प्रामाणिक विद्वान थे। उन्होंने जो लिखा व कहा है वह सत्य एवं प्रामाणिक है। इस लेख में हम उनके सत्यार्थप्रकाश में वर्णित राजा भोज विषयक उल्लेखों को प्रस्तुत कर रहे हैं।

 

राजा भोज के राज्य में (ऋषि वेद) व्यास जी के नाम से मार्कण्डेय और शिवपुराण किसी (संस्कृत भाषा के पण्डित) ने बना कर खड़ा किया था। उसका समाचार राजा भोज को होने से उन पण्डितों को हस्तच्छेदनादि (हाथ काटने का) दण्ड दिया और उन से कहा कि जो कोई काव्यादि ग्रन्थ बनाये तो अपने नाम से बनाये, ऋषि मुनियों के नाम से नहीं। यह बात राजा भोज के बनाये संजीवनी नामक इतिहास में लिखी है कि जो ग्वालियर के राज्य भिण्ड नामक नगर के तिवाड़ी ब्राह्मणों के घर में है जिस को लखुना के रावसाहब और उन के गुमाश्ते रामदयाल चौबे जी ने अपनी आंखों से देखा है। उस में स्पष्ट लिखा है कि व्यास जी ने चार सहस्र चार सौ और उनके शिष्यों ने पांच सहस्र छः सौ श्लोकयुक्त अर्थात् सब दश सहस्र श्लोकों के प्रमाण ‘भारत’ (महाभारत की घटनाओं पर आधारित इतिहास ग्रन्थ) बनाया था। महाराजा भोज कहते हैं कि वह महाराजा विक्रमादित्य के समय में बीस सहस्र, मेरे पिता जी के समय में पच्चीस और मेरी आधी उमर में तीस सहस्र श्लोकयुक्त महाभारत का पुस्तक मिलता है। जो ऐसे ही बढ़ता चला तो महाभारत का पुस्तक एक ऊंट का बोझा हो जायेगा। (यदि इसी प्रकार से) ऋषि मुनियों के नाम से पुराणादि ग्रन्थ बनावेंगे तो आर्यावर्तीय लोग भ्रमजाल में पड़ वैदिक धर्मविहीन होके भ्रष्ट हो जायेंगे। इस से विदित होता है कि राजा भोज को कुछ-कुछ वेदों का संस्कार था। इनके भोजप्रबन्ध में लिखा है कि-

 

घट्येकया क्रोशदशैकमश्वः सुकृत्रिमो गच्छति चारुगत्या।

            वायु ददाति व्यजनं सुपुष्कलं विना मनुष्येण चलत्यजस्त्रम्।।

 

राजा भोज के राज्य में और समीप (के स्थानों में) ऐसे-ऐसे शिल्पी लोग थे कि जिन्होंने घोड़े के आकार का एक यान (विज्ञान व तकनीकि ज्ञान का प्रयोग करके) यन्त्र-कलायुक्त बनाया था कि जो एक कच्ची घड़ी (24 मिनट) में ग्यारह कोश (1 कोश=3.2 किमी.) और एक घण्टे में साढ़े सत्ताईस कोश (86 किमी प्रति घंटा की गति से चलता था) जाता था। वह भूमि और अन्तरिक्ष में भी चलता था। और दूसरा पंखा ऐसा बनाया था कि विना मनुष्य के चलाये कलायन्त्र के बल से नित्य चला करता और पुष्कल वायु देता था। जो ये दोनो पदार्थ आज तक बने रहते तो यूरोपियन इतने अभिमान में न चढ़ जाते।

 

हमें प्रतीत होता है कि महाभारत के बाद यज्ञों में पशु हिंसा, उसके बाद वाममार्ग के प्रादुर्भाव व प्रचार तथा इसके साथ अज्ञान व अन्धविश्वासों की वृद्धि के कारण भारत में ज्ञान विज्ञान की भारी हानि हुई। यदि हमने अन्धविश्वासों, मिथ्यापूजा, सामाजिक भेदभाव को न अपनाया होता है तो हमारे देश की जो दुर्दशा हुई है वह न होती।

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