कभी शिक्षक के ऋण से उऋण नहीं हो सकता शिष्य

1
169


जगमोहन फुटेला 

हुकमचंद खुराना जी छठी से दसवीं क्लास तक मेरे टीचर थे. दिन में स्कूल में. रात को गाँव में अपने घर पे. उन दिनों टीवी का सिग्नल सत्तर फुट का एंटीना लगा के भी नहीं था. रेडियो पे कमेंटरी सुना सुना के क्रिकेट और सुरेश सरैय्या की अंग्रेजी से अवगत उन ने कराया. टेनिस भी उनकी रग रग में था. दोनों खेलों के जैसे इन्साइक्लोपीडिया थे वे. खुद बारहवीं पास खुराना जी को मैंने एम.ए. (इंग्लिश) की ट्यूशन पढ़ाते देखा. कुछफर्मों के अकाउंट देखते थे वे. सत्तर अस्सी लाख की भी आमद वे इकाई दहाई में नहीं,सीधे ऊपर से नीचे एक ही बार में कर के नीचे कुल रकम लिख देते थे. मैं दावे से कह सकता हूँ कि उन जैसा हैडराइटिंग कि का हो नहीं सकता. मेरा सौभाग्य है कि वे छठी से दसवीं तक मेरे पहले, सर्वगुण संपन्न टीचर थे.

ग्यारहवीं बारहवीं करने पन्तनगर में था तो एक दिलचस्प घटना घटी. मैं होस्टल के कामन बाथरूम में ‘ठाड़े रहियो’ की व्हिसलिंग कर रहा था. बीच में रोक दी तो पीछे खड़े दिनेश मोहन कंसल ने पूरा गीत व्हिसल करने को बोला. वे बी.एस.सी. (एजी) कर रहे थे. वे मुझे बरेली ले के गए. ‘पाकीज़ा’ दिखाई. यूनिवर्सिटी की कल्चरल एसोसिएशन का मेंबर बनवाया. एक दिन आडिटोरियम में ‘हीर’ गवाई. ग्रेजुएशन करने नैनीताल पंहुचा तो इसी गायन ने अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसरजी.सी. पांडे जी से वो शिक्षा दिलाई कि जीवन धन्य हो गया.

उनकी छवि बड़े गुस्से और किसी को भी झापड़ रसीद कर देने वाले प्रोफ़ेसर की थी. एक दिन उन्हीं की क्लास थी. उनका पियन आया और मेरे लिए पूछा. साथियों ने कहा,ले बेटा तू तो नपा समझ आज. डरा, सहमा मैं पंहुचा उनके केबिन में तो तीन लड़के और खड़े थे उनके सामने और वे स्वयं कागज़ पे कुछ लिख रहे थे. इस बीच उन्होंने पहाड़ी भाषा में कुछ कहा. मैं समझा पहले से जो खड़े हैं उन्हीं से कुछ कह, पूछ रहे होंगे. दूसरी बार फिर. तीसरी बार भी जब मैं वही सोच कर कुछ नहीं बोला तो अपनी तकरीबन दो सौ वाट के बल्ब जितनी बड़ी आँखों से उन ने मेरी तरफ देखा. जितनी जोर से कोई बोल सकता है उतनी ऊंची आवाज़ में बोले, अबे गधे मैं तुम से कह रहा हूँ….अपनी तो सिट्टी पिट्टी गुम. पिटने के आसार साफ़ दिख रहे थे. किसी तरह हिम्मत की. इतना ही कह पाया था, सर मुझे ये भाषा नहीं आती. पांडे सर ने मुझसे पहले के खड़े तीनों लड़कों से कहा जाओ, बाद में आना. पियन को बुलाया. दरवाज़ा बंद करने को कहा और मुझे उनके बाईं तरफ पड़ी कुर्सी पे बैठने को. मैं अब पिटने के लिए मानसिक रूप से तैयार होने लगा था. मैंने सोचा शायद उनका बायें हाथ का निशाना ज्यादा सही होगा. मैं उनका वो हाथ देखता, उसके उठने का इंतज़ार करने लगा. इतने में सर ने जिस पे लिख रहे थे वो कागज़ लपेटा. मेरी तरफ देखा. और कोई डेढ़ मिनट तक चुपचाप देखते रहे. मैं तब शिष्टाचारवश भी गुरुओं की आखों में नहीं देखता था. वे बड़े ही सहज स्वर में बोले, आडिटोरियम में तुमने उस दिन जो गाया आई लाईक दैट. बट मुझे ये बताओ कि कल माल रोड पे जो तीन बटन खोल के घूम रहे थे तुम. तुम्हारी मां बैठी है यहाँ जो रात में विक्स लगाएगी. देखो, पढने आये तो पढो, और वो जिन लड़कों के साथ घूम रहे थे तुम तय करो कि जीवन में उनके निशाने क्या हैं और तुम्हें क्या करना है. जाओ.

मैं अभी उनके केबिन से बाहर नहीं निकला था कि सर ने फिर बुलाया. कहा, बेटा मेरी एक बात याद रखना. जीवन में जहां भी रहो वहां की लोकल भाषा ज़रूर सीखना. इस से तुम वहां के लोगो को और लोग तुम्हें बेगाने से नहीं लगेंगे.समाज से संवाद बेहतर कर पाओगे. मैं धन्य हो गया. उन्हीं की कृपा है कि आज मैं उत्तर भारत में हर पचासवें किलोमीटर पे बदल जाने वाली हर बोली बोल, समझ सकता हूँ.

यहीं कुमाऊँ यूनिवर्सिटी में हिंदी के प्रोफ़ेसर डा. लक्ष्मण सिंह ‘बटरोही’ जी मिले. वे ‘धर्मयुग’ और ‘सारिका’ समेत देश की तमाम पत्रिकाओं में छपते थे. उनका बहुत स्नेह मिला. उनके घर आता जाता था मैं. दुष्यंत कुमार के बारे में खूब बातें बताते. उन्हीं दिनों उनका बेटा हुआ, शिखर. मैं क़ानून की पढाई करने इलाहाबाद चला गया. वे दुद्धी. बात होती रहती थी.उन्हीं ने सुझाया मैं कि शैलेश मटियानी जी से मिलूँ. संयोग से मेरे कमरे के सामने ही रहते थे कर्नलगंज में. ये मेरे वकील की बजाय पत्रकार होने की शुरुआत थी. मैं भी छपने लगा. और फिर पिताजी के लाख मना करने के बावजूद नौकरी कर ली.

एक खबर मैंने की थी. नाम, नक़्शे देकर सब बताया था कि कैसे 15 अक्टूबर 84 के दिन इंदिरा गाँधी को दीक्षांत समारोह के बहाने बुला कर पन्त नगर में उनकी हत्या की योजना थी. कोई उसे छाप नहीं रहा था. यूनिवर्सिटी के एक बुद्धिजीवी क्लर्क महाबीर प्रसाद कोटनाला ने मुझे राय दी कि अगर कोई माई का लाल इसे छाप सकता है तो वो कमलेश्वर. मैं दिल्ली गया. उन्हें ढूँढा. मिला. उन्होंने ‘गंगा’ में छाप दी. इंदिरा जी का पंतनगर जाना कैंसल हो गया. हालांकि उसी महीने उनकी हत्या दिल्ली में हो गई. इसके बाद ‘गंगा’ की वो खबर बहुत बड़ी हो गई. तमाम इन्क्वारियाँ शुरू हो गईं. एक दिन कमलेश्वर जी ने बुलाया, दिल्ली. यमुना पार दफ्तर हुआ करता था ‘गंगा’ का. मैं दोपहर में ही पंहुच गया था. रात नौ बजे तक सारा काम निबटा कर कमलेश्वर जी ने अपनी काली गाड़ी उठाई और आईटीओ के नीचे लगा ली. हम आधी रात के बाद तक वहां थे. मैं दंग रह गया ये सुन कर कि हत्या के उस षड़यंत्र में जिस सूत्रधार का नाम मैंने लिखा था वोदरअसल कमलेश्वर जी का करीबी रिश्तेदार था. उस पल से मैं कमलेश्वर जी का फैन नहीं, गुलाम हो गया था. वे जागरण के सम्पादक हुए तो मुझे ‘जनसत्ता’ से ले के आए. उन ने मुझे वैचारिक नज़रिए से नई सोच और दिशा दी.

प्रभाष जी की तो बात ही क्या करें. उन ने हिंदी पत्रकारिता और हिंदी को आम आदमी की भाषा बनाने के लिए जो किया वो अपने आप में एक मिसाल है. चंडीगढ़ जनसत्ता के लिए ली उनकी परीक्षा में मैं सबसे अव्वल आया था. उन ने मुझे उस समय की सबसे महत्वपूर्ण बीट, क्राईम पर लगाया. इस गुरुमंत्र के साथ कि हिंसा आतंकवादी करें या सरकार हमें दोनों के ही खिलाफ अलख जगाना है. वे इसमें कामयाब भी हुए.

वे चंडीगढ़ में होते तो अक्सर शाम के समय डेस्क पर चीफ सब के सामने पड़ी कुर्सियों में से किसी एक पर बैठ जाते.कभी कभार चीफ सब से कह के एकाध स्टोरी सबिंग के लिए मांग लेते. लौटाते तो ये कह के कि आप चाहें तो मेरी कापी में जो चाहें फेरबदल कर सकते है. एक दिन मुझे बुलाया. कोई खबर थी राजा वीरभद्र के बारे में. मैंने सुन रखा था कि राजा के साथ उनके निजी संबध काफी अच्छे हैं. मैं गया उनके पास डेस्क पे तो बिठाया. बोले, पंडित जी ( वे प्यार से सबको पंडित ही कह के बुलाया करते थे) अगर आपको ऐतराज़ न हो तो यहाँ ये लिख दें कि ‘ लोगों ने ऐसा बताया.’

अब जा के समझ आया है कि एकलव्य ने अपना अंगूठा क्यों काट कर दे दिया होगा. मुझे तो लगता है कि पूरा पूरा जीवन भी गुरुओं को दे दें तो भी शिष्य कभी ऋण से उऋण होता नहीं है!

1 COMMENT

  1. आपके अनुभव वास्तव में सराहनीय है परन्तु आज के जो अध्यापक है उनमे न तो कोई मार्गदर्शन देने की कला है न ही रूचि वो उतना ही जानते है जिनके लिए उनको पैसे मिलते है

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here