प्रतिबंध की मांग की नई राजनीति

– हरिकृष्ण निगम

आज से लगभग चार वर्ष पूर्व मुंबई विद्यापीठ के कालीना परिसर में वर्षीय वयोवृद्ध एवं वरिष्ठ अधिवक्ता की अस्वतंत्रता पर इस लेखक को उनका संवैधानिक प्रावधानों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर इस लेखक को उनका तर्कपूर्ण एवं विवेचनात्मक भाषण सुनने का अवसर मिला था। इस बात का उस समय अनुमान नहीं था कि यह श्री भसीन अपने अधिवक्तोचित स्पष्टवादी मस्तिष्क और विद्वतापूर्ण लेखन के लिए सन 2003 में प्रकाशित ग्रंथ ‘ए कांसेप्ट ऑफ पालिटिकल वर्ल्ड इन्वेजन बाई मुस्लिम’ पर कुछ तत्ववादियों या कथित सेकुलरवादी बुध्दिजीवियों द्वारा ग्रंथ के प्रकाशन के वर्षों बाद न्यायालय में खीचे जाएंगे। मुंबई उच्च न्यायालय ने भी इन दबावों की प्रतिक्रिया स्वरूप यह निर्णय दे डाला कि उनका ग्रंथ अकादमिक अध्ययन न होकर इस आस्था के अनुयाईयों की भावनाओं का आवाहन करने वाला अथवा समरस्ता भंग करने वाला है।

ग्रंथ का हिंदी अनुवाद भी एक प्रसिद्ध लेखक डॉ. अनिल मिश्र द्वारा किया गया था जिसको अनगिनत पाठकों ने धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन की गंभीर कृति के रूप में पढ़ा था। इस ग्रंथ में अनेक विश्व प्रसिद्ध भारतीय और विदेशी लेखकों व विचारकों जैसे डॉ. बाबा साहब अंबेडकर, नीरद चौधरी, डॉ. आरनाल्ड टॉयनबी, विल डुरा, एच जी वेल्स, सैम्यूअल हंटिगटन एनी बेसेंट, मोहम्मद करीम छागला आदि को उध्दृत करते हुए इस्लामी धर्म शास्त्र की मीमांसा की गई थी और उसके आशय और अभिप्राय का विश्व के साथ-साथ भारत पर पड़ने वाले प्रभाव का विवेचन किया गया था। यह ग्रंथ ऐतिहासिक उद्धरणों द्वारा आज के यथार्थ व प्रसांगिक राजनीतिक परिदृश्य को कड़वे सत्यों को रेखांकित करता है। इसमें आज के उभरते आतंकवाद पर भी अतिरेकियों के रूझानों का 11 सिंतबर, 2001 में न्यूयार्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की अट्टालिकाओं के ध्वंस से लेकर भारतीय संसद पर इसकी पुनरावृत्ति और बाद के कुछ आतंकवादी हादसों पर भी विश्व की चिंता उजागर की है। 21वीं सदी के राजनीतिक इस्लाम की आक्रमकता को छिपाने का यत्न करना व्यर्थ है और यदि इस अंतर्राष्ट्रीय व्यापकता परिप्रेक्ष्य में यदि कोई हिंदुओं की तात्कालिक आवश्यकताओं का कोई भी जिक्र करता है तो वह मात्र राजनीतिक सत्य को होने वालों के लिए पचाना मुश्किल हो जाता है। जो न्यायपालिका देश के अंग्रेजी मीडिया के एक बड़े वर्ग में निरंतर अपशब्दों, वक्रोक्ति, व्यंग और भर्त्सना जो हिंदू आस्था के लिए आरक्षित रहते हैं उनको अनदेखा कर देती है, श्री भसीन के प्रकरण में जैसे अतिरिक्त उत्साह से सक्रिय हो उठी।

श्री भसीन 11 वर्ष की अवस्था में जब देश का विभाजन हुआ लाहौर से दिल्ली भाग कर आये थे। एक मुक्त योगी के रुप में हिंदुओं व सिखों के मनोविज्ञान, समग्र स्मृत्तियों, अपदस्थ नागरिकों की यातना व विधन्नता का उन्हें गहरा ज्ञान रहा है। वे स्वयं लिखते है कि पलायन करने के पहले उनके पास विकल्प था जो स्पष्ट था-धर्मांतरण। पर वे अपने विश्वासों के परिवर्तन को मानवाधिकार उल्लंघन मानते थे इसलिए अपनी हिंदू प्रतिबद्धता को नही त्यागा। शायद श्री भसीन का आज भी सेकुलरवादियों की नजर में यह अपराध था कि उन्होंने हिंदू आस्था के सम्मान और समादर के साथ इसकी शाश्वत जीवन शैली की अपनी तीव्र धारणा को भी इस ग्रंथ में व्यक्त कर डाला है।

इस ग्रंथ की आलोचना में महाराष्ट्र मुस्लिम लायर्स फोरम, इस्लामिक रिसर्च फांउडेशन पर जमाएते इस्लामी हिंदू अथवा मुंबई अमन कमेटी ने कहा कि इसका तो टाइम्स ऑफ इंडिया व दूसरे अंग्रेजी पत्रों ने क ई दिनों तक विस्तृत रूप से लिखा पर स्वयं श्री भसीन अथवा राईस टु रीड फाउंडेशन के श्री खंडेलवाल ने क्या कहा वह इस मुंबई जैसे महानगर के किसी अंग्रेजी पत्र में प्रकाशित करने का मनोबल नहीं था। उत्तर स्पष्ट है स्वयं पढ़े-लिखे लोगों में व्याप्त अपार हीनता ग्रंथि।

इस पुस्तक को प्रतिबंधित करने के निर्णय ने इस देश में स्वतंत्र विश्लेषण, स्पष्टवादिता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में विश्वास रखने वालों को जैसे एक संके त दे डाला है कि यदि वे विश्वप्रसिद्ध विचारकों की बातों को थी इस देश में उध्दृत करते हैं या दोहराते हैं तब स्वयं हमारी सरकार उन्हीं के सामने झुकेगी जो हिंसक रूप से उसका प्रतिरोध करना जानते हैं। शायद इसीलिए मान बहुसंख्यकों की आस्था का माखौल उड़ाना इस देश में कुछ विकृत मानसिकता वाले राजनीतिबाजों एवं अंग्रेजी मीडिया के एक वर्ग को स्वीकार्य है।

क्या कहा जा रहा है इससे अधिक महत्व की बात आज यह है कि वही बात कौन कह रहा। मेरे एक मित्र ने उदाहरण दिया है कि यदि इसाई आस्था के विषय में नोबल पुरस्कार विजेता प्रसिद्ध विचारक बेटेंड रसेल या एडवर्ड लूस जैसे पत्रकार ने जो कुछ लिखा है। यदि कोई उनके नाम के लेविल के बिना अक्षरशः छाप दे तो हमारे देश के सेकुलरवादी ढोंगी उसे जघन्य दक्षिणपंथी होने का लेबिल दे सकता हैं। क्योंकि विश्वविख्यात छवि वाली प्रतिभाओं की आलोचना कर व स्वयं बौने जैसे बनना नहीं चाहते हैं। कितना ही तर्क-कुतर्क किया जाए वैश्विक जनमत के आस्थागत अतिरेक को आतंकवाद को पर्याय मानने लगा है और यदि देश को सुरक्षित रखना है तो कठोर कदम उठाने हीं होंगे। जो इस संभावित खतरों को भाप कर रहे हैं उन्हें बहिष्कृत करने से समस्या हल होने का। एक ओर न्यायालय ने यह भी कहा कि प्रत्येक धर्म की आलोचना वैध है पर इससे दुर्भावना नहीं पैदा होना चाहिए। लेखक जो भी सही महसूस करता है वह व्यक्त कर सकता है और यदि वह गलता है तो इसके लिए भी नहीं किया जा सकता है। पर न्यायालय की कसौटी यह है कि क्या यह आलोचना सदाशयता से उस आस्था के सिध्दांतों की परख की उद्देश्य की गई है। इस पुस्तक के संदर्भ में न्यायालय ने श्री भसीन के मंतव्य पर संयम करते हुए उसे उनके ग्रंथ को अध्ययन नहीं माना, अथवा यह ‘अकादमिक’ रूझान से अलग विद्वेषपूर्ण माना गया’

जब लेखक की ओर से कहा गया कि इंटरनेट के युग में प्रतिबंध कोई अर्थ नहीं रखता है और यदि उन अंशों की ओर इंगित किया जाए तो वे निकाले जा सकते हैं, इस पर न्यायालय द्वारा माना गया कि वे विषयवस्तु में इस तरह गुंथे हुए हैं कि कुछ अंशों को निकाल कर ग्रंथ को प्रसारित करने की आज्ञा भी नहीं दी जा सकती है तथा लेखक को इन तर्कों का कोई मूल्य नहीं है। इस प्रकार ग्रंथ को आपत्तिजनक और समरसता भंग करने वाला घोषित कर दिया गया तथा मुंबई उच्च न्यायालय ने महाराष्ट्र सरकार के इस प्रस्ताव पर 2007 में लगाए प्रतिबंध पर मोहर लगा दी।

श्री भसीन के मत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश मान इस तरह की व्याख्या द्वारा नहीं लगाया जा सकता है और इसके लिए वे सर्वोच्च में अपने विचारों को परखना चाहते हैं। इस प्रकरण से भारतीयों को क्या शिक्षा लेना चाहिए, विश्व इतिहास में धर्मों की गलाकाट प्रतिद्वंदिता का समीचीन विश्लेषण किस प्रकार करना चाहिए, धर्म पर आधारित सत्ताओं के ध्रुवीकरण के क्या परिणाम हो सकते है, यह आंकलन करना अनिवार्य हो गया है।

* लेखक वरिष्ठ पत्रकार और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।

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