सपा का नाटक और मुलायम की रणनीति

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सुरेश हिन्दुस्थानी

राजनीतिक दृष्टि से देश के सबसे बड़े प्रदेश उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी में चल रही अंतर्कलह थमने का नाम नहीं ले रही है। एक ही परिवार द्वारा संचालित की जा रही सपा के बड़े नेताओं के यह कहने के बाद कि ”सब ठीक है, कहीं कोई बिखराव नहीं है’ के बाद फिर अचानक ऐसी कार्यवाही हो जाती है कि इस बयान के मायने ही बदल जाते हैं। राजनीतिक प्रेक्षकों को यह साफ दिखाई देने लगा है कि समाजवादी पार्टी में सब कुछ ठीक नहीं है। सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव अपने दर्द को कई बार मुखरित कर चुके हैं। उनका अपनी पार्टी के मंत्रियों से साफ कहना था कि अपने आचरण को नहीं सुधारा तो पार्टी की हार तय है। मुलायम सिंह के बार बार चेताने के बाद भी प्रदेश सरकार के मंत्रियों ने अपना आचरण में कितना परिवर्तन किया, यह तो नहीं पता, लेकिन जिस भ्रष्टाचार के बारे में मुलायम सिंह ने मुख्यमंत्री को संकेत किया, उस पर किसी प्रकार का विराम नहीं लग सका।

सपा में चले घटनाक्रम को देखकर यह तो साफ हो गया है कि एक ही परिवार के सारे नेता पहलवान हैं, हर कोई एक दूसरे की तुलना में ज्यादा ताकतवर है। खुले रुप से भले ही यह कहा जा रहा हो कि सपा मुखिया जैसा कहेंगे, वैसा ही करेंगे, लेकिन काम इसके विपरीत ही किया जा रहा है। पूरी समाजवादी पार्टी के चाचा के रुप में स्थापित हो चुके शिवपाल सिंह यादव भले ही मुख्यमंत्री के निशाने पर हों, लेकिन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव उनके कद और प्रभाव को कम नहीं कर पा रहे हैं। वह हर बार वजनदार नेता ही साबित हुए हैं। इसके पीछे की कहानी कुछ भी हो, परंतु कोई न कोई ऐसी बात जरुर है कि अखिलेश के चाहते हुए भी मुलायम सिंह अपने भाई शिवपाल को अलग नहीं कर पा रहे हैं। हो सकता है कि इसके पीछे भ्रष्टाचार ही हो। विरोधी दलों द्वारा सपा की लड़ाई के लिए जो कहा जा रहा है, वह तो यही संकेत करता है कि सपा के नेताओं ने जो भ्रष्टाचार किया है, यह लड़ाई उसी का परिणाम है। विरोधी पक्ष का तो यह भी कहना है कि सपा के एक नेता ने भ्रष्टाचार करके चुनाव के लिए काफी मात्रा में धन एकत्रित किया है, जिसे वह नेता अकेले ही पचा लेना चाहता है, पार्टी को देना नहीं चाह रहा। बस इसी बात की लड़ाई है।

उत्तरप्रदेश में राजनीतिक दृष्टि से आंकलन करने पर भी यह स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि स्वयं समाजवादी पार्टी के नेता भी अपने दल को कम करके आंक रहे हैं। यह भी सत्य है कि भ्रष्टाचार के मामले में पार्टी की स्थिति में व्यापक पैमाने पर गिरावट आई है। इस गिरावट को पाटने के लिए मुख्यमंत्री अखिलेश यादव अभिमन्यु की भांति चुनावी चक्रव्यूह में फंसे हुए हैं। राजनीतिक दृष्टि से सोचा जाए तो यह सही है कि सत्ता संभालने वाली पार्टी के लिए विधानसभा चुनाव मुख्यमंत्री के लिए अग्निपरीक्षा जैसा होता है, इस कारण मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का तड़पड़ाहट स्वाभाविक रुप से सही मानी जा सकती है। क्योंकि उत्तरप्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनावों में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की ही परीक्षा है, अगर सपा को पराजय का सामना करना पड़ा तो स्वाभाविक रुप से मुख्यमंत्री पर सवाल उठाए जाएंगे। ऐसे में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव प्रदेश में अपने हिसाब से प्रत्याशी चयन करना चाह रहे हैं, जो सही माना जा सकता है। दूसरा यह भी है कि सपा में इस समय अकेले मुख्यमंत्री अखिलेश की छवि अच्छी मानी जा रही है और सपा जानबूझकर अच्छे बुरे की लड़ाई करा रही है। जिसमें अखिलेश और अच्छे बनकर जनता के सामने आएं, यही सपा की सोची समझी योजना है।

एक समय मुख्यमंत्री अखिलेश के अधीनस्थ प्रदेश सरकार के मंत्री के रुप में काम करने वाले शिवपाल सिंह यादव वर्तमान में समाजवादी पार्टी के प्रदेश प्रमुख हैं। इसलिए आज शिवपाल सिंह यादव का कद अखिलेश से स्वाभाविक रुप से बड़ा हो गया है। लेकिन सवाल यह आ रहा है कि यह खेल और चलेगा, तब राजनीतिक सितारे किसके पक्ष में होंगे, यह अनुमान लगाना फिलहाल कठिन लग रहा है। यह बात सही है कि सपा की यह रार किसी न किसी ऐसी परिणति को अंजाम देगी, जो सपा के लिए अत्यंत ही घातक होगा। इस भरपाई की पूर्ति न तो सरकार ही कर सकती है और न ही सपा मुखिया मुलायम सिंह ही कर पाएंगे। ऐसी स्थिति में आगामी विधानसभा चुनाव सपा के लिए बहुत बड़े घाटे का संकेत करता हुआ दिखाई दे रहा है।

हालांकि वर्तमान स्थिति में भी सपा को कोई राजनीतिक फायदा होने वाला दिखाई नहीं दे रहा है। क्योंकि समाजवादी पार्टी द्वारा कराए गए आंतरिक सर्वे में सपा को तीसरे स्थान की पार्टी माना जा रहा है। तीसरे स्थान का साफ मतलब है कि सपा भविष्य के कार्यकाल में शासन नहीं कर पाएगी। देश के राजनीतिक विश्लेषकों ने अनुमान के अनुसार उत्तरप्रदेश में होने वाले चुनावों में भारतीय जनता पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ही आमने-सामने की भूमिका में रहेंगे। इसके कारण भी सपा में असमंजस की स्थिति का प्रादुर्भाव हुआ है। सपा में चल रही प्रभुत्व की लड़ाई से सपा तो कमजोर होती जा रही है, लेकिन भाजपा और बसपा स्वाभाविक विकल्प के रुप में सामने आते जा रहे हैं। अब इसमें से कौन कितना प्रभाव दिखा पाएगा, यह चुनाव के बाद पता चल जाएगा।

समाजवादी पार्टी की कमजोरी इस बात से भी परिलक्षित हो रही है कि उसके मुखिया मुलायम सिंह यादव सपा को पुन: सत्ता दिलाने के लिए राजनीतिक वैसाखी की तलाश में जुट गए हैं। बिहार की तर्ज पर उत्तरप्रदेश में भी महागठबंधन बनाने की तैयारी सपा की ओर से की जा रही है। भविष्य में सपा अपनी इस रणनीति में कितना सफल हो पाएगी, यह नहीं कहा जा सकता। लेकिन यह तय है कि चुनाव में सपा अकेले जाएगी तो पराजय का मुंह देखना पड़ेगा। हालांकि इस गठबंधन के बनने में भी कई प्रकार की अड़चन दिखाई दे रही है। बिहार में चुनाव से पूर्व गठबंधन करने की प्रक्रिया स्वयं मुलायम सिंह यादव ने प्रारंभ की थी, लेकिन बाद में मुलायम सिंह यादव इस गठबंधन से अलग हो गए। ऐसे में मुलायम सिंह की बात को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार महत्व देंगे, इस बात के संकेत कम ही दिखाई देते हैं। खैर.. सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने गठबंधन के संकेत देकर स्वयं की कमजोरी को ही साबित किया है।

समाजवादी पार्टी में चल रही लड़ाई कभी कभी सोची समझी रणनीति का हिस्सा भी प्रदर्शित होती है। प्रदेश में जब भी विरोधी पक्ष का कोई बड़ा नेता अपना प्रभाव दिखाने आता है, यह नाटक तब ही ज्यादा होता है। बहुजन समाज पार्टी की कोई रैली हो अथवा भारतीय जनता पार्टी की ओर से मोदी की रैली। सपा का यह द्वंद चरम पर आ जाता है और इन रैलियों के दूसरे ही दिन सब कुछ ठीक हो जाता है। इससे होता यह है कि समाचार जगत में इन रैलियों को प्रमुखता से स्थान नहीं मिलता, जबकि सपा के राजनीतिक नाटक को सुर्खियां मिलती हैं। इससे यह कहा जा सकता है कि सपा बदनामी में भी नाम कमा रही है। आगे अगर यही नीति जारी रहती है तो सपा का यह नाटक खुलकर सामने आ जाएगा।
सुरेश हिन्दुस्थानी

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