डॉ. मयंक चतुर्वेदी
उत्तर प्रदेश में जिस तरह से भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में विधानसभा चुनावों के एक तरफा रुझान आए हैं, उसने इस बार समुचे देश को यही संदेश दिया है कि अब जातिगत आधार पर या धर्म के आधार पर अगला-पिछला की राजनीति नहीं चलेगी। सत्ता में बने रहना है तो विकास की राजनीति सभी राजनीतिक दलों को करना होगी, नहीं तो सत्ता से बाहर होने के लिए तैयार रहें। भले ही इसे फिर समाजवादी प्रमुख एवं अब यूपी के पूर्व सीएम हो चुके अखिलेश यादव कहें कि कभी-कभी लोकतंत्र में बहकावे से भी वोट मिल जाते हैं, गरीब नहीं समझ पाता है कि उसे क्या चाहिए। सपा प्रमुख के दिए अपने इस बयान से सच पूछिए तो सीधेतौर पर यही लग रहा है कि अखिलेश और उनकी समुची पार्टी अब तक बसपा प्रमुख मायावती की तरह ही सदमे में हैं कि कैसे यह संभव हुआ कि जहां अब तक भाजपा से दूर रहने वालों का मतप्रतिशत ज्यादा था, वहां उन इलाकों से आखिर यह राजनीतिक पार्टी जीत कैसे गई है ?
वस्तुत: पिछले कई चुनावों से सभी ने देखा है कि किस तरह यूपी में चुनाव आते ही मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति शुरू हो जाती थी। लगता था कि सपा-बसपा, कांग्रेस में होड़ मची है यह बताने की कि कौन कितना बड़ा मुस्लिमों का पेरोकार है। भाजपा को छोड़कर इस बार भी हर बार की तरह ही यहां मुसलमानों को थोक में पार्टियों ने अपना प्रत्याशी बनाया, इस आशा में कि वह कमाल कर देंगे, जीतकर आएंगे और सरकार बनाने में अपना अहम रोल अदा करेंगे। वहीं भारतीय जनता पार्टी थी जिसने कि इस आधार पर अपने प्रत्याशी नहीं चुने कि वह कौन से मजहब से आते हैं, उसने यही देखा कि संबंधित क्षेत्र के विकास के लिए कौन उम्मीदवार वर्तमान के साथ भविष्य में कितना उपयोगी रहेगा।
इस बीच यदि हम मुस्लिम आबादी घनत्व पर नजर दौड़ाएं तो दुनिया की कुल मुस्लिम जनसंख्या का 11 प्रतिशत हिस्सा भारत में है, जिसमें कि सिर्फ एक राज्य उत्तरप्रदेश में ही आबादी का 19.3 प्रतिशत हिस्सा रह रहा है। इसे विधानसभा वार देखें तो 403 विधानसभा सीटों में 73 सीटों पर 30 प्रतिशत मुस्लिम आबादी निवासरत है। उत्तरप्रदेश की विधानसभा में दो सौ से ज्यादा सीटें ऐसी हैं जहां मुस्लिम वोटर 10 प्रतिशत और 125 विधानसभा सीटों पर 20 प्रतिशत से ज्यादा हैं।
कह सकते हैं कि आंकड़ों के हिसाब से यूपी के 38 जिलों और 27 संसदीय सीटों पर मुस्लिम वोटर की निर्णायक भूमिका शुरू से रहती आई है। यही कारण है कि अभी तक यहां की सत्ता हासिल करने के लिए मुसलमानों का समर्थन बहुत जरुरी माना जाता रहा है। लेकिन इस बार के चुनावों ने इस मिथ को भी तोड़ा है। यहां मुस्लिम बहुल्य सीटों में से दो उदाहरण देखे जा सकते हैं, पहला देवबंद सीट जिसे मुस्लिम सीट ही माना जाता है, यहां से 21 सालों बाद भाजपा जीती है और दूसरा वाराणसी शहर की दक्षिणी सीट है जहां से बीजेपी की प्रचंड जीत से खुश होकर मुस्लिम महिलाओं ने ढोलक बजायी और एक-दूसरे को अबीर लगा कर बधाई दी। इसी प्रकार अन्य मुस्लिम बहुल्य सीटों पर भाजपा की जीत के बाद मुस्लिम इलाकों में जश्न मनाया गया है।
इस मुस्लिम जनसंख्या के साथ यदि आप सामान्य, पिछड़ा वर्ग, अजा-जनजा और अल्पसंख्यकों का जनसंख्यात्मक घनत्व यूपी में देखें तो 25 प्रतिशत सवर्ण, 10 प्रतिशत यादव, 26 प्रतिशत ओबीसी और 21 प्रतिशत दलित हैं, इनके अलावा बाकियों को आप अल्पसंख्यक कह सकते हैं। पुनश्च, यहां बड़ी बात यही है कि भाजपा ने जिन्हें भी अपना विधानसभा प्रत्याशी चुना, उनके सिर धर्म, संप्रदाय से ऊपर उठकर जीत का सेहरा इस्लाम के अनुयायियों ने भी बांधा है। वास्तव में देखा जाए तो उत्तरप्रदेश की जनता ने इस बार के चुनाव में सभी को बता दिया है कि वह हिन्दू-मुस्लिम की बातों से बाहर निकल चुकी है, विकास सबको बराबर से चाहिए। लेकिन इसी के साथ समाजवादी पार्टी का जनता के लिए धन्यवाद तो बनता ही है कि उसे यहां की जनता ने पूरी तरह अब तक नहीं नकारा है।
अखिलेश ने अपने कार्यकाल में जो भी विकास के कार्य किए हैं, देखा जाए तो यह उसी का नतीजा है कि जनता ने इस आधार पर उनकी समाजवादी पार्टी को विपक्ष में बैठने का मौका तो दिया, नहीं तो जनता ने सोशल इंजीनियरिंग और ध्रुवीकरण दोनों ही मोर्चे पर मायावती और उनकी बहुजन समाज पार्टी (बसपा) को इस हाल में भी नहीं छोड़ा है कि वह आगे अपने लोगों को उच्चसदन राज्यसभा में भी भेज सकें। वस्तुत: समाजवादी पार्टी यहां इस बात की खुशी जरूर मना सकती है कि विपक्ष के नेता का पद पाने के लिए निर्धारित विधायक संख्या पाने में वह सफल रही है।
संसदीय नियम कहते हैं कि विपक्ष के नेता का पद उसी पार्टी को दिया जा सकता है, जिसके पास सदन की कुल सीटों का 10 फीसदी संख्या बल है और वही पार्टी मुख्य विपक्षी की भूमिका में रहती है, चुंकि उत्तरप्रदेश विधानसभा में कुल 403 विधानसभा सीटें हैं, इस लिहाज से सपा यदि 40 सीटें ही लाने में सफल होती तो वह विधानसभा में विपक्ष के नेता का पद भी खो देती। यहां जनता ने 47 सीटों पर उसे विजयी बनाकर उसके सम्मान को बनाए रखा है, इसलिए ही यहां कहा जा रहा है कि सपा को विपक्ष में बैठकर काम करने का जो सबक जनता ने यूपी में दिया है, उसे इस पार्टी और इस जैसी अन्य क्षेत्रीय पार्टियों को गंभीरता से लेना चाहिए। साथ में इन चुनाव परिणामों से यह भी सीख लेनी चाहिए कि अब देश में धर्म–संप्रदाय आधारित लोगों को बांटकर की जाने वाली राजनीति अपनी मरणासन्न अवस्था में आ पहुँची है। यदि अब देश में क्षेत्रीय पार्टियों या अन्य राजनीतिक पार्टियों को भविष्य में अपना अस्तित्व बनाए रखना है तो वे भी विकास के मोदी मॉडल को जितनी जल्दी आत्मसात कर लेंगे उनके लिए यह उतना ही अच्छा होगा।