अंतरिक्ष में दूरबीन

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astrosatप्रमोद भार्गव

भारत अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में सफलता के लगातार नए-नए झण्डे फहरा रहा है। इसी क्रम में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन ;इसरो ने देश की पहली अंतरिक्ष वेधशाला एस्ट्रोसेट का सफल प्रक्षेपण किया है। श्रीहरिकोटा स्थित सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से ध्रुवीय प्रक्षेपण यान पीएसएलवी सी-30 ने उड़ान भरने के बाद महज 22 मिनट 32 सेकेंड में 650 किलोमीटर की दूरी तय करके ऐस्ट्रोसेट को पृथ्वी की निर्दिष्ट कक्षा में प्रक्षेपित करने में अहम् कामयाबी हासिल कर ली। अमेरिका,यूरोपीय संघ,जापान और रूस के बाद यह उपलब्धि अब तक भारत के ही हाथ लग पाई है। जबकि हमारा प्रतिद्वंद्वी चीन अभी अपनी अंतरिक्ष दूरबीन के निर्माण की प्रक्रिया में ही है। इस दूरबीन को खगोलीय स्त्रोतों का अध्ययन करने का एक समग्र साधन माना जा रहा है। इसलिए भारत के इस वैज्ञानिक – खगोलीय करिश्मे पर दुनिया की निगाहें टिक गई हैं।

मनुष्य का जिज्ञासु स्वभाव उसकी प्रकृति का हिस्सा रहा है। मानव की खगोलीय खोजें उपनिषदों से शुरू होकर उपग्रहों तक पहुंची हैं। हमारे पूर्वजों ने शून्य और उड़न तश्तरियों जैसे विचारों की परिकल्पना की। शून्य का विचार ही वैज्ञानिक अनुसंधानों का केंद्र बिंदु है। बारहवीं सदी के महान खगोलविज्ञानी आर्यभट्ट और उनकी   गणितज्ञ बेटी लीलावती के अलावा वराहमिहिर,भास्कराचार्य और यवनाचार्य  ब्रह्मांण्ड के रहस्यों को खंगालते रहे हैं। इसीलिए हमारे वर्तमान अंतरिक्ष कार्यक्रामों के संस्थापक वैज्ञानिक विक्रम साराभाई और सतीष धवन ने देश के पहले स्वदेशी उपग्रह का नामाकरण ‘आर्यभट्ट‘ के नाम से किया है। अंतरिक्ष विज्ञान के स्वर्ण-अक्षरों में पहले भारतीय अंतरिक्ष यात्री के रूप में राकेश शर्मा का नाम भी लिखा गया है। उन्होनें 3 अप्रैल 1984 को सोवियत भूमि से अंतरिक्ष की उड़ान भरने वाले यान ‘सोयूज टी-11 में यात्रा की थी। सोवियत संघ और भारत का यह साझा अंतरिक्ष कार्यक्रम था। तय है,इस मुकाम तक लाने में अनेक ऐसे दूरदर्शी वैज्ञानिकों की भूमिका रही है,जिनकी महत्वाकांक्षाओं ने इस पिछड़े देश को न केवल अंतरिक्ष की अनंत उंचाईयों तक पहुंचाया,बल्कि अब धन कमाने का आधार भी मजबूत कर दिया। ये उपलब्धियां कूटनीति को भी नई दिशा देने का पर्याय बन सकती हैं।

अंतरिक्ष में स्थापित कर दी गई इस दुरबीन से ब्रह्माण्ड के रहस्यों से पर्दा उठाने में मदद मिलेगी। वैज्ञानिक इससे क्षुद्र ग्रहों, तारों और आकाष गंगाओं के बनने व नश्ट होने के बारीक सूत्रों को पकड़ सकेंगें। भारत को यह समझना इसलिए भी आसान होगा, क्योंकि उसके पास पहले से ही बहुतरंगदैध्र्य वाला संवेदी अंतरिक्ष उपकरण है। यह उपकरण वृहद अंतरिक्षीय स्त्रोतों में तीव्र गति से होने वाले परिवर्तनों पर नजर रखने में सक्षम है। चंद्र और मंगलयान के सफल प्रक्षेपण के बावजूद अभी तक भारतीय अंतरिक्ष मिशन रिमोट संेसिंग, संचार, मैपिंग, नेविगेषन तक ही सीमित था। खासतौर से एस्ट्रोसेट बृहस्पति और षनि ग्रह के राज खोलने में अहम् भूमिका निभायेगा। यह अंतरिक्ष की दर्शनीय पराबैंग्नी और एक्सरे तंरगों पर भी दृष्टि रखेगा। जाहिर है, एस्ट्रोसेट के प्रक्षेपण के बाद अब हम खगोलीय घटनाआंे के भौतिक प्रक्रियाओं के अध्ययन में भी सक्षम हो रहे हैं।

अंतरिक्ष में सक्रिय हुई इस एस्ट्रोसेट नामक आंख को अमेरिका की दूरदर्शी वेधशाला ‘हबल’ का लघु संस्करण माना जा रहा है।  हबल को नासा ने 1990 में अंतरिक्ष में स्थापित किया था। जो बीते 25 साल से लगातार सक्रिय है। जबकि एस्ट्रोसेट की उम्र महज 5 साल है। हालांकि एस्ट्रोसेट और हबल के भार और खर्च में भी जमीन आसमान का अंतर है। एस्ट्रोसेट का वजन 1513 किलोग्राम है जबकि हबल का 1500 किलोग्राम है। एस्ट्रोसेट के निर्माण में 10 साल लगे और लागत आई 178 करोड़ रूपये, जबकि हबल का वजन 10 गुना ज्यादा है और इसकी लागत 195 अरब रूपये है। नासा ने हबल का प्रक्षेपण यूरोपीय संघ अंतरिक्ष एजेंसी के सहयोग से किया है, जबकि भारत ने एस्ट्रोसेट का प्रक्षेपण स्वयं के संसाधनों से किया है। एस्ट्रोसेट को स्थापित करने के दौरान भारत ने दूसरे देशों के सात उपग्रह भी पृथ्वी की कक्षा में पहुंचायें हैं। इनमें चार अमेरिका के और एक-एक इंडोनेषिया व कनाडा के हैं। प्रक्षेपण तकनीक में दुनिया के चंद देश ही दक्ष हैं, उनमें से एक भारत है। भारत प्रक्षेपण के जरिए अंतरिक्ष व्यापार से भी जुड़ गया है।

सूचना तकनीक का जो भूमंडलीय विस्तार हुआ है, उसका माध्यम अंतरिक्ष में छोड़े उपग्रह ही हैं। टीवी चैनलों पर कार्यक्रमों का प्रसारण भी उपग्रहों के जरिए होता है। इंटरनेट पर बेबसाइट,फेसबुक,ट्विटर, ब्लाॅग और वाॅट्सअप की रंगीन दुनिया व संवाद संप्रेशण बनाए रखने की पृष्ठभूमि में यही उपग्रह हैं। मोबाइल और वाई-फाई जैसी संचार सुविधाएं उपग्रह से संचालित होती है। अब तो षिक्षा,स्वास्थ्य,कृशि, मौसम, आपदा प्रबंधन और प्रतिरक्षा क्षेत्रों में भी अपग्रहों की मदद जरूरी हो गई है।  भारत आपदा प्रबंधन में अपनी अंतरिक्ष तकनीक के जरिए पड़ोसी देशों की सहयता पहले से ही कर रहा है। हालांकि यह कूटनीतिक इरादा कितना व्यावहरिक बैठता है और इसके क्या नफा-नुकसान होंगे,यह अभी भविष्य के गर्भ में है। लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि इसरो ने अंतरिक्ष में व्यापार का सिलसिला शुरू करके जो आत्मनिर्भरता हासिल की है, उसके लाभ बहुआयामी हैं।

बावजूद चुनौतियां कम नहीं हैं,क्योंकि हमारे अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने अनेक विपरीत परिस्थितियों और अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों के बावजूद जो उपलाब्धियां हासिल की हैं,वे गर्व करने लायक हैं। गोया, एक समय ऐसा भी था,जब अमेरिका के दबाव में रूस ने क्रायोजेनिक इंजन देने से मना कर दिया था। दरअसल प्रक्षेपण यान का यही इंजन वह अश्वशक्ति है, जो एस्ट्रोसेट जैसे भारी वजन वाले उपग्रहों को अंतरिक्ष में पहुंचाने का काम करती है। फिर हमारे जीएसएलएसवी मसलन भू-उपग्रह प्रक्षेपण यान की सफलता की निर्भरता भी इसी इंजन से संभव थी। हमारे वैज्ञानिकों ने दृढ़ इच्छा शक्ति का परिचय दिया और स्वेदेशी तकनीक के बूते क्रायोजेनिक इंजन विकसित कर लिया। और अब तो अंतरिक्ष में चीन को पछाड़ते हुए दुरबीन भी पृथ्वी की कक्षा में स्थापित कर दी है। इसीलिए अब  इसरो की स्वदेशी तकनीक का दुनिया लोहा मानने लगी है।

अंतरिक्ष में प्रक्षेपण की तकनीक और दुरबीन स्थापित कर लेने के बावजूद भारत  के समक्ष रक्षा क्षेत्र में नये आविश्कारों और हथियारों के निर्माण की चुनौतियां अब भी हैं। क्योंकि फिलहाल इस क्षेत्र में आत्मनिर्भर होने की दिशा में हम मजबूत पहल ही नहीं कर पा रहे हैं। जरूरत के साधारण हथियारों का निर्माण भी हमारे यहां नहीं हो पा रहा है। आधुनिकतम राइफलें भी हम आयात कर रहे हैं। इस बद्हाली में हम भरोसेमंद लड़ाकू विमान, टैंक विमानवाहक पोत और पनडुब्यिों की कल्पना ही कैसे कर सकते हैं ? हाल ही में हमने विमान वाहक पोत आइएनएस विक्रमादित्य रूस से खरीदा है। जबकि रक्षा संबंधी हथियारों के निर्माण के लिए हमारे यहां रक्षा अनुसंधान और विकास संस्थान ;डीआरडीओद्ध काम कर रहा हैं,परंतु इसकी उपलब्धियां इसरो की तुलना मे गौण हैं। इसे अब इसरो से प्रेरणा लेकर अपनी सक्रियता बढ़ाने की जरूरत है। क्योंकि भारत हथियारों का सबसे बड़ा आयातक देश है। रक्षा सामग्री आयात में खर्च की जाने वाली धन-राषि का आंकड़ा हर साल बढ़ता ही जा रहा है। भारत वाकई दुनिया की महाशक्ति बनना चाहता है तो उसे रक्षा-उपकरणों और हथियारों के निर्माण की दिशा में स्वावलंबी होना ही चाहिए। अन्यथा क्रायोजेनिक इंजन की तकनीक के बाबत रूस और अमेरिका ने जिस तरह से भारत को धोखा दिया था,उसी तरह जरूरत पड़ने पर मारक हथियार पाप्त करने के परिप्रेक्ष्य में भी मुंह की खानी पड़ सकती है।

 

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