हमें बख्‍श दो अन्ना

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डॉ. आशीष वशिष्ठ 

जन लोकपाल कानून के लिये अन्ना के 12 दिन के अनशन सरकार की चूलें हिलाकर रख दी हैं। सरकार की हेकड़ी को टीम अन्ना और देश की जनता ने चूर-चूर कर ये दिखा दिया कि लोकतंत्र में ‘लोक’ शक्ति ही सुपर पावर और किंग मेकर की भूमिका में होती है। जन लोकपाल बिल के लिए संयुक्त मसौदा कमेटी में सिविल सोसायटी के प्रतिनिधियों को शामिल करवाने के लिए अपै्रल में अन्ना ने अनशन किया था तो सरकार ने जनदबाव और फौरी कार्रवाई के तहत सिविल सोसायटी को कमेटी में षामिल कर लिया था। लेकिन मसौदा कमेटी की नौ नाकाम बैठकों और सरकार के अड़ियल और बेशर्म रवैये से खिन्न होकर अन्ना ने 16 अगस्त को रामलीला मैदान में अनशन का ऐलान किया था। अन्ना के अनशन के बाद कालेधन के मुद्दे पर 4-5 जून की रात बाबा रामदेव के कैम्प में लाठी चार्ज करवाकर सरकार खुद को फ्रंटफुट पर समझ रही थी कि मानो उसे जन आंदोलनों को दबाने, कुचलने और आम आदमी की आवाज दबाने का नायाब नुस्खा उसके हाथ लग गया हो। सरकार ने अन्ना के अनशन को भी हैंडल करने की जो खाका खींचा था वो रामदेव के आंदोलन की तर्ज पर ही था। लेकिन सरकारी उस्तादी और साजिश को धाराशायी होने में ज्यादा वक्त नहीं लगा और सरकार को मजबूरन अन्ना को रामलीला मैदान में अनशन की इजाजत देनी पड़ी।

 

अन्ना के अनशन ने देश के नेताओं, मंत्रियों और लगभग सारे राजनीतिक दलों को उनकी औकात बता दी। सरकार के साम-दाम-दण्ड और भेद की नीति अन्ना के सामने नुपंसक साबित हुई और देश की संसद ने सिविल सोसायटी के जन लोकपाल बिल के तीन महत्वपूर्ण बिंदुओं पर अपनी सहमति दे दी। लबोलुआब यह है कि अन्ना के आंदोलन के कारण देश के लगभग सभी राजनीतिक दलों का चाल, चरित्र और चेहरा देश की जनता के सामने बेनकाब हो गया। राजनीति दलों और नेताओं की जो भद्द अन्ना के आंदोलन से हुई ऐसी पहले कभी देखने या सुनने में नहीं मिलती है। अपनी इज्जत उछलती और छीनती देख लगभग सारे नेताओं और दलों ने एक सुर में शायद अन्ना से यही कहा है कि ‘अन्ना हमें बख्‍श दो’। बदले में जन लोकपाल बिल या फिर कुछ और जो लेना हो ले लो।

 

ये सच्चाई है कि आपातकाल के बाद पहली बार किसी मुद्दे पर इतनी बड़ी संख्या में लोग सड़कों पर उतरे हैं और एक मुद्दे पर एकजुट हुए हैं इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है। इस का सारा श्रेय अन्ना हजारे और उनकी टीम को जाता है। लोगों की संख्या और भीड़ के प्रकार पर जो भी बहस हो लेकिन देश भर में भ्रष्टाचार को लेकर एक असंतोष था और वो बाहर निकला जरुर। सरकार और देश की खुफिया और सुरक्षा एजेंसियों को भी ये उम्मीद नहीं थी कि अन्ना का अनशन इतना विशाल रूप धारण कर लेगा। कहीं न कहीं सरकार ने अन्ना के पीछे खड़ी आम आदमी के हजूम को भांपने में भारी भूल की थी। 16 तारीख को अन्ना को घर से निकलते ही गिरफ्तार करके सरकार ने समझा था कि सारा मामला काबू में आ चुका है। एकाध दिन जेल में रखने के बाद शांति भंग या फिर कोई अन्य बहाना बनाकर रामदेव की भांति अन्ना को भी दिल्ली पुलिस उनके गृह राज्य छोड़ आएगी तब न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी। लेकिन सरकार और दिल्ली पुलिस के सारे दावं उलटे पड़े और सरकार को अनशन की इजाजत देनी पड़ी। देखा जाए तो अन्ना ने सारा अनशन अपनी शर्तों पर किया और संसद में प्रस्ताव पारित होने के बाद ही उन्होंने अनशन का समापन किया।

 

अन्ना और उनकी टीम ने बड़ी कुशलता से इस पूरे अनशन का आयोजन व संचालन किया। अन्ना के साथ दिनों-दिन बढ़ती भीड़ ने राजनीतिक दलों और नेताओं की नींदे हराम कर रखी थी। राजनीतिक रैलियों के लिए भाड़े की भीड़ जुटाने वाले नेताओं के लिये ये बड़े अचरज की बात थी कि लोग अपने पैसे और साधनों से अनशन को सफल बनाने में रात-दिन एक किये हुए हैं। सांसदों को उनके घरों में घेरने की रणनीति भी कारगर साबित हुई। भारी जन दबाव और आंदोलनकारियों के सामने नेताओं को अनमने ही सही खुद को जनता के साथ खड़ा होना पड़ा। खुद कांग्रेस के कई सांसदों ने जन लोकपाल बिल का समर्थन किया। असल में जनता के गुस्से से घबराये नेताओं ने आफत को टालने के लिए जनता की हां में हां मिलाने में ही भलाई समझी।

 

असल में भ्रष्टाचार ने देश के आम आदमी का जीना मुहाल कर रखा है। आम आदमी के दुख-दर्दे को सुनने की फुर्सत किसी के पास नहीं है। ऐसे में अन्ना की हुंकार पर दिल्ली के रामलीला मैदान में देश का आदमी अपने काम-काज और घर-बाहर छोड़कर डट गया। नेता नगरी में अनशन, धरना, प्रदर्शन और जलूस आदि रोजमर्रा की बात है। सरकार को घेरने के लिए विपक्षी दल समय-समय पर बंद, आंदोलन व प्रदर्शन करते ही रहते हैं। दो-चार घंटे की ड्रामेबाजी और हो-हल्ले के बाद राजनीतिक आंदोलन और प्रदर्शन ज्ञापन सौंपने के बाद समाप्त हो जाते हैं। लेकिन अन्ना का अहिंसक अनशन से जिस प्रकार देश का आम आदमी पूरे मनोयोग से जुड़ा उसने बड़े-बड़े राजनीतिक धुरंधरों के सारे गणित और अनुमानों को झुठला दिया। आजाद भारत में राजनीतिक दलों की जो छीछालेदार और फजीहत अन्ना के 13 दिन के अनशन के दौरान हुई है वो ऐतिहासिक है। सरकार ने तो कदम-कदम पर गलतियां की, देखा जाए तो एक तरह से आंदोलन को हवा खुद सरकार ने ही दी। अगर सरकार संयुक्त कमेटी के गठन के बाद से ही गंभीरता से सिविल सोसायटी के सुझावों पर ध्यान देती और मतभेदों को सुलझाने के लिए मध्य मार्ग का चुनाव करती तो ये नौबत ही नहीं आती। लेकिन सरकार तो स्वयं को सर्वोपरि मानते हुये सत्ता के नषे में चूर होकर मदमस्त हाथी की भांति जन भावनाओं को कुचलते हुये मनमर्जी पर पूरी तरह उतारू थी। लेकिन सरकार ये समझने में चूक गई कि रामलीला मैदान में भाड़े की नहीं अपनी अंतरआत्मा की आवाज पर भीड़ जमा हुई थी।

 

भारत के संसदीय लोकतंत्र के इतिहास में एक और गौरवशाली अध्याय जुड़ गया है। जन आंदोलन के सामने आखिरकार सरकार झुकी। यह जनता की जीत है जिसने एक घमंड से परिपूर्ण सांसदो को उनकी जनता के सामने औकात दिखा दी जिसने बता दिया की यदि हम तुम्हें चुन कर संसद मे भेज सकते है तो तुम्हें झुका भी सकते हैं। हमारे तथाकथित नेताओं ने पिछले 64 सालों में अपने दिलों में ये गलतफहमी पाल ली है कि देश की जनता को धर्म, जाति, भाषा और दूसरे भेदों में उलझाकर अपने उल्लू सीधा करते रहो। जब जनता वोट देने के लिए अपने घरों से नहीं निकलती है वो उनसे सवाल-जवाब के लिये समय कहां से निकाल पाएगी। जनता को बेवकूफ बनाकर उनके तथाकथित प्रतिनिधि आम आदमी के हिस्से के पैसे को दोनों हाथों से बरसों बरस से लूटते आ रहे हैं।

 

भ्रष्टाचार पर नकेल कसने के लिए जब अन्ना ने जन लोकपाल बिल की अलख जगाई तो उसमें एक-एक करके देश का आम आदमी खुद-ब-खुद जुड़ता चला गया। बढ़ती जनशक्ति को देखकर स्वभाव से डरपोक हमारे नेताओं ने बिल में दुबकना ही सही समझा। सिविल सोसायटी को बदनाम करने और उसे कानून और संविधान विरोधी बताने के कुचक्र भी रचे गये लेकिन सारे अस्त्र-शस्त्र फेल होते देख सरकार ने सरेंडर करने में ही भलाई समझी। संसद में प्रस्ताव परित होने को ‘आधी जीत’ का दर्जा दिया है। कमोबेश अन्ना का अनशन और आंदोलन शांतिपूर्ण रहा इसमें भी कोई शक नहीं किया जा सकता और हां संभवत आजादी के बाद पहली बार जनता के दबाव में सरकार ने संसद में कानून न सही प्रस्ताव तो पारित किया ही है। संसद से बड़ी जनसंसद है। संसद को ये फैसला जनसंसद के दबाव में लेना पडा है। इस आंदोलन ने आम आदमी को उसकी ताकत का एहसास करा दिया है और ये विश्वास भी जगा दिया है कि भ्रष्टाचार मुक्त देश बनाया जा सकता है। लोकषाही में लोक की ताकत से डरे नेताओं और सरकार ने सिविल सोसायटी और जनभावनाओं का सम्मान करके लोकतंत्र की मजबूती के लिए जो कदम उठाया है वो सही मायने में अक्लमंदी का काम है।

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