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पल्लवित प्रफुल्लित बगिया ! - प्रवक्‍ता.कॉम - Pravakta.Com
रचनाकार: गोपाल बघेल ‘मधु’ (मधुगीति १८०७१६ स) पल्लवित प्रफुल्लित बगिया, प्रभु की सदा ही रहती; पुष्प कंटक प्रचुर होते, दनुजता मनुजता होती ! हुए विकसित सभी चलते, प्रकाशित प्रकृति में रहते; विकृति अपनी मिटा पाते, वही करने यहाँ आते ! बिगड़ भी राह कुछ जाते, समय पर पर सुधर जाते; अधर जो कोई रह जाते, धरा पर लौट कर आते ! प्रवाहित समाहित होते, कभी वे समाधित होते; ऊर्ध्व गति अनेकों चलते, नज़र पर कहाँ वे आते ! प्रतीकों के परे दुनियाँ, कभी है सामने आती; ‘मधु’ भव माधुरी चखते, माधवी सृष्टि लख जाती !