किस नारी की बात हो रही है

 सिद्धार्थ मिश्र”स्‍वतंत्र”

दिल्‍ली में हुए नृशंस बलात्‍कार कांड को अभी कुछ ही दिन बीते हैं कि दोबारा हुए इस जघन्‍य कांड ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया है । ऐसे  में विभिन्‍न  टीवी चैनल्‍स समेत अन्‍य संचार के समस्‍त माध्‍यमों पर गर्मागरम बहस होना  लाजिमी भी था । विगत कई दिनों से चल रही नारी की सुरक्षा संबंधी ये बहस धीरे धीरे ही सही विकृत रूप लेती जा रही है । खैर इस विषय में वार्ता से एक संक्षिप्‍त चर्चा इस निंदनीय घटना पर करना चाहूंगा । वस्‍तुत अय्‍याशी का अखाड़ा बन चुकी दिल्‍ली में इस तरह की घटना कोई नयी बात नहीं है । जहां तक इस नृशंस घटना की बात है तो यहां पर वाकई वासना ने मानवता की धज्जियां उड़ा कर रख दी हैं । एक पांच वर्ष की अबोध बच्‍ची के साथ इस तरह का पाशविक कृ‍त्‍य निंदनीय ही नहीं बल्कि कड़ी से कड़ी सजा के योग्‍य है । ऐसे में प्रख्‍यात महिला विचारकों की चिंता काफी हद तक जायज भी है ।

अब बात घटना के दूसरे पक्ष की करें तो वो निश्चित तौर पर समाधान ही होगा । जहां तक इन लगातार घट रही दुखद घटनाओं का प्रश्‍न है तो ये कहना गलत ना होगा,ये हमारे समाज की मानसिक विकृति का परिणाम है । वर्तमान परिप्रेक्ष्‍यों को देखकर तो यही कहा जा सकता है कि हमने अपनी नैतिकता और प्राचीन जीवन मूल्‍यों को गंवा दिया है । यदि ऐसा नहीं है तो क्‍या वजह है कि ऐसी घटनाएं निरंतर अखबार की सुर्खियां  बनती जा रही हैं । वास्‍तव में आज हम अपसंस्‍कृति के जिस दौर में जी रहे हैं वहां इस तरह की घटनाएं कोई अजूबा नहीं है । अपने इर्द गिर्द के परिवेश का यदि सूक्ष्‍म निरीक्षण तो पाएंगे कि हमारे देखते ही देखते हमारा परिवेश पूरी तरह बदलता जा रहा है । यथा कभी खुद को सौम्‍य और शालीन कहलाना पसंद करने वाली युवतियां आज हॉट और सेक्‍सी सुनना ज्‍यादा पसंद करती हैं । अब इन शब्‍दों का अर्थ आप  सभी मुझसे बेहतर जानते हैं । यहां बात सिर्फ अशिष्‍ट शब्‍दों के प्रयोग की ही नहीं है,बात हमारी संस्‍कृति के शालीन शब्‍दों की धज्जियां उड़ाने की भी है । ये सारी चीजें हम और आप दिन रात देख सुन रहे हैं । शीला की जवानी,मुन्‍नी की बदनामी और रजिया के गुंडों में फंसने पर ठुमके लगाने वाले तथाकथित विद्वान जन तब कहां थे जब सरे आम इन पारंपरिक नामों को वासना की चाशनी में लपेट कर परोसा जा रहा था । आप माने या न मानें किंतु चलचित्र निश्चित तौर पर हमारे जीवन को प्रभावित करते हैं ।

जहां तक भारतीय सिने जगत का प्रश्‍न है तो यहां कुछ ही दिनों पूर्व एक जुमला बड़े गुरूर के साथ उछाला जाता था । जो दिखता है वो बिकता है । इसी दिखाने की इच्‍छा ने पूरे समाज का कचरा बना दिया है । यहां दिखाने का अर्थ स्‍पष्‍ट है देह प्रदर्शन । ध्‍यान दीजीएगा बालीवुड में इन दिनों अंग प्रदर्शन की होड़ मची है । सब कुछ दिखाने को आतुर है तारिकाएं ,वो तो भला हो  सेंसर बोर्ड का जिसकी वजह से आज भी बहुत कुछ दिखाना शेष रह गया है । स्‍मरण हो कि अभी कुछेक वर्षों पूर्व ही पोर्न इंडस्‍ट्री की नायिका स‍नी लियोनी ने भारतीय सिने जगत में धूम मचा रखी है । इस बीच एक और नाम है हनी सिंह जो अपनी अश्‍लील गायकी से कुख्‍यात रहे हैं । जहां तक इन दिनों के अंदर छुपी कला की संभावनाओं की बात है तो उससे आप हम सभी भली भांति परिचित हैं । इन सबके बावजूद ऐसे घटिया लोगों का सिनेमा में जगह बनाना क्‍या साबित करता है ? बहरहाल जो भी हो लेकिन इनकी सफलता ने निश्चित तौर पर स्‍थापित मानकों को प्रभावित अवश्‍य किया है । काबिलेगौर है कि सनी लियोन को बॉलीवुड में पहचान दिलाने वाले निर्देशक महेश भट्ट आजकल महिला अधिकारों की बात कर रहे हैं । अपनी कहानियों में अश्‍लीलता,हवस,नारी को बाजारू वस्‍तु साबित कर देने वाले भट्ट साहब क्‍या वाकई नारी पर वार्ता करने के योग्‍य हैं ? एक बात और महेश जी को उनकी अपनी बेटी के प्रति आसक्‍त होने वाले पिता के तौर पर भी याद किया जाता है,जैसा कि उन्‍होने अपने एक विवादित बयान में कहा था । हैरत में मत पड़िये भारतीय नारी के उत्‍पीड़न के विरूद्ध बगावती स्‍वर उठाने वाली अधिकांश टीवी के पैनलों में बैठने वाली महिलाएं भी वास्‍तव में स्‍त्री के सांस्‍कृतिक स्‍वरूप से अपरिचित हैं ।

जहां तक इन विमर्शों का प्रश्‍न है तो इनमें अधिकांश ज्ञानी महिलाएं महिलाओं की आजादी पर वृहद चर्चा करती हैं । ध्‍यान रखीयेगा स्‍वतंत्रता और स्‍वच्‍छंदता में बहुत बड़ा अंतर होता । स्‍वतंत्रता  के  साथ  यदि अनुशासन न हो तो  तो वो बंदर के हाथ  में तलवार सरीखी हो जाती है । जहां तक इन विमर्शों का प्रश्‍न तो इन सभी के तमाम तर्क निरी लंपटता से ज्‍यादा कुछ नहीं हैं । यथा हम भारतीय परिधान क्‍यों पहने,रात में क्‍यों न घूमें,ब्‍वायफ्रैंड क्‍यों नहीं..विचार करीये इन प्रश्‍नों के उत्‍तर क्‍या होंगे ? भारतीय परिधान इसलिए क्‍योंकि आप भारतीय संस्‍कृति का हिस्‍सा  हैं, कम कपड़े इसलिए नहीं क्‍यों‍कि वस्‍त्र सभ्‍यता प्रदर्शित करते हैं । ध्‍यातव्‍य  हो कि मनुष्‍य अपने आदिम काल में नग्‍न रहता था यदि आप आज भी इस मत पर अड़ी हैं तो सौ फीसदी आप पशु धर्म का निर्वाह कर रही हैं । पशु धर्म में बलात्‍कार का कोई प्रश्‍न नहीं उठता, गौर करीयेगा जिस पाश्‍चात्‍य सभ्‍यता का अंधानुकरण करने की पैरोकारी की जाती वहां आज भी इन बातों पर विशेष तवज्‍जो नहीं दी जाती । दरअसल हमारी सभ्‍यता अपने उत्‍स काल से पश्चिम से विपरीत एवं वैज्ञानिक धरातल पर आधारित रही है । शायद इसीलिए हमारी सभ्‍यता में दिन काम करने के लिए तो रात  आराम करने के लिए ज्‍यादा मुफीद मानी गयी है । सदियों से ये नीयम बेरोकटोक चला रहा है अब यदि आप हर बात का विरोध करना चाहेंगे तो  ये संभव नहीं है । वास्‍तव में रात और दिन में स्‍थान के मूल चरित्र में बहुत बड़ा अंतर आ जाता है ।

अभी  कल ही फेसबुक पर कुछ महिलाओं के विचार पढ़े । एक महोदया ने अपने लंबे कवित्‍त में पुरूष को सदियों से महिला के उत्पीड़न का कारक बताया तो दूसरी ने मुक्‍तक की भाषा में कहा कि मैं कमाती हूं इसलिए तुम  मुझसे जलते हो,तीसरी ने पुरूष को कुत्‍ता कहा तो चौथी गुणी महिला ने बताया कि एक महिला के जीवन में सबसे ज्‍यादा कमीना व्‍यक्ति उसका पति होता है । अब आपको ये तर्क कैसे लगे मैं नहीं जानता लेकिन जहां तक मेरा प्रश्‍न है तो ये वास्‍तव में दुर्भाग्‍यजनक एवं कुंठित विचार हैं जो समाज की समरसता को समाप्‍त करने का काम करते हैं । क्‍या नारी होने के कारण आप को कुछ भी उलूल-जुलूल बकने का अधिकार प्राप्‍त हो जाता है ? नारी विमर्श पर लंबे भाषण देने वाली महिलाओं से कभी गृहिणी के दायित्‍व के बारे में पूछिये,क्‍या  वाकई वे अपने परिवारों के प्रति ईमानदार हैं ? मुझे अपना बचपन बखूबी याद है, शिक्षिका होने के बावजूद भी मां ने हमारे पालन पोषण में कोई कोताही नहीं बरती । उनका समाज शायद इन उन्‍नत महिलाओं जितना ग्‍लोबल ना रहा लेकिन उसमें हमारा परिवार,शहर,मोहल्‍ला,गांव और दूर दराज के सभी संबंधी शामिल थे । गर्व होता है उनके सरल जीवन को देखकर क्‍योंकि शायद उस पीढ़ी की ज्‍यादातर महिलाओं का पूरा जीवन सृजन को स‍मर्पित रहा था ।

खैर यदि आप को आज भी नारी को जानना है तो किसी दूर दराज के गांव में जाइये और कुछ दिन बिताइए । वहां आपका भारतीय नारी से प्रत्‍यक्ष परिचय हो जाएगा । वो भारतीय नारी जिसके कंधे पर धर्म टिका है,वो अबला जो अनपढ़ होते हुए भी बेटे को आईएएस बनाने की कुव्‍वत रखती है । जी हां वो नारी जिसे अपनी सृजन क्षमता पर कोफ्‍त नहीं बल्कि गर्व होता है । सबसे बड़ी बात है देश के गांवों में बसने अधिकांश घरेलू महिलाओं की निगाह में पुरूष उसका पूरक है न की शिकायत का पात्र । याद रखीए महिला सिर्फ महिला नहीं अपितु मां,पत्‍नी,बहन,बुआ भी है जो किसी भी परिवार का बहुमूल्‍य अंश है और जिसकी तरफ कुदृष्टि का सीधा सा अर्थ है समूल नाश । इस बात के असंख्‍यों उदाहरण आपको आपके इर्द गिर्द मिल जाएंगे । हां इस बात को समझने की एक आवश्‍यक शर्त है आपका सांस्‍कृतिक अर्थों में नारी होना । सीधा सी बात है हर अधिकार के साथ कर्त्‍तव्‍य सन्निहित होते हैं । जहां तक इस विमर्श पर ढोल पीटने वाली महिलाओं का प्रश्‍न है तो उनका स्‍वरूप हमारी माताओं एवं बहनों से सर्वथा विपरीत है । ऐसे में ये महिलाएं निश्चित तौर पर महिला विषयों पर विमर्श के योग्‍य तो नहीं कही जा सकती । इसीलिए आजकल के प्रत्‍येक विमर्श को देखकर मैं एक सोचने पर विवश हो जाता हूं कि किस नारी की बात हो रही है ?

आखिर में- जाकी रही भावना जैसी,हरि मूरत देखी तिन तैसी ।

2 COMMENTS

  1. Apki soch se mahila hi nhi nishpksh soch ka purush bhi sehmt nhi ho skta kyoNki naari ke saath aaj jo kuchh ho rha hai uske liye veh zimmedaar nhi thehraayi jaa skti.

  2. सिनेमा मे विज्ञापनो मे अश्लीलता है, पर क्या इसे रोकने से विकृत मानिकता दूर होगी.. नहीं,पहले भी फिल्मोंमे कैबरे होते थे, उस ज़माने वो भी अश्लील माने जाते थे.. अब नहीं। किस किस पर पाबन्दी लगायेंगे, पाबन्दी लगानी
    है तो स्त्री पुरुषों को अपनी रुग्ण मानसिकता पर लगानी हैं, जनसंख्या पर लगानी है, परवरिश नहीं दे सकते तो बच्चे पैदा न करें चाहें अमीर हों या ग़रीब।

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