प्रमोद भार्गव
देर से ही सही अपराधी सांसद और विधायकों की राजनीति से विदाई की उम्मीद बढ़ गई है। इस परिप्रेक्ष्य में यह खबर उम्मीद जगाने वाली है कि केंद्र सरकार ने 12 विशेष अदालतों के गठन का निर्णय लेते हुए 7.8 करोड़ रुपए का आवंटन मंजूर किया है। गौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को आपराधिक मामलों में लिप्त जनप्रतिनिधियों के खिलाफ चल रहे मामलों की शीघ्र सुनवाई के लिए विशेष न्यायालयों के गठन का निर्देश दिया था। अब चूंकि सर्वोच्च न्यायालय और केंद्र सरकार दोनों ही संसद और विधानसभाओं को दागी मुक्त बनाने की सकारात्मक पहल करते दिखाई दे रहे हैं, तो तय है, भविष्य की राजनीति में अपराध मुक्त हो ही जाएगी। इस दृष्टि से शीर्ष न्यायालय का झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा का कोयला घोटाले में दोषी ठहराना एक अहम् घटना है। अब कोड़ा और उनके साथ दोषी ठहराए गए उच्चस्तरीय अधिकारी एके बसु, विपिन बिहारी सिंह, बीके भट्टाचार्य और एच सी गुप्ता को भी दोषी ठहराया गया है। कुछ दिनों के भीतर ही इन्हें सजा सुना दी जाएगी।
बीते तीन-चार दषकों के भीतर राजनीतिक अपराधियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। महिलाओं से बलात्कार, हत्या और उनसे छेड़छाड़ करने वाले अपराधी भी निर्वाचित जनप्रतिनिधि हैं। लूट,डकैती और भ्रष्ट कदाचरण से जुड़े नेता भी विधानमंडलों की शोभा बढ़ा रहे हैं। 2014 के आम चुनाव और वर्तमान विधानसभाओं में ही 1581 सांसद और विधायक ऐसे हैं, जो अपराधी होते हुए भी संवैधानिक प्रकिया में सर्वोच्च हिस्सेदार हैं। यह कोई कल्पित अवधारणा नहीं, बल्कि इन जनप्रतिनिधियों ने स्वयं ही अपनी आपराधिक पृश्ठभूमि का खुलासा प्रत्याषी के रूप में निर्वाचन आयोग को प्रस्तुत किए शपथ-पत्रों में किया है। साफ है, राजनीति से जुड़े समुदाय की छवि और साख संदिग्ध हैं। इन्हें देश के भविष्य के लिए हर हाल में उज्ज्वल होना ही चाहिए।
न्यायमूर्ति रंजन गोगोई और नवीन सिन्हा की खंडपीठ ने एक जनहित याचिका की सुनवाई के क्रम में विशेष अदालतों के गठन का निर्देश केंद्र सरकार को दिया था। यह निर्देश देते हुए न्यायालय ने केंद्र से यह भी पूछा था कि त्वरित न्यायालय कब तक बनाए जाएंगे और इन पर कितना धन खर्च होगा। न्यायालय ने यह भी जानना चाहा था कि 2014 के आम चुनाव के दौरान विभिन्न उम्मीदवारों ने दिए हलफनामों में जिन विचाराधीन अपराधों का जिक्र किया था, उनमें से कितने मामलों का निराकरण हो पाया है ? साथ ही, यह भी पूछा कि इनमें से कितनों पर और नए मामले दर्ज हुए हैं ? यह जानकारी देते हुए केंद्र सरकार ने बताया है कि दागी जनप्रतिनिधियों के खिलाफ चल रहे मामलों के निपटारे के लिए 12 विशेष अदालतें धटित की जाएंगी। इनके गठन पर 7.8 करोड़ रुपए खर्च किए जाएंगे। तीन साल पहले के आंकड़ों के अनुसार देश में 1581 सांसदों और विधायकों के खिलाफ संगीन अपराधों में 13,500 मामले दर्ज है। वर्तमान संसद के 541 सांसदों में से 186 के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले विचाराधीन हैं।
केंद्र सरकार ने खंडपीठ को जानकारी दी है कि दोषी ठहराए गए जनप्रतिनिधियों को आजीवन चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित करने संबंधी चुनाव आयोग और विधि आयोग की सिफारिषों पर भी विचार किया जा रहा है। वर्तमान कानूनों के अनुसार सजा पाए नेता छह साल तक चुनाव नहीं लड़ सकते हैं। हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह मुद्दा निरंतर उछलता रहा है। निचली अदालत से राजनेताओं को सजा मिल भी जाती है तो वे ऊपरी अदालत में अपील के जरिए स्थगन आदेश मिल जाने की सहूलियत से बचे रहते हैं और उनका चुनाव लड़ने व चुने जाने का सिलसिला बना रहता है।
हमारी कानूनी व्यवस्था के इसी झोल को खत्म करने की दृष्टि से सजायाफ्ता मुजरिमों को आजीवन चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध की मांग उठती रही है। लेकिन सार्थक परिणाम अब तक नहीं निकल पाए हैं। यही वजह है कि हमारी प्रजातांत्रिक व्यवस्था पर अपराधी प्रवृत्ति के राजनीतिक प्रभावी होते चले जा रहे हैं। इसका एक प्रमुख कारण न्यायिक प्रकिया में सुस्ती और टालने की प्रवृत्ति भी है। कभी-कभी तो ऐसे मामलों में न्यायालय और न्यायाधीषों की मंशा भी संदिग्ध नजर आती है। नतीजतन मामले लंबे समय तक लटके रहते हैं और नेताओं को पूरी राजनीतिक पारी खेलने का अवसर मिल जाता है। इसलिए यह जरूरी नहीं कि त्वरित न्यायालयों के प्रस्ताव पर अमल होने के बाद भी न्याय में देरी नहीं होगी ? उपभोक्ता, किशोर और परिवार न्यायालयों का गठन इसी उद्देश्य से किया गया था कि इन प्रकृतियों के मामले, इन विशेष अदालतों में तेज गति से निपटेंगे, लेकिन इनकी सर्थकता अभी सिद्ध नहीं हो पाई है। वकीलों द्वारा तारीख दर तारीख मांगकर सुनवाई टालने की मंशा ने इन अदालतों के गठन का मकसद लगभग खत्म कर दिया है। यदि दागी जनप्रतिनिधियों का निस्तारण करने वाली कल की विशेष अदालतें इसी प्रवृत्ति का शिकार हो र्गइं तो उनके गठन का उद्देश्य व्यर्थ साबित होगा और ये अदालतें देश के लिए सफेद हाथी साबित होंगी।
वैसे भी देश का जितना बड़ा भूगोल और संसद, विधानसभाओं और पंचायतों के निर्वाचित जनप्रतिनिधि हैं, उस अनुपात में प्रत्येक जिले में विशेष अदालत खोलना आसान नहीं है। केंद्र और राज्य सरकारें इनका ढांचा खड़ा करने के लिए अर्थ की कमी का बहाना भी करेंगी। दूसरे, हमारे यहां पुलिस हो या सीबीआई जैसी शीर्ष जांच ऐजेंसी, इनकी भूमिकाएं निर्विकार व निर्लिप्त नहीं होती हैं। अकसर इनका झुकाव सत्ता के पक्ष में देखा जाता है। इनके दुरुपयोग का आरोप परस्पर विरोधी राजनीतिक दल लगाते ही रहते हैं। इसीलिए देश में यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति बनी हुई है कि हमारे यहां अपराध भी अपराध की प्रकृति के अनुसार दर्ज न किए जाकर व्यक्ति की हैसियत के मुताबिक पंजीबद्ध किए जाते हैं और उसी अंदाज में जांच प्रकिया आगे बढ़ती है व मामला न्यायिक प्रकिया से गुजरता है। इस दौरान कभी-कभी तो यह लगता है कि पूरी कानूनी प्रक्रिया ताकतवर दोषी को निर्दोषी सिद्ध करने की मानसिकता से आगे बढ़ाई जा रही है। इसी लचर मानसिकता का परिणाम है कि राजनीति में अपराधियों की संख्या में बढ़ोत्तरी हो रही है। इस दुरभिसंधि में यह मुगालता हमेशा बना रहता है कि राजनीति का अपराधीकरण हो रहा है या अपराध का राजनीतिकरण हो रहा है। कालांतर में जो त्वरित न्यायालय वजूद में आने वाली हैं तो इनमें मामलों के निपटारे की समय-सीमा भी तय करनी होगी, अन्यथा राजनैतिक अपराधी जो खेल जिला एवं सत्र न्यायालयों में खेलते रहे हैं, उसी खेल का हिस्सा विशेष अदालतें भी बन जाएंगी। गोया, जिस मानसिकता से हमारी कार्यपालिका पेश आती रही है, ऐसे में दुविधा एवं आशंका यह भी है कि राजनीतिक दोषियों से जुड़े मामलों में त्वरित निपटारे की व्यवस्था कहीं राजनीतिक विरोधियों को निपटाने का पर्याय न बन जाए ? हम सब जानते हैं कि सीबीआई इसी पर्याय का अचूक औजार बनी हुई है। इसी कारण राजनीति में अपराधीकरण को बल मिला हुआ है।
इन विशेष अदालतों में जनप्रतिनिधियों के साथ उन भ्रष्ट और स्त्रीजन्य अपराधों से जुड़े लोक सेवकों की भी सुनवाई हो, जो आपराध की गिरफ्त में आ जाने के पष्चात भी उसी तरह बचे रहते हैं, जिस तरह राजनेता बचे रहते हैं। नतीजतन ऐसे नेता और नौकरशाहों का गठजोड़ एक-दूसरे को मददगार साबित होता है और वे परस्पर बचने के उपायों को अमलीजामा पहनाने का काम करने लग जाते हैं। संगीन आरोपों में संलिप्त होने के बावजूद इनकी सार्वजनिक और शासकीय जीवन में यह सक्रियता जहां आम आदमी की कानून व्यवस्था में आस्था को डिगाने का काम करती है, वहीं शासन-प्रशासन के ये प्रभावशाली लोग कानून व्यवस्था को यथा स्थिति में बनाए रखने का काम भी करते हैं। मसलन व्यवस्था में सुधार के प्रावधानों में रोड़ा अटकाते हैं। यही वजह है कि लोकपाल कानून पारित हुए अर्सा गुजर गया है, लेकिन केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार लोकपाल की नियुक्ति में कोई रुचि नहीं ले रही है। नतीजतन राजनीति में अपराधियों का बोलबाला बना हुआ है। इनकी वजह से ही नेक-नीयति, धवल छवि, ईमानदार और सादगी पसंद लोग राजनीति में हाशिये पर पड़े हैं। साफ है, आपराधिक प्रकृति के राजनेताओं पर अंकुश लगे, तब कहीं साफ-सुथरी छवि के लोगों को राजनीति में आने के अवसर की संभावनाएं बढ़ेंगी ?