प्रमोद भार्गव
उत्तर प्रदेश में पुलिस आयुक्त प्रणाली लागू होने के बाद इसे मध्य प्रदेश में भी लागू करने की सुगबुगाहट शुरू हो गई है। प्रदेश के पुलिस महानिदेशक विजय कुमार सिंह ने अपने एक ट्वीट में इस प्रणाली के लागू नहीं होने का दर्द जताते हुए कहा कि जिन राज्यों में यह प्रणाली लागू है, वे प्रगतिवादी हैं। उन्होंने इस व्यवस्था की खूबियां जताते हुए दावा किया कि इससे जहां पुलिस की सेवाएं व्यवहारिक होती हैं, कानून-व्यवस्था भी सुदृढ़ होती है। साथ ही, पुलिस और जनता के बीच संबंध मधुर बनते हैं। इधर, मुख्यमंत्री कमलनाथ ने पत्रकारों से बातचीत करते हुए कहा कि आयुक्त प्रणाली जनता से जुड़ा मुद्दा नहीं है। नतीजतन यह उनकी प्राथमिकता नहीं है। इसके बावजूद महाराष्ट्र में जो आयुक्त प्रणाली लागू है, उसे समझ रहे हैं। यदि वह बेहतर होगी तो लागू करने का विचार किया जाएगा। कमलनाथ ने प्रणाली पर कटाक्ष करते हुए कहा कि इस प्रणाली को लागू करने अथवा नहीं करने से परेशान सिर्फ वे लोग हैं, जो इससे सीधे जुड़े हैं। दरअसल मुख्यमंत्री ने तार्किक बात कही है, यदि यह व्यवस्था प्रदेश में लागू होती है तो कुछ आईपीएस के अधिकारों का दायरा बढ़ जाएगा और कुछ आईएएस का दायरा घट जाएगा। यानी व्यवस्था में सुधार की बजाय अधिकारों के बंदरबांट की यह लड़ाई है।आयुक्त प्रणाली के तहत पुलिस को दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) तहत कुछ धाराओं पर कार्रवाई के अधिकार मिल जाते हैं। धारा-107 व 116 के तहत पुलिस को किसी व्यक्ति को प्रतिबंधित करने के साथ-साथ सार्वजनिक मार्ग पर हुए अतिक्रमण को खाली करने का अधिकार मिल जाता है। शांति बनाए रखने के लिए धारा-144 लागू करने और शांतिभंग की आशंका में किसी व्यक्ति को धारा-151 के तहत गिरफ्तार कर चालान पेश करने का अधिकार भी पुलिस के कार्य क्षेत्र में आ जाते हैं। ये अधिकार वैसे एसडीएम के पास सुरक्षित होते हैं। पुलिस आयुक्त जेल का निरीक्षण भी स्वतंत्र रूप से कर सकते हैं। साथ ही किसी बंदी को एक सप्ताह तक की अवधि के लिए पेरोल की मंजूरी देने का अधिकार भी मिल जाता है। शस्त्र लाइसेंस पुलिस आयुक्त के अधिकार क्षेत्र में आ जाता है, जो अमूमन कलेक्टर के अधिकार क्षेत्र में होता है। साफ है, यह व्यवस्था सुधार की बजाय अधिकारों को कलेक्टर या एसडीएम से हस्तगत करने की प्रणाली है। हालांकि राज्य सरकार को यह तय करने का अधिकार होता है कि वह किन अधिकारों को कलेक्टर से लेकर पुलिस आयुक्त को सौंपे।हमारे देश में जब भी कोई कानून व्यवस्था से जुड़ी बड़ी घटना घटती है तो प्रशासन और पुलिस पर सवाल राजनीतिकों से लेकर नागरिक समाज तक के लोग उठाने लगते है। लेकिन खासतौर से पुलिस में आमूलचूल परिवर्तन के लिए बुनियादी पहल करने का दायित्व कोई राजनैतिक दल नही उठाता। चहुंओर पुलिस को जवाबदेह बनाने के साथ, उसका चेहरा मानवतावादी बनाये जाने की मांग भी उठने लगती है। लेकिन जबतक कानून एवं व्यवस्था की देखभाल की जिम्मेदारी एक अलग तंत्र को नहीं सौंपी जाती और अपराध व अनुसंधान से जुड़े मामलों का अलग से तंत्र विकसित नहीं किया जाता तबतक पुलिस में परिवर्तन की उम्मीद बेमानी है। पुलिस के चरित्र में परिवर्तन आईपीएस बनाम आईएएस के द्वंद्व एवं अहंकार टकराव के चलते भी नहीं हो पा रहा है।पुलिस की कार्यप्रणाली प्रजातांत्रिक मूल्यों और संवैधानिक अधिकारों के प्रति उदार, खरी व जवाबदेह हो, इस नजरिये से सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य सरकारों को मौजूदा पुलिस व्यवस्था में फेरबदल के कुछ सुझाव दिए थे, इन पर अमल के लिए कुछ राज्य सरकारों ने आयोग और समितियों का गठन भी किया। लेकिन किसी नतीजे पर पहुंचने से पहले ये कोशिशें आईएएस बनाम आईपीएस के बीच वर्चस्व के सवाल और अह्म के टकराव में उलझकर रह गई। ब्रितानी हुकूमत के दौरान 1861 में वजूद में आए ‘पुलिस एक्ट’ में बदलाव लाकर कोई ऐसा कानून अस्तित्व में आए जो पुलिस को कानून के दायरे में काम करने को तो बाध्य करे ही, पुलिस की भूमिका भी जनसेवक के रूप में चिन्हित हो, क्या ऐसा नैतिकता और ईमानदारी के बिना संभव है? पुलिस राजनीतिकों के दखल के साथ पहुंच वाले लोगों के अनावश्यक दबाव से भी मुक्त रहते हुए जनता के प्रति संवेदनशील रहे, ऐसे फलित तब सामने आएंगे जब कानून के निर्माता और नियंता ‘अपनी पुलिस बनाने की बजाय अच्छी पुलिस’ बनाने की कवायद करें।चूंकि ‘पुलिस’ राजनीतिकों के पास एक ऐसा संवैधानिक औजार है जो विपक्षियों को कानूनन फंसाने अथवा उन्हें जलील व उत्पीड़ित करने के आसान तरीके के रूप में पेश आती है। इसीलिए पुलिस तो पुलिस, सीवीसी और सीबीआई को भी विपक्षी दल सत्ताधारी हाथों का खिलौना कहते नहीं अघाते। लेकिन जब इन्हें बदलने और जनहितकारी बनाए जाने की हिदायत देश की सर्वोच्च न्यायालय ने दी थी, तब कांग्रेस और साम्यवादी राज्य सरकारों की बात तो छोड़िए उन तथाकथित राष्ट्रवादी दलों की सरकारों ने भी इस ब्रिटिश एक्ट को पलटने की उदारता नहीं दिखाई, जो इस फिरंगी कानून को पानी पी-पीकर कोसते रहते थे। इससे जाहिर होता है सभी राजनीतिक दलों की फितरत कमोबेश एक जैसी है। नौकरशाही की तो डेढ़ सौ साल पुराने इसी कानून के बने रहने में ही बल्ले-बल्ले है।इसे देश का दुर्भाग्य कहा जाएगा कि आजादी के 72 साल बाद भी पुलिस की कानूनी संरचना, संस्थागत ढांचा और काम करने का तरीका औपनिवेशिक नीतियों का पिछलग्गू है। इसलिए इसमें परिवर्तन की मांग लाजिमी भी है। लिहाजा इसी क्रम में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर कई समितियां और आयोग वजूद में आए और उन्होंने सिफारिशें भी कीं, परंतु किसी भी राज्य सरकार ने सिफारिशों को लागू करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं दिखाई। बल्कि कुछ सरकारें तो सर्वोच्च न्यायालय की इस कार्यवाही को विधायिका और कार्यपालिका में न्यायपालिका के अनावश्यक दखल के रूप में देखती रही हैं।पुलिस की स्वच्छ छवि के लिए जरूरी है उसे दबाव मुक्त बनाया जाए। क्योंकि पुलिस काम तो सत्ताधारियों के दबाव में करती है, लेकिन जलील पुलिस को होना पड़ता है। झूठे मामलों में न्यायालय की फटकार का सामना भी पुलिस को ही करना होता है। पुलिस के आला-अधिकारियों की निश्चित अवधि के लिए तैनाती भी जरूरी है क्योंकि सिर पर तबादले की तलवार लटकी हो तो पुलिस भयमुक्त अथवा भयनिरपेक्ष कानूनी कार्रवाई को अंजाम देने में सकुचाती है। कई राजनेताओं के मामलों में तो जांच कर रहे पुलिस अधिकारी का ऐन उस वक्त तबादला कर दिया जाता है, जब जांच निर्णायक दौर में होती है। जब प्रभावित होने वाला नेता यह भांप लेता है कि जांच में वह प्रथम दृष्टया आरोपी साबित होने वाला है तो वह अपनी ताकत का बेजा इस्तेमाल कर जांच अधिकारी का तबादला करा देता है। हालांकि जांच और अभियोजन के लिए पृथक एजेंसी की जरूरत भी सिफारिशों में है। ऐसा होता है तो पुलिस लंबी जांच प्रक्रिया से मुक्त रहते, कानून-व्यवस्था को चुस्त बनाए रखने में ज्यादा ध्यान दे पाएगी।