व्यंग्य/ बिन जूते सब सून/ अशोक गौतम

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विश्व आर्थिक मंदी के दौर से गुजर रहा हो तो गुजरता रहे भाई साहब! मुझे विश्व की आर्थिक मंदी से कोई लेना देना नहीं। विश्व को परेशान होते देख पत्नी ने मुझसे कहा, ‘जब तक मैं चाय बनाती हूं, विश्व को ढांढस बंधा आओ।’

‘मेरे अपने रोने ही क्या कम है जो विश्व के रोने में शरीक हो और रोने का पंगा लूं। मुझमें औरों के रोने में शरीक होने का अब दम नहीं?’

हफ्ता पहले पड़ोसी की चार बच्चों की मां पांच बच्चों के बाप के साथ फुर्र हो गई तो पत्नी ने फिर कहा, ‘जब तक मैं चपातियां बनाती हूं, बेचारे पड़ोसी को ढांढस बंधा आओ।’

‘देखो बेगम!मुझे पड़ोसी के रोने से कोई लेना देना नहीं। मेरी पत्नी जिस दिन अपने प्रेमी के साथ भागेगी तो वह भी न आए मेरे रोने में सुर मिलाने। पर कम से कम पत्नी के भाग जाने पर हाय तौबा करने वालों में मैं नहीं।’

उनके लड़के की लगी लगाई नौकरी टूट गई तो पत्नी ने मुसकराते हुए, पचास इंच घेरे वाली पतली कमर मटकाते हुए कहा, ‘खुशी है उनके लड़के की लगी लगाई नौकरी छूट गई, अफसोस जाहिर करने ही जा आओ, तब तक मैं दाल तड़क देती हूं।’

‘अरे, मेरे पास वक्त है ही कहां? क्या कर सकता हूं भाई साहब मैं ! लड़का उनका है, नौकरी उसकी थी।’

उसका बेटा उसे खा पीकर भरे चौराहे पर अकेला छोड़ गया। अब करें तो क्या करें भाई साहब! पत्नी से फिर न रहा गया सो कह बैठी, ‘उनके यहां चार आंसू बहाने जा आओ, बुढ़ापे को शायद स्वर्ग मिल जाए।’

अब किस किस के घर आंसू बहाने जाऊं भाई साहब। अपने ही रोने क्या कम हैं साले? चौबीसों घंटे भी ईमानदारी से रोते रहो तो भी उम्र भर कम न हों। मरने के बाद भी आठ दस बचे रहें।

अभी अपने रोने से थक कर, गले से बलगम साफ कर, दो घूंट नकली चाय के ले जरा आराम करने बैठा ही था कि वे सड़ा सा थोबड़ा लिए आते दिखे? अब भाई साहब ये जोर डालेंगे कि मेरे रोने के साथ भी अपना सुर मिलाओ। अगर ऐसे ही औरों के रोने के साथ खानापूर्ति के लिए ही सही, सुर में सुर मिलाते रहे तो अपने रोनों का तो आप सुर ही भूल जाएंगे न!

इससे पहले के वे अपना रोना मेरे मुंह पर दे मारते मैंने अपना रोना उनकी रोनी सूरत पर बड़ी उस्तादी से दे मारते पूछा, ‘ये सुबह सुबह क्या हाल बना रखा है? सोते-सोते कुछ लिया क्यों नहीं।’

‘कहां से लूं यार! बहुत परेशान हूं।’ अब आपसे छुपाना क्या! मैं चाहे कितना ही परेशान क्यों न होऊं, जब कोई कहता है कि मैं बहुत परेशान हूं तो मुझे बहुत खुशी होती है। मन करता है कि जेब में चार पैसे हो तो लड्डू बांट लूं। अब उधार लेकर औरों का खिलाना मैंने छोड़ दिया है।

‘क्या बात है?’ मैं अपने मन की खुशी को दबाने का भरसक प्रयास कर रहा था, पर एक वह थी कि दब ही नहीं रही थी, संसदीय चुनाव के बाद भाजपा में सुलगी चिंगारी की तरह।

‘कुत्ता चार दिनों से घर से गायब है। पर तेरे चेहरे पर परेशानी की ये लकीरें क्यों?’ धत्त तेरे की। यहां समाज में कइयों के कई महीनों से बाप गायब हैं, और वे हैं कि बाप के बिस्तर पर लंबी तान कर सोए हैं, कइयों की पत्नियां महीनों से घर से गायब हैं पर वे पुलिस स्टेशन में रिपोर्ट करवाए बिना मजे से अपने तो अपने, दो -चार और दोस्तों के भी घोड़े बेच कर मजे से सो रहे हैं। इधर एक ये हैं कि…. बड़ा गुस्सा आया बंदे पर। परेशानी के लिए जिंदगी में और चीजें क्या कम हैं जो परेशानियों की लिस्ट में कुत्ते को भी शामिल कर लिया।

‘पत्नी के चेहरे पर बुढापे ने आक्रमण कर दिया है,बस इसलिए परेशान हूं। सच कहूं यार! मैं अपने बुढ़ापे से इतना परेशान नहीं जितना पत्नी के चेहरे पर आ रहे बुढ़ापे से परेशान हूं।’

‘पर तुम्हारी परेशानी मेरी परेशानी से कम है।’

‘कैसे?’ लो जनाब, अब तो लोग परेशानियों को भी तोलने लग गए।

‘मेरे परिवार में कुत्ता ही मेरे प्रति संवेदनशील था।’ कह वे मेरे सिर में हाथ दे वहीं बैठ गए।

‘अरे साहब, कम से कम अपनी परेशानी में सिर तो मत पकड़िए।’ मैंने कहा तो उन्होंने सॉरी फील की। मैंने भी माफ कर दिया। बंदा परेशान हो तो ऐसा तो हो ही जाता है।

‘मेरे साथ उसे ढूंढने चलो तो मरने के बाद भी तुम्हारा अहसान न भूलूं।’ कह उन्होंने रटा रटाया औपचारिक वाक्य मेरे मुंह पर चिपकाने की भरपूर कोशिश की। पर शायद उसमें गोंद कम था सो ठीक से चिपका नहीं।

‘चलता तो यार! पर मेरे पास आजकल जूते नहीं है। नंगे पांव घर से कैसे साथ चलूं।’

‘क्या मतलब?? यहां तो लोग रोटी पानी बिन जी सकते हैं पर जूतों बिन नहीं।’

‘अबके चुनाव के वक्त जूते घर से लाख मना करने के बाद भी निकल पड़े थे। निकलते निकलते कह गए थे की चुनाव खत्म होते ही आ जाएंगे। अबसे जनता का काम खत्म ,अपना काम शुरू… पर अभी तक नहीं आए।’ कह मैंने अपने सिर में हाथ दे दिया। अपनी परेशानियों में औरों को खींचने की अपनी फितरत नहीं साहब। और फितरतें मुझमें भले ही अनगिनत हों।

‘तो??’

‘तो क्या, देख रहे हो न! अभी तक नहीं आए। घर में बैठे बैठे टांगों में जंग लग गया है। आंखिन देखी की जगह कानन सुनी से गुजारा कर रहा हूं। लगता है जैसे तमाम दुनिया से कट गया होऊं।’

‘तो तुमने उन्हें आने के लिए फोन-वोन नहीं किया!!!’

‘किया बंधु, बहुत किया। हर बार कहते हैं कि बस, चार दिन बाद आए। कभी कहते हैं कि बजट सत्र खत्म होते ही आ जाएंगे,तो….’

‘तो क्या???’

‘फिर बोले मानसून सत्र भी निबटा आते हैं। अब कल ही उन्होंने फोन पर कहा कि कहा कि वे भारत भ्रमण पर निकल गए हैं। उन्हें लगता है कि उनकी जरूरत मुझसे ज्यादा हर राज्य की राजनैतिक बैठकों में है।’

‘हद है यार! तेरा कहा जूते भी नहीं मानते? जोरू तो क्या ही मानती होगी।’

‘जोरू की तो छोड़ो! पर अपने जूतों को संभाल कर रखिएगा बंधु। कल मेरी तरह लाचार हो घर में न बैठना पड़े।’ मैंने कहा तो उन्होंने अपने जूते पांव से खोल अपने हाथ में ले लिए और सिर झुकाए अपना कुत्ता ढूंढने अकेले ही चले गए। यहां लोग भगवान गुम हो जाने पर उसे ढूंढने किसीके साथ नहीं जाते तो कुत्ते को ढूंढने भला साथ कौन जाए!!!

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अशोक गौतम
जाने-माने साहित्‍यकार व व्‍यंगकार। 24 जून 1961 को हिमाचल प्रदेश के सोलन जिला की तहसील कसौली के गाँव गाड में जन्म। हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय शिमला से भाषा संकाय में पीएच.डी की उपाधि। देश के सुप्रतिष्ठित दैनिक समाचर-पत्रों,पत्रिकाओं और वेब-पत्रिकाओं निरंतर लेखन। सम्‍पर्क: गौतम निवास,अप्पर सेरी रोड,नजदीक मेन वाटर टैंक, सोलन, 173212, हिमाचल प्रदेश

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