व्यंग्य/ दिल्ली मरतु लेखक अवलोकी

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डॉ. अशोक गौतम

 

किसी और का लेखक के साथ चोली दामन का संबंध हो या न पर लेखक और बीमारी का चोली दामन का संबंध होता है। चाहे वह किसी प्रेमिका की बीमारी हो अथवा लेखन की। इस बीमारी के चलते बहुधा लेखक की ब्याहता पत्नियां तो न के बराबर ही टिकती हैं पर प्रेमिकाएं भी उनके साथ नहीं टिकतीं। वह लेखक चाहे हिंदी का हो, तेलगु का हो, अंग्रेजी का या फिर लोक साहित्य का ही क्यों न हो।

वे ऐसे वैसे लेखक बिलकुल नहीं रहे कि जिन्होंने कोरा लिखा ही! जिंदगी भर वे तो ऐसे लेखक रहे कि लिखते बाद में थे छपते पहले थे। पर अचानक उस रोज उनकी कलम को पता नहीं क्या हुआ कि घिसते घिसते थक उसने एक बार जो चारपाई पकड़ी तो उठने का नाम ही नहीं लिया। अपनी कलम के साथ वे बड़े दिनों तक चारपाई पर पड़े रहे यह सोच कर कि अनके जाने की खबर सुन सरकार शायद उन्हें जाते जाते पुरस्कार पुरूस्कार दे दे तो वे यमराज के सामने सीना चौड़ा कर गर्व से कह सकें कि वे सरकार से पुरस्कार प्राप्त साहित्यकार हैं, ऐसे वैसे नहीं कि पगलाए से कलम घिसते रहे। लिहाजा उन्हें सरकारी अतिथि माना जाए और पाठकों के साथ रहने के बदले लेखक गृह में उनके रहने का इंतजाम हो इस बहाने चलो मरने के बाद ही सही लेखक गृह के दर्षन तो हों जाएंगे वरना बेचारों ने जितनी बार कहीं बाहर जा सरकार द्वारा लेखकों को मुहैया करवाए गए लेखक गृह में रूकने की सोची कि चलो इस बहाने लेखकों के रजिस्टर में भी एंट्री हो जाएगी और चार पैसे भी बच जाएंगे पर हर बार वहां पहले ही कोई संस्कृति विभाग का बंदा पड़ा पाया।

इनकी लंबी बीमारी के चलते रसाले वालों के खतों से उनका कमरा भर गया कि कुछ जोड़ा तोड़ा भेजो प्लीज! आपका कालम खाली रह रहा है। इतना उत्तम कोटि का जोड़ तोड़ रचनाकार हमें कोई दूसरा नहीं मिल रहा है जो जोड़ तोड़ के माल को इस तरह से पैकेट बना हमें भेजे कि जिसकी रचना हो उसे भी पता न चले पाए कि यह रचना उसकी है और वह उस रचना की तारीफ किए बिना न रह सके।

जिस तरह बहुधा तंगी में फंसे लेखकों के आगे पीछे कोई नहीं होता, सौभाग्य से उनके आगे पीछे भी कोई नहीं था। एक उच्चकोटि के काम चलाऊ लेखक की पहचान यही होती है कि वैसे तो उसके साथ सभी होते हैं पर जब वह मुसीबत में होता है तो उसके साथ कोई भी नहीं होता। यहां तक की उसकी रचनाएं भी नहीं। पाठकों की बात तो छोड़िए!

मेरे तनिक आग्रह पर जिस दिन उन्होंने मेरी पत्नी के होते हुए मेरी प्रेमिका की याद में एक जलती हुई कविता लिखी थी मैं तबसे उनका दीवाना भी हो गया था। वाह! क्या गजब की भाव अभिव्‍यंजना! लगा था कि मेरी प्रेमिका और इनकी प्रेमिका ज्यों एक ही हो! मैंने उन्हें चारपाई पर खंसियाते देख उन्हें लगे हाथ अंतिम श्रध्दांजलि दी कि पता नहीं बाद में वक्त लगे या न, ये श्रध्दांजलि लेने लायक रहें भी या न, ‘बंधु! सच मानिए कि मैं कोई आपकी बिरादरी का नहीं जो आपके जाने की कामना करूं! मैं तो आपका टाइमपासी पाठक हूं। आपको टाइमपास के लिए पढ़ लेता हूं। मुझसे आपका यह दर्द अब और देखा नहीं जाता। भगवान के लिए हो सके तो मुहल्ले से चले जाओ प्लीज! मुहल्ले वालों का कहा सुना माफ करना या न! पर मेरा कहा सुना माफ करना। मैं भगवान से तुम्हारे लिए प्रार्थना करूंगा कि अगले जन्म में वह तुम्हें प्रकाशक बनाए। इस जन्म में जो तुमने तंगियां काटी हैं अगले जन्म में उसका फल भगवान तुम्हें अवश्‍य देंगे। भगवान करे अगले जन्म में तुम्हारे नसीब में सरकारी लेखकों की तरह बिन लिखे ही पुरस्कारों के अंबार हों।’

तो वे मन का गुबार निकालते बोले,’ मेरा एक काम कर दो तो लेखक योनि से मुक्ति पाऊं,’ मैं डरा! पर दिखाने को सीना चौड़ा कर कहा,’ कहो! पर संजीवनी लाने को मत कहना। अब मेरी सेहत मुझे सफर की इजाजत नहीं दे रही।’

तो वे सहज बोले,’ जिंदगी में जितनी रचनाओं की कतर ब्योंत की, उससे बहुत संतुश्ट हूं। अब ये मुहल्ला छोड़ दिल्ली जा मरने को मन कर रहा है। क्योंकि रिवाज है कि जिस तरह जीव को काशी में मरने से मुक्ति मिलती है जीव चाहे चोर उच्चका ही क्यों न हो,उसी तरह से आज के लेखक को दिल्ली में प्राण त्यागने पर ही मुक्ति मिलती है अर्थात- दिल्ली मरतु लेखक अवलोकी, देत मुक्ति पद परम अशोकी। इसलिए, हो सके तो बस दिल्ली पहुंचा दो। वहां से प्रयाण का आनंद ही कुछ और है। अब बस ,मैं मुक्ति चाहता हूं! लेखक का मुहल्ले में मरना भी कोई मरना है मेरे टपाऊ पाठक!! ‘

 

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