व्यंग्य/एक जूता तो तबीयत से उछालो प्रभु!

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-अशोक गौतम

कल मैं जब विधानसभा से तोड़ फोड़ कर फटी सदरी के कालर खड़े किए शान से घर आ रहा था कि अचानक नारायण मिले, मुस्कुराते हुए पूछा, ‘और मुरारी लाल! क्या हाल है? कैसी चल रही है राजनीति? मजे लगे हैं न? पांचों उंगलियां घी में और सिर कड़ाही में होगा?’

कसम से, मैंने पहली बार मन से लंबी आह भरते कहा, ‘मत पूछो प्रभु! नरों को उल्लू बनाते- बनाते थक गया। माता-पिता का त्याग कर दिया, झूठ के काश्‍मीर से कन्याकुमारी तक झंडे गाड़ चुका हूं। मैंने देश में मानवीय मूल्यों की स्थापना के लिए संसद से सड़क तक असत्यमेव जयते की पताकाएं फहरवा दी हैं। मुहल्ले के चुनाव से लेकर संसद के चुनाव तक के टिकट के लिए अपनों को कारावास में डाला, उनसे जितनी हो सकती थी दगाबाजी की। जबसे राजनीति में आया हूं बाप का बाप बन गया हूं। हालांकि इस देश में किसी की कोई नैतिक जिम्मेदारी नहीं बनती पर मैं जबसे राजनेता हुआ हूं देश के प्रति पूरी सत्य और निष्‍ठा से अपनी नैतिक जिम्मेदारी निभा रहा हूं। इसीलिए जो भी, जहां भी मिल रहा उसको भगवान का प्रसाद मान खा रहा हूं। घोर स्वार्थी हो जो भी मेरे आगे आया रगड़ दिया, बाद में पता चला कि यार ये तो मरा बाप था! बाप होता है तो होता रहे! राजनीति से बड़ा बाप नहीं हो सकता। माफियाओं का घनिश्ठ हो गया। ये देखो, कानून मेरी जेब में है। देश के सारे अधिकार मेरे पास हैं। कर्तव्य देश के पास। अहंकार, पाखंड, कृतघ्नता, अत्यंत विशयासक्ति, कृपणता, शठता, ईर्ष्‍या, बिना किसी दोष के भी मित्रों का परित्याग करता रहा हूं। गरीबों को झूठे केसों में फंसवाने में सिद्धहस्त हो गया हूं पर…..’

‘और ???’ नारायण ने और मुस्कुराते पूछा तो मैंने सगर्व कहा, ‘मंदिर-मस्जिद का बवाल देखो आज तक ठंडा नहीं होने दिया मैंने। किंग तो हूं नहीं पर किंगमेकर जरूर हूं। हर दल के घाघ से घाघ भी मेरा लोहा मानते हैं। धर्म के नाम पर दंगे करवाने में कोई मुझसे आगे नहीं। धर्मनिरपेक्ष देश में धर्म मेरे ही कारण बचा है। अपने दम के चलते आज तक लिए सरकारी और गैर सरकारी कर्ज मैंने नहीं लौटाए। मेरी आगे आने वाली औलादें लौटाएं तो नरक को जाएं। अपनी तो हर सुबह झूठ से होती है और रात को अगले दिन बोलने के लिए झूठ तैयार रख कर सोता हूं।’

‘गुड यार! तुम तो सच्ची को पहुंचे हुए नेता हो! इस देश के तमाम दुराचारी, पापी और सदा चाशनी लगा झूठ बोलने वाले नेता को नारायण का प्रणाम! जो नेता सदा अप्रिय बोलते हैं, जो चुनाव के बाद जनता से की प्रतिज्ञाओं को भूलते हैं, ऐसे नेताओं को मैं नमस्कार करता हूं। अब तो मजे में हो न मुरारी?’

‘कहां प्रभु! इतना सब करने के बाद भी समाज में मान्य तो हुआ पर गणमान्य न हो सका। बस एक यही तो रोना है।’ मैंने कहा तो मेरे से सच्ची को रोना निकल आया। तब मेरी आंखों से आंसू पोंछते नारायण ने कहा,’ देखो वत्स! रोते नहीं। रोना तो इस देश की जनता के भाग में लिखा है। उसे रोने दो। रोना इस देश की जनता का धर्म है। और तुम्हें जनता के धर्म की रक्षा हर हाल में करनी है। तो कहो! मैं तुम्हारी क्या हेल्प सेवा कर सकता हूं?’

‘प्रभु ! बस मुझे इस लोक में विशिष्‍ट बना दो।’

‘तो का सीएम होना चाहते हो?’

‘नहीं प्रभु! कौन दिन रात केन्द्र के आगे हाथ पैर बांदे पड़ा रहे।’

‘तो बोलो- का तुम्हें पीएम बना दें?’

‘बिल्ली के भाग का छींका हर बार थोड़े ही टूटता है प्रभु?’

‘बोलो तो सही! तोड़ देंगे न! प्रभु हैं तो कुछ भी कर सकते हूं!’

‘तो कौन कहता है मान्य गणमान्य नहीं हो सकता। बस किसी मान सम्मान रैली में एक जूता तो तबीयत से उछालो प्रभु!’ कह मैंने दोंनो हाथ जोड़े।

‘कहो तो लगवा दें। हो बबुआ!अब समझे। संसार के पांचवे विशिष्‍ट होना चाहते हो? इधर जूता उछला उधर बेटा शान से ढिंढोरा पिटवाए कि मेरे बाप पर भी जूता उछला, कि मेरा बाप भी हो गया बुश , चिदंबरम, जरदारी, उमर की पंक्ति का… लो- लो गुलाब जामुनवा खाओ……लो- लो रसगुल्लवा खाओ… जूता लगवा कर सबसे आगे ले आएं तो???’

‘प्रभु! मैं इतना महान होने लायक तो अभी हुआ ही नहीं।’

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