व्यंग्य : जाले अच्छे हैं!

2
244

मां बहुत कहती रही थी कि मरने के लिए मुझे गांव ले चल। पर मैं नहीं ले गया। सोचा कि गांव में तो मां रोज ही मरती रही। एक बार मां शहर में भी देख कर मर ले तो मेरा शहर आना सफल हो। वह आजतक किसीके आगे सीना चौड़ा कर कुछ कह तो नहीं पाई, कम से कम तब यमराज के आगे सीना चौडा़ कर तो कह सकेगी कि हे यमराज! ये देख, सरकार तो कहती है गांव में ही लोग मरते हैं। पर अब तेरे शहर में अब लोग मरने लगे हैं।

….और मां मर गई! लाख डॉक्टरों के पास जाने के बाद भी। डॉक्टरों के पास जाने से बीमार नहीं अब नकली दवाइयां बनाने वालों की ही सेहत में सुधार होता है।

मां मरी तो शहर के कमरे में मां के जाने पर रोने लगा ही था कि एक समझदार पड़ोसी ने डांट कर कहा, ये क्या कर रहा है? गांव की तरह क्यों रो रहा है? चुप हो जा ! शहर में किसीके मरने पर रोते नहीं। यहां खुलकर रोना जुल्म माना जाता है। हिम्मत है तो अंदर ही अंदर रो ले। लोग गंवार समझेंगे। पड़ोसी परेशान होंगे,’ और मैं चुप हो गया तो मां रोती बोली, देखा न बेटा! जहां किसीके जाने पर खुलकर रोना भी अपराध है, राम जाने कैसे ऐसे शहर में सारा जीवन काटेगा? इसीलिए तो कह रही थी कि मुझे अब गांव ले चल! वहां कुछ नहीं होता पर आदमी कम से कम अपनों के जाने पर खुल कर तो रो लेता है’, तो गांव बहुत याद आया।

कल अखबार में समाचार पढा कि मेरा गांव अंतिम सांसें ले रहा है तो रहा न गया और मैं उसे भावभीनी श्रद्घांजलि देने शहर की प्रसिद्ध नकली फूलों की दुकान से एक फूलों का बुका ले गांव दौड़ पड़ा। गांव जाकर देखा तो गांव सच्ची को पुआल की चटाई पर लेटा मरने को लालायित था। उसके आसपास गांव के पीर बैठे थे। उसे जुगालते। मैंने उसके पांव के आगे फूलों का बुका रखा, उसके साथ बिताए दिनों को एकबार स्मरण किया और उससे ज्यादा बीमार गांव के चाचा के पास उनके हालचाल पूछने जा पहुंचा । देखा तो बी में उनकी बहू सज धज टीवी पर आ रहे किसी जबरदस्ती बसाए गांव के नाटक को पूरी तन्मयता से आंखें फाड़े देखे जा रही थी गोया वह अपने गांव से कोसों दूर रह किसी असली गांव को देख रही हो। हद है यार! गांव में रहकर भी टीवी पर गांव को देखने के दिन आ गए! बहू दमे के मरीज ताया को लगातार आ रही खांसने की आवाज से पूरी तरह बेखबर! ठीक ही तो है! ससुर की दमे की खांसी की आवाज हरदम मरने तक सुनती ही रहेगी पर अगर टीवी पर से ये दृश्य ओझल हो गए तो ? अपने सुख के लिए हर युग में दूसरों के दुःख से अंजान होना बहुत लाजमी होता रहा है।

मैंने अपने शहर के लबादे को आंगन में खड़े सूखे सड़े पर अकड़ कर ान से खड़े आधे पौने आम के पेड़ पर उतार फैंका, कांधे पर उठा पूरे गांव के चक्कर लगाने वाले चाचा के कमरे में जा पहुंचा। चाचा का कमरा मकड़ी के जालों से भरा हुआ। इतना कि मौत भी अगर लाख कोशिश करे तो भी चाचा का बाल बांका न कर पाए। अब उनके बड़े महीनों से मरते मरते जीने का राज समझ आया। मुझे आते देख वे टूटी चारपाई से उठने की कुचेटा करते बोले, कौन?’ तो मैंने उनके पांव छूते कहा, ‘चाचा! में रामू ! पाय लागूं!’

‘कौन रामू? वही जो…. मेरी गाय के थनों से ही दूध पी जाया करता था? पाजी कहीं का!’ तो मैंने चाचा के डंडे का भार आंगन की पीठ पर एक बार नापते कहा, हां चाचा! वही रामू हूं।’

‘तो आज गांव का रास्ता भूल गए क्या?? ‘यार! तुम लोग शहर क्या जाते हो कि….’ कह वे झोली हुए निवार की चारपाई से उठने की कोशिश करने लगे पर असफल हो गए। फिर अपने हाथों में उलझ कर चिपके मकड़ी के जालों को छुड़ाते बोले, ये बेशरम मकड़ियां भी न! सारा कमरा भर देती हैं पांच मिनट में। अब बहू बेचारी क्या क्या करे?’ साफ दीख रहा था कि ये जालें नए नहीं। बरसों पुराने हैं। हालांकि वे कहते हुए कतई भी कहराए नहीं पर मैंने उनकी मन की पीड़ा को महसूसते कहा, ‘चाचा! ये जाले बहुत अच्छे होते हैं!’

‘कैसे??’ उन्होंने खांसी को रोक अंदर ही अंदर हंसते पूछा। वे हंसे किस पर, ये वे ही जाने।

‘देखो न चाचा! जालों का सबसे बड़ा फायदा ये है कि अगर आपको मच्छर काटने आएंगे भी तो वे चाहकर भी आपको काट नहीं पाएंगे। जालों में ही फंस जाएंगे। और आप को डेंगू होगा ही नहीं। जबकि पूरे देश का खून तरह तरह के डेंगू मच्छर चाटे जा रहे हैं।’

‘सच्ची!’ उन्होंने टीवी के पास बैठी बहू की ओर देखते कहा, पर उनकी आवाज जालों में ही उलझ कर रह गई। देखा न दोस्तो! जालों का एक और फायदा?

2 COMMENTS

  1. करूण मिश्रित व्यंग्यात्मक कहानी, करूण रस ही प्रधान प्रतीत होता है। बीच बीच में कविता की छाया भी ग्रस लेती है।प्रतीकॊं का उपयोग भी सफलता से हो पाया है।
    पर्याप्त मंजा हुआ और सुप्त स्मृतियोंको जागृत करनेवाला, परिणामकारी “व्यंग्य करुण” व्यंग्य।
    धन्यवाद।

  2. ते कहना कि बहुत अच्छी लिखी है मजा आ गया उस बूढ़े चाचा की व्यथा पर चांटा लगाने जैसा होगा। हर बुरे हाल में कोई न कोई अच्छाई ढ़ूढ़ लेने में ही समझदारी है वही जीने का बल देती है लेकिन चाचा का जीना भी कोई जीना था क्या?
    एक खबर—इस व्यंग को पढ़ने के बाद अशोक जी के प्रशंसकों में एक नाम और जुड़ गया…।:)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here