काशी शास्त्रार्थ के दो प्रमुख पौराणिक विद्वान पण्डितों का परिचय

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dayanand-मनमोहन कुमार आर्य
महर्षि दयानन्द मथुरा में प्रज्ञाचक्षु गुरू विरजानन्द सरस्वती से अध्ययन कर देश व संसार से अज्ञान मिटाने के लिए सन् अप्रैल/मई, 1863 में कर्म क्षेत्र में प्रविष्ट हुए थे। उन्होंने वेद और वैदिक साहित्य का अध्ययन कर अध्यात्म व भौतिक पदार्थों सहित सामाजिक ज्ञान आदि अनेकानेक विषयों का निर्भ्रांत ज्ञान प्राप्त किया था। उनके समय में देश धार्मिक, सामाजिक व राजनैतिक दृष्टि से अज्ञान व अन्धविश्वासों सहित परकीयों की दासता से ग्रसित था। इसका प्रमुख कारण भारत में वैदिक धर्म में आईं विकृतियां, अज्ञान व अन्धविश्वास सहित कुरीतियां व पाखण्ड आदि थे। इसके अन्तर्गत मूर्तिपूजा, अवतारवाद, फलित ज्योतिष, जन्मना जाति व्यवस्था, मृतक श्राद्ध, बाल विवाह, बहु विवाह, अनाचार, सामाजिक असमानता, धर्म के नाम पर अनुचित परम्पराओं का प्रचलन आदि बहुत से कारण थे। धर्म का आदि मूल वेद है, इस तथ्य को सभी पौराणिक विद्वान भी स्वीकार करते थे। अतः वेदों का सूक्ष्म अध्ययन कर स्वामी दयानन्द ने घोषणा की कि मूर्तिपूजा वेदों के विरुद्ध है। पौराणिकों द्वारा इसे स्वीकार न करने पर वह काशी जा पहुंचे और उन्होंने काशी के दिग्गज पण्डितों को वेदों में मूर्तिपूजा का विधान सिद्ध करने की चुनौती दी। फलस्वरूप काशी के आनन्द बाग में पचास हजार लोगों की उपस्थिति में 16 नवम्बर, 1869 ई. को स्वामी दयानन्द का काशी के शीर्षस्थ लगभग 40 पण्डितों से काशी के राजा श्री ईश्वरी नारायण सिंह की मध्यस्थता में शास्त्रार्थ हुआ। काशी के प्रमुख दो दिग्गज पण्डितों में स्वामी विशुद्धानन्द सरस्वती और पं. बालशास्त्री का नाम उल्लेखनीय हैं। इस लेख में आज हम इन दोनो विद्वानों का परिचय प्रस्तुत कर रहे हैं जिससे वर्तमान पीढ़ी प्रायः अविदित ही है। इस काशी शास्त्रार्थ में पौराणिक पण्डितों द्वारा मूर्तिपूजा वेदानुकूल वा वेदविहित सिद्ध न की जा सकी। इस शास्त्रार्थ का पूरा विवरण पुस्तकों में उपलब्ध है जिसे इच्छुक पाठक वहां देख सकते हैं।

इससे पूर्व की हम काशी के उपर्युक्त दो दिग्गज विद्वानों का परिचय प्रस्तुत करें, इससे पूर्व स्वामी दयानन्द जी का भी संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करते हैं। स्वामी दयानन्द का जन्म गुजरात प्रान्त के मोरवी राज्य के एक ग्राम टंकारा में 12 फरवरी, सन् 1825 को पं. करसन जी तिवाड़ी के यहां हुआ था। आयु के 14 हवें वर्ष के आरम्भ में शिवरात्रि का व्रत रखने व मन्दिर में चूहों की प्रसिद्ध घटना होने पर उनका मूर्तिपूजा पर से विश्वास समाप्त हो गया। 21 वर्ष की वय होने पर वह अपने विवाह से बचने, ज्ञान की प्राप्ति वा सच्चे ईश्वर की खोज में घर से निकल भागे। सन् 1863 तक वह विद्या की प्राप्ति व योगाभ्यास आदि कार्यों में संलग्न रहे और देश भर में घूम कर विद्वानों की खोज करते रहे तथा इस प्रयास में जिस विद्वान से जो योग व अन्य विद्यायें प्राप्त हो सकती थी उसे प्राप्त करते थे। सन् 1860 से सन् 1863 के मध्य आप मथुरा के प्रज्ञाचक्षु गुरु विरजानन्द जी से आर्ष संस्कृत व्याकरण की अष्टाध्यायी महाभाष्य पद्धति में दीक्षित हुए। गुरु जी ने दीक्षा वा गुरु दक्षिणा में देश से धार्मिक अज्ञान, अन्धविश्वास व सामाजिक असमानता दूर करने का आग्रह किया। गुरु आज्ञा को स्वीकार कर आपने धर्म प्रचार वा वेद प्रचार का कार्य किया। इसी के अन्तर्गत आपने 10 अप्रैल, 1875 को मुम्बई में आर्यसमाज की स्थापना की, सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका एवं संस्कारविधि आदि अनेकानेक ग्रन्थों सहित वेदभाष्य का प्रणयन किया और देश की स्वतन्त्र रियासतों के राजाओं को वेदों व वैदिक धर्म से परिचित कराने सहित उनकी रियासत में वेदों का प्रचार प्रसार किया। देश भर में घूम घूम कर सामाजिक नेताओं से मिले और उनमें व जनसामान्य को वेद की मान्यताओं से परिचित कराने सहित उन्हें वैदिक धर्मी बनाने का कार्य किया। देश के वैदिक धर्म से इतर विद्वानों से आपने लिखित व मौखिक शास्त्रार्थ व वार्तालाप सहित शंका समाधान, उपदेश व व्याख्यान देने का कार्य भी किया। आपने देश भर में हिन्दी रक्षा व प्रचार सहित गोरक्षा आन्दोलन भी जोर-शोर से चलाया। देश की आजादी के मन्त्रदाता भी आप ही थे।

काशी शास्त्रार्थ में पौराणिक मत का प्रतिनिधित्व मुख्यतः स्वामी विशुद्धानन्द सरस्वती ने किया। उनका जन्म सन् 1820 ई. में उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले के वाडी नामक ग्राम में हुआ था। स्वामी विशुद्धानन्द स्वामी दयानन्द से लगभग 5 वर्ष बड़े थे। इनके पिता पं. संगम लाल शुक्ल कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। विशुद्धानन्द जी का बचपन का नाम वंशीधर था। 18 वर्ष की आयु का होने पर इन्होंने निजाम हैदराबाद में सैनिक का पद स्वीकार किया था परन्तु कुछ समय बाद तीव्र वैराग्य होने पर नौकरी से त्याग पत्र देकर देश के तीर्थों की यात्रा करने निकल पड़े। अनेक तीर्थ स्थानों का भ्रमण करने के बाद आप काशी आये और काशी के अहिल्याबाई घाट पर निवास करने वाले संन्यासी गौड स्वामी के शिष्य बन गये। उन्हीं से आपने संन्यास की दीक्षा ली और इस नये आश्रम का नया नाम स्वामी विशुद्धानन्द धारण किया। सन् 1859 में गौड़ स्वामी के निधन के पश्चात स्वामी विशुद्धानन्द सरस्वती ही उनकी गद्दी के अधिकारी हुए। इनके शिष्यों में सनातनधर्म के उपदेशक पं. दीनदयालु शर्मा, महामहोपाध्याय पं. शिवकुमार शास्त्री तथा महामहोपाध्याय पं. प्रमथ नाथ भट्टाचार्य के नाम उल्लेखनीय हैं। मीमांसा दर्शन तथा अद्वैत-वेदान्त में आपकी विशेष गति थी। मठाधीश व संन्यासी होने पर भी आपके भौतिक ऐश्वर्य तथा ठाठ-बाट में कोई कमी नहीं रहती थी। स्वामी दयानन्द स्वामी विशुद्धानन्द को काशी के विद्वानों में प्रमुख विद्वान मानते थे और चाहते थे उनके द्वारा प्रवर्तित वेद प्रचार वा धर्मान्दोलन के महत्वपूर्ण कार्य में स्वामी विशुद्धानन्द जी उनके साथ सहयोग करें। दूसरी ओर स्वामी विशुद्धानन्द को लोकहित तथा समाज के उत्थान व सुधार में कोई विशेष रूचि नहीं थी। अतः वह स्वामी दयानन्द के प्रस्ताव को स्वीकार करने में समर्थ नहीं थे। स्वामी विशुद्धानन्द के लेखकीय कार्यों में उनकी एकमात्र कृति ‘कपिल गीता की व्याख्या’ (प्रकाशन काल व्रिकमी सं. 1946 वा सन् 1889 ई.) का पता चलता है। सन् 1898 ई. में आपकी मृत्यु काशी में हुई।

पण्डित बालशास्त्री रानाडे महाराष्ट्रीय चित्तपावन ब्राह्मण थे। इनके पिता पं. गोविन्द भट्ट कोंकण प्रदेश से आकर काशी में रहने लगे थे। बालशास्त्री का जन्म 1816 विक्रमी (सन् 1839 ईस्वी) पौष कृष्ण 10 सोमवार को काशी में हुआ। इनका मूल नाम विश्वनाथ था परन्तु यह बालशास्त्री के नाम से ही जाने जाते थे। सन् 1864 ईस्वी में आपको काशी के राजकीय संस्कृत कालेज में सांख्य-शास्त्र के अध्यापक पद पर नियुक्त किया गया। यह नियुक्ति कालेज के तत्कालीन प्रिंसिपल श्री ग्रिफिथ ने की थी। पं. बालशास्त्री का अध्ययन अत्यन्त गम्भीर तथा विस्तृत था। काशी के प्रसिद्ध विद्वान पं. राजाराम शास्त्री आपके गुरु थे। सन् 1880 ईस्वी में आपने काशी में शास्त्रीय विधि से ज्योतिष्टोम यज्ञ सम्पन्न किया था। महर्षि दयानन्द और काशी पण्डितों के बीच 16 नवम्बर, सन् 1869 को हुए मूर्तिपूजा पर शास्त्रार्थ के समय आपकी आयु 30 वर्ष की थी और आप पौराणिक पक्ष के एक मुख्य प्रवक्ता थे। पं. बालशास्त्री ने तीन विवाह किये परन्तु उन्हें सन्तान की प्राप्ति नहीं हुई। अतः उन्होंने विष्णु दीक्षित नाम के एक ब्राह्मण बालक को अपना दत्तक पुत्र बनाया था। सन् 1882 ई. में 43 वर्ष की आयु में आपका अर्श रोग से पीडि़त होकर निधन हो गया।

हमने लेख में स्वामी विशुद्धानन्द सरस्वती तथा पं. बालशास्त्री जी के विषय में जो जानकारी दी है उसका आधार आर्यजगत के वयोवृद्ध विद्वान डा. भवानीलाल का मासिक वेदवाणी पत्रिका के मार्च, 1985 में प्रकाशित लेख है जो आपने पत्रिका के सम्पादक पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी की प्रेरणा से लिखा था। आपका आभार एवं धन्यवाद है। इस जानकारी से काशी शास्त्रार्थ के दो प्रमुख पौराणिक विद्वानों का किंचित परिचय सुलभ हो सका है। हम आशा करते हैं कि हमारे विद्वान व पाठक इस जानकारी को उपयोगी पायेंगे। यह ध्यातव्य है कि काशी के शास्त्रार्थ ने मूर्तिपूजा को मिथ्या सिद्ध किया था। आज भी किसी के पास ईश्वर का अवतार लेने, मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा की यथार्थता और मूर्तिपूजा की प्रमाणिकता पर कोई वेद का प्रमाण नहीं है। इस दृष्टि से काशी शास्त्रार्थ सहित स्वामी दयानन्द व उपर्युक्त दो पौराणिक विद्वानों का ऐतिहासकि महत्व है। इसी के साथ लेख को विराम देते हैं।

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