टोपीबाज़ी बंद करो

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तनवीर जाफ़री –
 इसमें कोई संदेह नहीं कि भारतवर्ष शताब्दियों से स्वाभिमानियों तथा गरिमामायी लोगों का देश रहा है। भारत के विभिन्न क्षेत्रों के लोग क्षेत्रीय जलवायु तथा ज़रूरतों के अनुसार अपने सिरों पर अलग-अलग कि़स्म की  पगडिय़ां,साफ़े व टोपियां आदि धारण करते आ रहे हैं। वैसे भी हमारी संस्कृति में सिर ढक कर रखना आदर,सम्मान व श्रद्धा का प्रतीक माना जाता है। उदाहरण के तौर पर कोई भी व्यक्ति मंदिर-मस्जिद अथवा गुरुद्वारे या किसी दरगाह में प्रवेश करता है उसके पहले वह श्रद्धा से अपने सिर को ढकना मुनासिब समझता है भले ही इसके लिए वह किसी रुमाल अथवा कपड़े के किसी टुकड़े का ही प्रयोग क्यों न करें। परंतु इतना ज़रूर है कि सिर ढकने वाले व्यक्ति का सिर ढकने के प्रति श्रद्धा का होना भी ज़रूरी है। आप किसी की इच्छा के विपरीत उसका सिर ढकने की कोशिश नहीं कर सकते और न ही करनी चाहिए। परन्तु कई बार ऐसा भी देखा गया है कि अपनी आस्था की पहचान को जबरन किसी दूसरे के सिर पर मढ़ने का प्रयास किया गया और दूसरे व्यक्ति ने उसकी भावनाओं का निरादर करते तथा अपनी इच्छा को सर्वोपरि समझते हुए अपना सिर ढकने से इंकार कर दिया। सवाल यह है कि यहां आख़िर सही कौन है? किसी दूसरे के सिर पर टोपी मढ़ने की कोशिश करने वाला व्यक्ति या वह व्यक्ति जिसने अपने सिर पर टोपी रखने से इंकार कर दिया?
सार्वजनिक रूप से विभिन्न प्रकार की क्षेत्रीय वेशभूषाएं पहन कर तथा उनकी संस्कृति में ख़ुद को शामिल करने का प्रदर्शन सर्वप्रथम भारतीय प्रधानमंत्रियों पंडित जवाहरलाल नेहरू तथा इंदिरा गांधी द्वारा किया गया था। वे ऐसा कर समस्त भारतवासियों को यह संदेश देने की कोशिश करते थे कि यह देश एक है,यहां की सांझी संस्कृति व तहज़ीब है तथा हम एक-दूसरे की संस्कृति,तहज़ीब तथा वेशभूषा का सम्मान करते हैं। लगभग सभी धर्मनिरपेक्ष नेता दरगाहों,मंदिरों,गुरुद्वारों आदि में जाने तथा वहां के नियमों को अपनाने की कोशिश करते रहे हैं। परंतु देश की वर्तमान राजनीति तथा वर्तमान नेतृत्व इस प्रकार की बातों को धर्मनिरपेक्षता की नज़रों से नहीं बल्कि ‘तुष्टीकरण’ के तौर पर देखता है। ‘तुष्टीकरण’ नामक शब्द भी राजनीति में इसी मानसिकता के लेागों द्वारा इस्तेमाल में लाया गया। राजनीति में इस परिभाषा का इस्तेमाल कर दरअसल बहुसंख्यक बनाम अल्पसंख्यक की राजनीति परवान चढ़ाने की कोशिश की गई है जिसमें बहुसंख्यवादी राजनीति करने वालों को निश्चित रूप से इसका काफ़ी लाभ भी मिला है। इस्लाम धर्म में प्रचलित टोपियों को अपने सिर पर रखने से इंकार करने वाले लोग ऐसा नहीं है कि किसी दूसरे धर्म के लोगों द्वारा दिए जाने वाले इस प्रकार के सम्मान,तोहफ़े या उनकी परंपराओं व नियमों को स्वीकार न करते हों। दरअसल इस्लामी टोपी अपने सिर पर धारण न कर वे इसका राजनैतिक लाभ उठाना चाहते हैं।
सर्वप्रथम सितंबर 2011 में अपने सद्भावना उपवास यात्रा के अंतर्गत् गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम इस विषय को लेकर चर्चा में आया था। उन्होंने गुजरात विश्वविद्यालय अहमदाबाद में एक मुस्लिम धर्मगुरु द्वारा उनको पेश की जाने वाली टोपी को स्वीकार करने से इंकार कर दिया था।  इस घटना के बाद यह संदेश साफ़तौर पर चला गया था कि नरेंद्र मोदी को न तो भारतीय मुसलमानों को ख़ुश करने की ज़रूरत है न ही वे ऐसा करना चाहते हैं। इसके बजाए उन्होंने इस विषय पर कई जगह यह ज़रूर कहा कि वे इस प्रकार की दिखावापूर्ण बातों में विश्वास नहीं करते। वे तुष्टीकरण से अधिक विकास पर ज़ोर देते हैं। पहले के नेताओं की तुष्टीकरण की नीति रही होगी परंतु मेरी नहीं है। और इसी रास्ते पर चलते हुए नरेंद्र मोदी 2014 में भारत के प्रधानमंत्री बन गए। अब पिछले दिनों एक बार फिर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने नरेंद्र मोदी के ही नक़्शे क़दम पर चलते हुए संत कबीरदास की मज़ार पर एक मुस्लिम सेवक द्वारा दी जाने वाली टोपी स्वीकार करने से इंकार कर दिया। हालांकि उन्होंने इस ‘सम्मान’ के लिए आभार भी जताया परंतु यह भी कहा कि मैं टोपी नहीं पहनता इसलिए इसे नहीं ले रहा हूं। ज़ाहिर है योगी ने भी नरेंद्र मोदी की ही तरह एक छुपा संदेश अपने उन समर्थकों को दे दिया जो कथित ‘तुष्टिकरण’ की नीति का समर्थन नहीं करते। रहा सवाल मुसलमानों की नाराज़गी का तो निश्चित रूप से इसकी परवाह न तो नरेंद्र मोदी को थी और न ही योगी को है।
परंतु इस पूरे प्रकरण में ‘टोपीबाज़ी’ के इस खेल का जि़म्मेदार है कौन? किसी को क्या अधिकार है कि वह किसी दूसरे व्यक्ति के सिर पर उसकी अनिच्छा के बावजूद एक ऐसी टोपी रखने का प्रयास करे जिसका संबंध किसी धर्म विशेष या संस्कृति विशेष से हो,? कोई व्यक्ति स्वेच्छा से कुछ भी धारण करे वह एक अलग बात है परंतु अपनी पहचान की कोई चीज़ किसी दूसरे ऐसे व्यक्ति के सिर पर मढ़ना अथवा थोपना निश्चित रूप से उस व्यक्ति की ही ग़ल्ती है जो सामने वाले की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ उसे भेंट करना चाह रहा है। इस प्रकार की अस्वीकृति या अनिच्छा का प्रदर्शन भले ही किसी धर्म,किसी व्यक्ति या किसी संस्कृति का अपमान न करता हो परंतु इंकार करने वालों द्वारा ऐसा कर इसमें निहित जो संदेश देने की कोशिश की जाती है उसमें उन्हें सफलता ज़रूर मिलती है। इसलिए मेरे विचार से अपने-अपने सिरों पर टोपी रखने से इंकार करने वालों का क़ुसूर बिल्कुल नहीं बल्कि सबसे बड़े  क़ुसूरवार वे लोग हैं जो अपने-आप को चर्चा में लाने के लिए ऐसी जगहों पर अपनी-अपनी जेब से टोपियां निकाल कर खड़े हो जाते हैं जहां न तो उस टोपी का कोई सम्मान करने वाला है और न कोई उसको धारण करने वाला।
इस संदर्भ में एक और हैरतअंगेज़ बात यह है कि टोपी मढ़ने और टोपी पहनने से इंकार करने जैसी अंधविश्वासपूर्ण घटनाएं उस महान संत कबीर की मज़ार पर घटीं जो संत सारा जीवन अंधविश्वास के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलंद करता आया। अफ़सोस की बात है कि उसी जगह पर बहुसंख्यवादी वोट की राजनीति करने का अवसर तलाशा गया तो उसी जगह पर किसी अंधविश्वासी व्यक्ति ने टोपी सिर पर रखने जैसी अनावश्यक बात को ही संत कबीरदास के सम्मान के रूप में देखने की कोशिश की। क्या संत कबीर की आत्मा अपनी ही मज़ार पर हो रहे इस प्रकार के राजनैतिक नाटक को देखकर प्रसन्न हुई होगी? योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री होने के अतिरिक्त गोरखपुर स्थित प्रसिद्ध गोरखनाथ पीठ के पीठाधीश भी हैं। इस नाते वह यह ज़रूर जानते होंगे कि धर्म तथा धार्मिक परंपराओं व रीति-रिवाजों को लेकर संत कबीर के क्या विचार थे? कर्मकांडों का समय-समय पर प्रदर्शन करने वाले मोदी व योगी दोनों ही भलीभांति जानते होंगेकि
 संत कबीर अंधविश्वास,कर्मकांड,पूजा-पाठ,अवतार,पैग़म्बर, मुर्ति पूजा,रोज़ा,अज़ान,मस्जिद-मंदिर आदि के कितने बड़े आलोचक थे।  यहां तक कि उनकी अधिकांश रचनाएं भी धार्मिक पोंगापंथी, ढोंग तथा पाखंड को लेकर ही रची गई हैं। इतिहास इस बात का साक्षी है कि इन सबके बावजूद वे एक ऐसे चमत्कारी पुरुष थे जिनका देहांत होते ही उनका शरीर अदृश्य हो गया और ईश्वर ने उनके शरीर के स्थान पर चमत्कारिक रूप से कुछ फूल रख दिए ताकि उनके संस्कार को लेकर हिंदू-मुस्लिम आपस में लड़ने न पाएं। परंतु अफ़सोस कि ‘टोपीबाज़’ लोग उसी महान आत्मा की समाधि पर टोपी धारण करने न करने के बहाने ओछी सियासत में मशग़ूल हैं। ‘टोपीबाज़ी’  के इस नाटक का अंत होना चाहिए 

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