अदालतों से अंग्रेजी को भगाओ

कानून और न्याय की संसदीय कमेटी ने बड़ी हिम्मत का काम किया है। उसने अपनी रपट में सरकार से अनुरोध किया है कि वह सर्वोच्च और उच्च न्यायालयों में भारतीय भाषाओं के प्रयोग को शुरु करवाए। उसने यह भी कहा है कि इसके लिए उसे सर्वोच्च न्यायालय की अनुमति या सहमति की जरुरत नहीं है, क्योंकि संविधान की धारा 348 में साफ-साफ लिखा है कि यदि संसद चाहे तो उसे भारतीय भाषाओं को अदालतों में चलाने का पूरा अधिकार है। लेकिन हमारे सर्वोच्च न्यायालय ने पिछले साल ही इस तरह की मांग को खारिज करते हुए कहा था कि इस तरह की मांग करना न्याय-प्रक्रिया का दुरुपयोग करना है।

इसके पहले विधि आयोग ने अपनी रपट में कहा था कि हमारी अदालतों में सिर्फ अंग्रेजी को ही बनाए रखना जरुरी है, क्योंकि सारे कानून अंग्रेजी में हैं और जजों का तबादला कई प्रांतों में होता रहता है। वे आखिर कितनी भाषाएं सीखेंगे?

विधि आयोग और सर्वोच्च न्यायालय के ये तर्क उनकी भाषाई गुलामी के प्रमाण हैं। यदि सभी प्रांतीय भाषाओं में फैसले देने में कठिनाई है तो वकीलों को कम से कम उन भाषाओं में बहस करने की इजाजत क्यों नहीं दी जा सकती? सर्वोच्च न्यायालय में भी सारी बहस हिंदी में क्यों नहीं हो सकती? अगले पांच साल के लिए केंद्र और प्रांतों में ज्यादातर अदालती काम-काज सिर्फ हिंदी में क्यों नहीं शुरु किया जाता? धीरे-धीरे वह सभी भाषाओं में शुरु हो जाएगा।

विभिन्न भारतीय भाषाओं को आपस में लड़ाया इसीलिए जाता है कि अंग्रेजी बनी रहे, लदी रहे। किस महाशक्ति और संपन्न राष्ट्र में अदालतें विदेशी भाषा में काम करती हैं? सिर्फ भारत-जैसे पूर्व-गुलाम देशों में करती हैं। विदेशी भाषा में कानून बनाना और न्याय देना शुद्ध मजाक है। जादू टोना है। आम आदमी को ठगना है। यह भी सिद्ध करना है कि हमारे वकील और जज आलसी हैं या मंद बुद्धि हैं। यदि सरकार में थोड़ा भी साहस हो तो वह सारे कानून हिंदी में बनाना शुरु कर दे और सर्वोच्च न्यायालय को संसद आदेश दे दे कि वह हिंदी को प्रोत्साहित करे।

पांच साल बाद अदालतों से अंग्रेजी को प्रतिबंधित कर दिया जाए। समस्त सरकारी और अदालती काम-काज को अंग्रेजी से हिंदी में करने और अन्य भाषाओं में करने के लिए एक विशाल अनुवाद मंत्रालय की स्थापना की जाए लेकिन यह क्रांतिकारी काम करेगा कौन? क्या हमारे नेताओं में इतनी बुद्धि है? उनमें न बुद्धि है और न ही साहस! यह काम तो तभी होगा, जब जनता जबर्दस्त आंदोलन खड़ा करेगी और इस मुद्दे पर सरकारों को गिराने पर कमर कस लेगी।

5 COMMENTS

  1. अदालतों से अंग्रेजी को भगाते हम कहीं क्षति पहुंचाते उसके साथ सदियों से जुडी कानून एवं न्याय व्यवस्था को ही न भगा दें! लेखक को बताना होगा कि क्या हिंदी व प्रान्तीय भाषाओँ में न्यायलय, कानून, विधि व्यवस्था तथा उनसे सम्बंधित सभी शब्दों को उचित ढंग से परिभाषित करते मानकीकृत शब्द-भण्डार पहले से ही उपलब्ध हैं?

    हम और आप संभवतः अपने जीवनकाल में न्यायालय में कभी पांव नहीं रखेंगे परंतु भारत राजपत्र में सरकार की गतिविधियों का अनुसरण प्रत्येक भारतीय नागरिक का सर्वाधिक अधिकार है। इस लिए न्यायालयों से अधिक हिंदी व सभी प्रान्तीय भाषाओं में भारत राजपत्र की उपलब्धि की मांग विशेष महत्त्व रखती है। ऐसी मांग कम से कम पिछले लगभग सात दशकों में पूर्व शासनों द्वारा भाषाओँ में शब्दावली व व्यवसायिक और उद्योगिकी पारिभाषिक शब्द भंडार की संरचना में उनके प्रयासों की गंभीरता को पहचाना जा सकेगा। हमारे विश्वविद्यालयों के हिंदी व अन्य प्रांतीय भाषायों के विभागों तथा अन्य सामाजिक संस्थाओं द्वारा भारतीय मूल भाषा के प्रचार विस्तार में किये उनके प्रयासों का निरीक्षण हो पाएगा।

    • किसी विशाल अनुवाद मंत्रालय की कोई आवश्यकता नहीं है, मानव संसाधन विकास मंत्रालय में ही एक प्रस्तावित बहु-भाषा परिवर्तन/अनुवाद विभाग इस दिशा में बड़ी कुशलता से कार्य कर सकता है| मेरे कार्यकाल में लगभग पैंतालीस वर्ष का मेरा व्यक्तिगत अनुभव बताता है कि यह कोई क्रांतिकारी कार्य नहीं है| यह केवल एक सोच है जो समय समय पर सामान्य भारतीय के मन में आती रही है लेकिन भारतीय राजनैतिक, शासकीय, अथवा सामाजिक परिस्थितियों के कारण इस पर संगठित हो कोई ठोस कार्य नहीं किया जा सका है| आज केंद्र में युगपुरुष नरेन्द्र मोदी जी के नेतृत्व में राष्ट्रीय शासन में इस कार्य को भलीभांति किया जा सकता है|

      • Dhanyavad Insan ji.
        Sahamati.
        Sujhav: ( 1) Doctor Raghuvira ji ka 200000 (do lakh ) Shabonka Kosh avashya dekha hoga. Usase kafi Sahayata mil sakati hai.
        (2) Hardev Bahari aur Williams kaa kosh bhi bane hai.
        (3) Sabhika Upayog kiya ja Sakata hai.
        Dhanyavad.
        Par Modi ji ke samane kai chunautiyan hain. Dhanyavad.

        • आदरणीय डॉ. मधुसूदन जी, मुझे खेद है कि यहाँ मैं अपने विचार ठीक से प्रस्तुत न कर सका| भाषानुवाद से मेरा अभिप्राय केवल उपलब्ध साधारण शब्दकोशों से नहीं है जो साहित्य को छोड़ सामान्य जीवन में विशेष महत्व नहीं रखते| अपनी बात को समझाने हेतु मैं अन्यत्र श्री सौरभ राय जी द्वारा प्रस्तुत निबंध, “भाषा के नए प्रश्न” से पहले परिच्छेद को दोहराते भारत में चिरस्थाई परिस्थिति की ओर आपका ध्यान बांटना चाहूँगा|

          “हिंदी में एक कहावत है – “कोस कोस पर पानी बदले, चार कोस पर बानी।” हम इस बात को अक्सर बड़े गर्व से कहते हैं, मगर क्या हर चार कोस में भाषा का बदलना हमारे पिछड़ेपन का प्रतीक नहीं? क्या यह नहीं दर्शाता कि भारत की एक बहुत बड़ी जनसँख्या अपने चार कोस की सीमा से बाहर निकल ही नहीं पाती है? निकलने की ज़रुरत भी शायद नहीं पड़ती है। इसी चार कोस के गांवों में इनके तमाम आत्मीय, मित्र मिल जाते हैं। इसी चार कोस के दायरे में इनकी खेती-बाड़ी, शादी-ब्याह, व्यापार, बाज़ार इत्यादि की ज़रूरतें भी पूरी हो जाती हैं। मगर क्या भाषाओं का अपने अपने चार कोस के वृत्त में सिमटे रहना गर्व की बात है?”

          सामान्य वार्तालाप के लिए पंजाब में मेरे चार कोस में मुझे आपके बताए शब्दकोशों की कभी कोई आवश्यकता नहीं हुई है| मेरा अभिप्राय उन भिन्न भिन्न विषय-आधारित मानकीकृत शब्द भंडारों से है जो विद्यार्थियों, शोधकर्ताओं, व व्यावसायिकों द्वारा अपने विषय को ठीक से व्याखित करने हेतु उपयोग में लाये जा सकें| अवश्य ही ऐसे शब्द भंडार भाषा को रुचिकर बना हिंदी अथवा प्रांतीय भाषा की गुणवत्ता को कई गुना बढ़ाने में समर्थ होंगे|

          मेरी विशेष रुचि लेखक द्वारा अपने निबंध का आधार बनाए कानून और न्याय की संसदीय कमेटी के उस अनुरोध पर है जो भारत में सर्वोच्च और उच्च न्यायालयों में काम काज के लिए भारतीयों भाषाओं के प्रयोग को शुरू करवाने की मांग है| वह मांग कैसे पूरी होगी?

          आप ठीक कहते हैं मोदी जी के सामने कई चुनौतियां हैं लेकिन यह भी ठीक है कि जब कभी भी हो उनके नेतृत्व के अंतर्गत राष्ट्रीय शासन में देश कल्याण हेतु अंग्रेजी से मुक्ति पाना अवश्य संभव है|

          • धन्यवाद, इन्सान जी। जो, आपने पर्याप्त समय देकर स्पष्ट किया। आपकी भाषा विषयक सजगता से हर्षित हूँ।

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