कहानी/ पशु-सम्मेलन

साधक उम्मेदसिंह बैद

एक गाँव के पास के जंगल की कहानी है। जंगल बहुत घना तो नहीं, बस ठीक-ठाक सा है। ॠतु-चक्र क्या गङबङाया, जानवरों की समस्यायें बङी होने लगीं। अब सारे जानवर समस्याओं का सही कारण क्या जानते, परस्पर ही एक-दूसरे पर दोषारोपण करने लगे, लङने-झगङने भी लगे। तनाव रहने लगा। सियार और कुत्ता किसी मोङ पर मिले, तो यारी-दोस्ती की बात चल पङी। “कल तेरे चाचा ने तो हद ही कर दी यार! मुझसे ही उलझ पङा। हमारी दोस्ती का लिहाज तक नहीं किया!” – कुत्तेजी ने सियारजी के गले में बाहें डालते हुये अपना मन हलका करने की कोशिश की।

“और चाचाजी तुम्हारी शिकायत कर रहे थे। कह रहे थे कि तुमने उनकी उम्र का लिहाज नहीं किया, उलझ पङे।” सियारजी ने दोस्त कुत्तेजी को प्यार से उनकी गलती बतानी चाही।

कुत्तेजी सियारजी की सद्भावना तो नहीं देख सके, यही देख लिया कि अपने चाचा का पक्ष ले रहा है। तत्काल अपनी बाहें दोस्त के गले से अलग कर लीं। कुछ बोले तो नहीं, मगर मन ही मन दोस्त से दूरी तो बना ही ली। सियार भी अपने दोस्त की बात ना समझ कर यही मान बैठा कि गलती इसी ने की होगी, तभी तो जवाब नहीं दिया। पक्की वाली दोस्ती में दरार पङ गई। वास्तव में दोनों किस बात पर उलझे थे, यह जाना ही ना गया, बल्कि अब तो वे खुद भी भुला गये। जहाँ भी बात पहुँचती, इतनी ही पहुँचती कि चाचा के कारण सियार ने कुत्ते ने दोस्ती तोङ ली, या कुत्ता ही सियार के चाचा से बदतमीजी कर गया और गहरी दोस्ती में दरार पङ गई।

छोटा सा जंगल है, सारे ही जानवरों को पता चल गया। सभी को अफ़सोस भी हुआ। कोई कुत्ते का पक्ष लेता कोई सियार का। परस्पर की सहजता में अन्तर आया दिखा, तो हाथी दादाजी को बङा अफ़सोस हुआ-“ यह तो आदमियों वाली बात हो गई। इतना कच्चा विश्वास तो जानवरों में आजतक देखा नहीं। जैसे-जैसे आदमी के साथ सम्पर्क बढ रहा है, उसके दुर्गुण हम जानवरों में भी आने लगे हैं।” मगर हाथी दादाजी का यह आत्मालाप किसी ने ना सुना। बस, पास खङी उनकी सह-धर्मिणी ने सुना, और सदा की तरह झिङक भी दिया,- “आदमी का सोचते सोचते कहीं आदमी ही ना बन जायें अगले जनम में…”

इस जंगल की तरह ही आस-पास के अन्य जंगलों का भी कमोबेश यही हाल है। समस्यायें अलग-अलग हैं, पर उलझन बढने का कारण परस्पर गलतफ़हमियाँ ही ज्यादा हैं। इस कारण तनाव बनने लगा है, परस्पर अविश्वास का भाव बढने लगा है। अकारण झग़ङे बढने लगे, तो हाथी आदि जिम्मेदार जानवरों को चिन्ता होने लगी। परस्पर विचार-विमर्ष चलने लगा। ऐसे ही एक विमर्ष का दृश्य हम भी देख सकते हैं………

“समस्यायें बढने लगी हैं, इस तरह तो जंगल में जीना मुश्किल हो जायेगा…” एक सियार ने कहा।

“लगता है कि अब शहर जाना ही उपाय है। शहर में कमसे कम इतनी बङी सँख्या में जानवर तो ना होंगे।” एक कुत्ता बोला।

“किस-किस को शहर ले जाओगे? यह तो पलायनवाद हुआ। समस्या हमने बनाई है, तो हम ही रास्ता भी निकाल सकते हैं।” एक हाथी ने सुझाया।

“हाँ, हम सब मिलकर समाधान निकाल सकते हैं। क्यों ना हम एक महा-सम्मेलन बुलालें।” सियार को अपनी बात कहने का मौका मिल गया।

“महासम्मेलन? उससे समस्या कैसे हल होगी? समस्या तो यहाँ है, महासम्मेलन पता नहीं कहाँ आयोजित हो? समस्या यहाँ, समाधान वहाँ? … … और फ़िर आप सियारों की समस्या का हल हम खरगोश कैसे बता सकते हैं? … … कुत्तेजी की अलग समस्या, हाथीजी की अलग समस्या… … सब समस्याओं का समान हल कैसे होगा? … सम्मेलन की जरुरत क्या है, हम यहीं समस्या को सही-सही सुन-समझ लेते हैं, हो सकता है कि सही समझ से यहीं समाधान निकल आये…” एक खरगोश डरते-डरते बोला।

“तुम जानते क्या हो? और तुम्हारी हस्ती क्या है? हमने दुनियाँ देखी है बच्चे! आजकल सम्मेलनों का फ़ैशन है। सारे आदमी भी यही करते हैं। पता है, बङे-बङे राजनेता, शिक्षाविद, समाजसेवी, चिन्तक … सब सम्मेलन बुलाते हैं। उनको सुनने के लिये हज्जारों आदमी इकट्ठा होते हैं। दूर-दूर से आते हैं आदमी। उनके लिये कई सारे टैंट लगाये जाते हैं। कई-कई रसोवङे होते हैं। खूब-खाना-पीना मौज-मस्ती… अरे और कुछ नहीं तो यह सब तो हमें भी मिलेगा ना! … और हमको तो कुछ करने की जरुरत भी नहीं है। न तो हमें कोई टैंट बनाने होंगे, न रसोई का इन्तजाम करना है। अरे कम से कम नये-नये जानवरों से मिलना होगा, बातचीत होगी। बातचीत से ही तो ज्ञान बढता है। समस्याओं का समाधान तो परस्पर सँवाद से ही निकलता है, या और भी कोई रास्ता है?” सियार ने अपना तर्क दिया।

“सँवाद यहाँ क्यों नहीं बनाते? यहीं समस्या, यहीं सँवाद और यहीं समाधान्… … ” खरगोश ने फ़िर मासूमियत से कहा। एक तो खरगोश का कद छोटा, फ़िर उसके पास कोई शारीरिक बल भी नहीं, तो उसकी बात का असर कैसे हो? आखिर आदमियों वाली बात जानवरों में भी तो आने लगीं हैं। ‘जंगलराज’ वाला मुहावरा तो आदमी का बनाया हुआ है, वह क्या समझे कि जंगल में राजा-प्रजा वाली कोई बात होती ही नहीं।

फ़िर भी हाथी ने खरगोश की बात समझी।

“खरगोश की बात में क्या दोष है? अगर समस्या यहाँ है, तो समाधान कहीं और कैसे होगा? सम्मेलन की जरुरत क्या है? यहीं बात करो…” हाथी ने कहा खरगोश का साथ देते हुये कहा।

सियार ने देखा कि बात हाथ से जा रही है।

वह सियार ही क्या जो बातको हाथ से जाने दे।

सियार ने आदमी वाला दाँव खेल दिया। गुरुगंभीर स्वरमें बोला, “सारा जंगल एक है हाथी दादाजी! जंगल एक है, जंगल में रहने वालों की समस्यायें एक हैं तो समाधान भी एक ही हो सकता है। हम इस छोटेसे हिस्से में जैसी समस्याओं को भुगत रहे हैं, वैसे ही जंगल के दूसरे हिस्से में भी होगा। सभी पीङित हैं, सभी समाधान भी खोज ही रहे हैं। यह भी तो संभव है कि कहीं समाधान भी पा लिया गया हो। सब परस्पर मिलेंगे, सँवाद करेंगे। सँवाद पर सहमति बनी तो परस्पर सहकार होना ही है। समाधान फ़िर कितनी दूर है भला? कोई महापुरुष ठीक ही सूत्र दे गया- सँवाद-सहमति-सहकार। इसी मन्त्र से मिलेगा समाधान्। और फ़िर यह तो आपने सुना ही होगा- संघे शक्ति कलौयुगे। कलियुग है यह दादाजी। सारी समस्याओं का समाधान है संगठन। सम्मेलन से और कुछ हो ना हो, संगठन तो जरुर होगा। और सबसे बुद्धिमान बुजुर्ग के नाते संगठन को नैतृत्व तो आपको ही देना है। मैं तो तहेदिल से आपको ही इस जंगल के सभी प्रतिनिधियों का नेता मानता हूँ। मैं ही क्या, इस जंगल में ऐसा कौनसा जानवर है जो आपको आदर सम्मान ना देता हो। आपका पूरा जीवन जंगलवासियों की सेवा में निःस्वार्थ समर्पण की मिसाल रहा है। बस, मैं आपकी तरफ़ से महा-सम्मेलन का प्रस्ताव जंगल के अन्यान्य हिस्सों में पहुँचा देता हूँ। भगवान ने चाहा तो इस महासम्मेलन में 10-12 लाख जानवर तो हो ही जायेंगे।”

ऐसा कहकर सियार ने हाथीजी की जयजयकार करवा दी।

हाथीजी रपट गये। बिचारा खरगोश देखता रह गया। उसकी क्या मजाल जो हाथीजी की जयजयकार में अपना स्वर ना मिलाये! हाथी गलतफ़हमी में भी नाराज हो गया तो खरगोश का तो पूरा वंश ही पिस जायेगा। फ़िर सियार की निगाह खरगोश पर टिकी है। खरगोश द्वारा ‘जय’ बोलने का मतलब ही है कि अब वह अपनी फ़िलोसफ़ी इस आयोजन के विरोध में नहीं लगा सकता।

इस प्रकार महासम्मेलन की तैय्यारियाँ शुरु हुई। पूरे जंगलसे प्रतिनिधियों का समावेश होना है, समय चाहिये, इसलिये दो साल बाद का मुहुर्त निकाला गया। स्थान का चयन बहुत सोच-समझ कर किया गया। महासम्मेलनों की सफ़लता का एक पैमाना ‘सँख्या’ है, इस सूत्र को ध्यान में रखते हुये जलचरों और नभचरों को भी बुलावा भेजा गया। हर स्तर पर समीतियों का गठन हुआ। प्रत्येक समिति में अधिक से अधिक पदों की रचना की गई ताकि एक भी महत्वपूर्ण जानवर समिति से बाहर ना रह जाये। प्रत्येक वर्ग को संतुष्ट रखना संगठन-कौशल कहलाता है, आदमी ऐसा ही कहता/करता है। इसी तर्ज पर सियार, लोमङ आदि तेज दौङने वाले, अच्छा भाषण करने वाले और नीतिज्ञ जानवरों ने सघन प्रवास किये। छोटी-बङी मीटींगें, सेमीनार, प्रशिक्षण वर्ग आदि के कई दौर चले। कई जगह प्रभात-फ़ेरियों का भी आयोजन किया गया। कुछ स्थानों से विरोध के स्वर मुखर हुये, तो साम-दाम-दण्ड-भेद की नीति काम आई। आयोजन कर्ताओं के लिये प्रसन्नता बढाने वाली बात यह निकली कि विरोध के स्वरों ने महा-सम्मेलन के प्रति सामान्य जानवरों का आकर्षण दुगुना-चौगुना कर दिया। सभी वर्ग के जानवरों, पक्षियों और जलचरों में अपने दूरस्थ मित्रों-रिश्तेदारों से मिलने का चाव बना। इन सारी तैय्यारियों के उत्साह के बीच यह बात किसी को ध्यान में ही नहीं आई कि जिन समस्याओं के निराकरण के उद्देश्य से महासम्मेलन बुलाया जा रहा है, वे समस्यायें अपने आकार में तो बङी हुई ही, अन्य प्रकारकी नई समस्याओं का चलन भी शुरु हो गया। प्रतियोगिता का दूषण अब तक सिर्फ़ आदमियों में सुना जाता था, अब जानवरों में भी आ गया।

महासम्मेलन शुरु हुआ। अपने-अपने पद के अनुसार सबको बैठने का आग्रह किया गया। पद की आपाधापी में कुछ छोटे कद के जानवर ऊँचा स्थान पा गये, ऊँचे कद के जानवरों ने समझदारी से काम लेकर नीचा स्थान स्वीकार लिया। उद्घाटन-भाषण-चर्चा सत्र चले। महा सम्मेलन की झलकियाँ आप भी देखिये-

1- ऊष्टराज और गर्दभसेन जोशपूर्वक परस्पर गले मिले। ‘अहो रुपं अहो ध्वनि’ की तर्ज पर एक-दूसरे की खूब तारीफ़ें की।

2- मूषक मियाँ ने जब बिल्ली मौसी से पूछा कि वे हज से कब लौटी, तो बिल्ली मौसी ने शहद सी मीठी आवाज में बताया, ‘मैं हज वाली नहीं हूँ बेटा। वह सौ चूहे गटकने वाली झूठी मौसी थी। मैं तो तीरथ वाली सच्चीमौसी हूँ। तुम्हारी नानी भी तो साथ थी तीरथ में। उसीसे पूछ लेना घर जाकर। आओ बेटा, मौसी के गले लग जाओ…’

3- मगरमच्छ को रोता देखकर बन्दर ने पूछा, “क्यों मियाँ! भाभी के लिये अपना कलेजा आपको दे दें? घबराओ नहीं, इस बार मैं अपना कलेजा पेङ पर टाँग कर नहीं आया, साथ ही लाया हूँ… …” बन्दर का व्यंग्य सुनकर मगर मच्छ दहाङ मारकर रोते-रोते बोला, “अरे भैय्या, मैंने तो उस डायन को कब का तलाक दे दिया। वह दुष्ट मेरा कलेजा/भेजा भी खाने लगी थी। अब तो तुम्हारे दिये जामुन मैं अकेला ही खाता हूँ। कभी आओ घर पर तो दिखाऊँ… …”

4- बया अब बन्दर से डरी-डरी ही रहती है। अब उसने बिन माँगी सलाह देना बन्द ही कर दिया है। पता नहीं, किस के अन्दर बैठा बन्दर जाग जाये और उसका घोसला उजाङ दे…

5- “शेरों को चाहिये कि वे अब हिरणों का शिकार करना बन्द कर दे, ताकि जंगल-वासियों की एकता का अभियान सफ़ल हो सके।” इस प्रस्ताव पर महासम्मेलन में उपस्थित एकमात्र शेर मुस्कुरा भर दिया। उसकी मुस्कुराहट ने सारे हिरणों की सिट्टी-पिट्टी गुम कर दी।

6- प्रतिनिधियों की गणना में एक गंभीर समस्या सामने आई। यह तय होना मुश्किल हुआ कि पक्षियों की सँख्या ज्यादा है, या पशुओं की? समस्या का कारण बने चमगादङ्। पक्षी उनको अपने पक्ष का मानते हैं, और पशु अपने पक्षका। इस बात का फ़ैसला ना हो सका, तो इसके लिये एक अलग कमेटी का गठन किया गया। यह तय हुआ कि अगले महा-सम्मेलन में कमेटी अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करेगी।

इस प्रकार बहुत जोश-खरोश के साथ महा-सम्मेलन सम्पन्न हुआ। महा-सम्मेलन से लौटकर अपने सियारजी और कुत्तेजी अपने ही जंगल में वापस मिले। कुत्तेजी ने नजरें झुकाकर कहा,” माफ़ करदे यार! मैंने तेरे चाचाजी का व्यर्थ ही अपमान कर दिया…”

और सियारजी ने कुत्तेजी को गले लगाकर कहा,” अरे नहीं यार! गलती तो चाचाजी की ही थी। बिना बात की बात पर उलझना उनका स्वभाव बन गया है। बुड्ढे जो हो रहे हैं… … हा-हा-हा।”

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