जितेन्द्र कुमार नामदेव
शाम के 6 बजते-बजते सभी लोग आफिस छोड़ कर अपने-अपने घर को निकल गये थे। गर्मी का मौसम था, दिन भर की गर्मी के बाद शाम को आंधी चलने लगी थी जिसकी वजह से मौसम काफी सुहाना हो चुका था। मैं भी अपना काम खत्म करके आफिस की छत पर पहुंचकर मौसम का मजा ले रहा था।
पिछले दो साल से मैं एक बंद पड़े हास्टल में रह रहा था। मेरी पत्रिका का प्रकाशक आफिस भी उसी हास्टल में था। दिन के समय तो आफिस और भी लोग रहते थे इस बजह से अच्छा लगता था लेकिन शाम होते ही जब सभी अपने अपने घर को निकल जाते थे तो मैं अकेला पड़ जाता था। इस अकेलेपन की बजह से मैं अपना काम तो बखूवी कर पाता था बस कभी-कभी मन उदास हो जाता था और खुद को काफी अकेला महसूस करता था। पर अभी कुछ दिनों से हास्टल में नेपाल की दो परिवार आकर रहने लगे थे। जिनमें से एक परिवार में 4 या 5 साल की छोटी सी बेटी थी। मुझे बच्चे तो हमेशा से ही पसंद थे वो बच्ची भी मुझे अच्छी लगती थी। हमेशा कुछ खाने पीने का सामान उसे दे दिया करता था।
बस शाम के समय मैं यूं ही छत पर ठहल रहा था और मौसम का मजा ले रहा था तब ही मैंने उस बच्ची की हाथों में एक पतंग देखी। लेकिन उसमें छागा नहीं था। वहीं छत पर पस हुआ लाल धागा नजर आया। मैं समझ गया कि ये पतंग कहीं से उड़कर आयी होगी। बस फिर क्या था सबसे पहले तो मैं छत पर पहंुचा और उस धागे को सुलझाने लगा तभी वो बच्ची छत पर पतंग लेकर आ गयी। मैं ने उसकी पतंग को लेकर उस उलझ हुए धागे के साथ बांध दिया।
हवा कुछ ज्यादा ही तेज थी। पतंग जब हवा में लहराता तो वो बहकने लगती। फरफराहट की आवाज के साथ पतंग हवा में गुलांटी खा रही थी। तेज हवा के कारण पतंग को काबू करने में परेशानी हो रही थी। वहीं बच्ची पतंग की अटखेलियों को देखकर खुश हो रही थी। धीरे-धीरे हवा का बहाव कम हुआ तो पतंग आसमान में दुरूस्त उड़ने लगी। पतंग वहां दुरूस्त हुई और मैं अपनी जिंदगी के फ्लैश बेक में जाने लगा।
मुझे वो दिन याद आने लगे जब हम अपनी परीक्षाएं खत्म करने के बाद गर्मी छुट्टियों का पूरा लुत्फ उठाते थे। कामिक्स पढ़ना, नहर में नहाने जाना, कैरम खेलना और सबसे पसंदीद गेम जो हमे हमेशा आकस्ति करता था वो था पतंगबाजी का खेल। लेकिन परेशानी इतनी थी कि मैं पतंग उड़ाना चाहता था पर उड़ा नहीं पाता था। अपनी पाकिट मनी से पतंग और धागा खरीद लाया करता था।
शाम ढलने से पहले ही जब छत पर हल्की-हल्की धूप हुआ करती थी, माँ के लाख मना करने के बावजूद भी मैं हल्की धूप में ही छत पर चढ़ जाया करता था और पतंग उड़ाने की कोशिश किया करता था। पतंग हवा में उड़ने से पहले ही या तो फट जाया करती थी या फिर किसी छत पर लगे एंटीने मे फस जाया करती थी। पतंग खो देने के बाद मैं खामोश बैठ जाया करता था और फिर दूसरे बच्चों को पतंग उड़ाते हुए देखकर ही खुश हो लिया करता था।
मुझे आज भी याद है वो लड़का जो पतंगबाजी में मेरा सुपर हीरो था। ये केवल पतंगबाजी में ही हीरो था बाकी सारे काम विलनवाले किया करता था। बच्चों को मारना, लड़ना-झगड़ना, कंचे खेलता था और दूसरे बच्चों के कंचे छीन लिया करता था। नहर में नहाने जाता, तब भी अपने से छोटे बच्चों को परेशान किया करता था। इसी तरह पतंगबाजी में भी उसके मुकाबले कोई टिक नहीं पाता था। वो आस पास उड़ रही सारी पतंगों को काट दिया करता था। तभी तो मैं उसकी पतंगबाजी का कायल था।
मैं हमेशा से उसकी तरह पतंग उड़ाना चाहता था। वक्त गुजरा और धीरे-धीरे मैं पतंग उड़ाना सीख गया। मुझे समझ में आया कि पतंग उड़ाना कला तो है साथ ही एक तरह का विज्ञान भी है। हवा को चीरती हुए पतंग आसमान में हवा के दवा के प्रति विरोध करती हुए ऊपर की ओर उठती है। पतंग उड़ाते समय धागे की ढील पर विषेश ध्यान दिया जाता है। जब तेज हवा हो तो पतंग को थोड़ी ढील देकर आसमान की तरफ उठाने की कोशिश की जाती है। जब पतंग आसमान में होती है तो वो एकदम दुरूस्त हो जाती है और फिर आप उसे हवा में लहराते हुए देख सकते हो।
मैं पतंग उड़ाना तो सीख गया था पर अभी तक पतंगबाजी का उस्ताद नहीं हो सका था। मैं अभी भी दूसरों की पतंग काट नहीं पाता था। अक्सर पतंग उड़ाते समय जब मेरी पतंग हवा में दुरूस्त हुआ करती थी तब वहीं पतंगबाजी का उस्ताद लड़का मेरी पतंग काट दिया करता था। इस बात से चिड़ तो होती थी साथ ही एक प्रतिस्पर्धा की भावना भी पैदा होती थी।
इसी उलझन में गर्मी की छुट्टियां बीत जाया करती थी और मैं फिर अगली छुट्टियों का इंतजार किया करता था। सिर्फ इसी उम्मीद पर कि मैं भी आने वाले समय में पतंगबाजी का उस्ताद बन जाऊंगा।
एक तेज हवा के झोंके ने मेरा ध्यान भटका दिया और मैं अपने फ्लैश बेक लाईफ से वापस हकीकत की जिंदगी में आ चुका था। यहां हवा में मेरी पतंग अपना संतुलन खो रही थी। मैं उसे काबू करने की कोशिश कर रहा था पर मेरे पास ढील देने के लिए धागा पयाप्त ही था। तभी फैक्ट्री में काम करने वाला एक लड़का कहीं से धागा लेकर आया। मैंने उस धागे को भी पतंग से जोड़ दिया अब मेरे पास पयाप्त धागा था। मैंने पतंग को थोड़ा �¤ �र आसमा की तरफ उठाया तो पतंग फिर से दुरूस्त हो गयी थी।
अब मैंने पतंग की डोर को उस बच्ची के हाथ में थमा दी और सोचने लगा- जिंदगी के वो दिन जब पतंग उड़ाने के और पतंगों को काटने के दिवाने हुआ करते थे। एक आज का दौर है जब अकेले पतंगबाजी का लुत्फ उठा रहा हूं, कोई प्रतिद्वंधी नहीं है और पतंग काटने वाला नहीं। बस मैं और वो छोटी सी बच्ची जिसके बजह से मेरा थोड़ा बहुत मन बहल जाता है।
तभी पीछे से किसी बच्चे की पुकार सुनाई देती है। वो कह रहा था ‘‘भईया-भईया।’’ मैंने पलट कर देखा तो पीछे की तरफ बने एक घर की छत पर दो बच्चे खड़े थे। मुझे तो बच्चे वैसे भी बहुत पसंद हैं तो मैने उन्हें आवाज लगाई और कहा ‘‘क्या है?’’ तो वो कुछ कहने लगे। दूरू ज्यादा थी और हवा भी चल रही थी। इस बजह से मैं उन बच्चों की बात को क्लीयर सुन नहीं पा रहा था।
फिर जब उनके इशारों को समझने की कोशिश की तो मेरे सझम में आया कि वो शायद पतंग उड़ाने की बता कर रहे थे और मैंने भी इशारा किया कि वो अपनी पतंग उड़ाएं तो उनमें से एक बच्चा भागकर पतंग और बड़ा चरखा लेकर आया।
बस वो पल मुझे अपने बचपन के दिन याद दिला गये। मैं समझ गया था कि आज भी मैं पतंगबाजी का उस्ताद नहीं हुआ हूं अभी तक तो मैं अपने से बड़े बच्चे से मात खाता आया हूं आज मुझे अपने से बहुत छोटे बच्चे से मात खानी पड़ेगी। मानो मेरा विश्वास डोल गया था। मैं पतंग तो उड़ाने लगा था पर मुझे आज भी पतंगों के पेंच करना नहीं आता था। मुझे नहीं पता था कि किस तरह दूसरों की पतंग को काटा जाता था और फिर मेरे पास तो मंजा भी नहीं था।
मैं तो खुद लूटी हुई पतंग और इक्कठा किए हुए धागे से पतंगबाजी का शौंक पूरा कर रहा था। सिर्फ यह सोचकर कि जो काम बचपन में किया करता था आज एक मौका और मिला है।
जिस समय मैं पतंग उड़ाता था उस समय मैं हाईस्कूल और इण्टरमीडिएट में पढ़ा करता था और आज तो अपनी पोस्ट ग्रेजूएशन कम्पलीट करने के एक साल अपने ही शहर में और पिछले तीन सालों से एनसीआर में जाॅब कर रहा था। फिर जब कभी मौका मिलता है तो इस तरह के शौक पूरे कर लिया करता हूं।
अब मेरे मन में उस बच्चे से भी खौफ पैदा हो गया था। मैं आज भी अपने आप को पतंगबाजी में उतना उस्तात नहीं मानता था। वहीं बच्चें तेज हवा के बीच अपनी पतंग को दुरूस्त करने की कोशिश कर रहे थे। पर वो हवा तेज होने के कारण पतंग पर काबू नहीं कर पा रहे थे। उनकी इस बात से मेरा आत्मबल थोडा़ बड़ गया। मैं समझ गया कि ये बच्चे मेरी पतंग नहीं काट पाएंगे। पहले तो ये अपनी पतंग को उड़ा ही ले तो बहुत है।
लेकिन थोड़ी ही देर बाद उनकी पतंग भी हवा में उड़ने लगी थी। फिर से मन में एक खौफ सा घर कर गया कि कहीं आज मुझे इन बच्चों के सामने घुटने न टेकने पड़ जाएं। मेरी पतंग अगर इन बच्चों ने काट दी तो मेरी बहुत किरकिरी होगी। वो बात अलग है कि आप मुझे देखने वाला कोई नहीं, हां! अपने मन में जरूर एक मलाल रहेगा।
फिर मैं अपनी पतंग को बचाने के नये तरीके खोजने लगा। मैने सोचा, अगर इन बच्चों की पतंग ने मेरी पतंग पर हमला किया तो मैं भी अपनी पतंग बचाने के लिए किसी भी हद तक गिर सकता हूं। यहां तक कि मैं चीटिंग करके इनकी पतंग को फसाकर अपनी छत पर खीच लूंगा और फिर उसे फाड़ दूंगा।
मेरे मन में ये ख्याल आ ही रहे थे कि मैंने देखा एक पतंग कटने के बाद फैक्ट्री ग्राउण्ड की ओर गिर गई। मैंने पीछे मुड़कर देखा तो ये उन्हीं बच्चों की पतंग थी जिनसे मुझे खतरा महसूस हो रहा था। लेकिन उनकी पतंग तो खुद वा खुद धागा टूटने से कट गयी और आज मैं और सिर्फ मैं आसमान पर अकेला अपनी पतंग को हवा में गुलाटियां खिला रहा था। आज मैं खुद को पतंगबाजी का बादहशाह समझ रहा था।
लेकिन जो भी इस खेल में कब दो घंटे बीत गये मुझे पता भी नहीं चला। आसमान में भी अंधेरा विखरने लगा था। शाम ढलकर रात की ओर जा रही थी। अब मैंने भी अपना पतंगबाजी के युद्ध को विराम दिया और उस पतंग को धागा लपेटकर उस बच्ची को संभाल कर रखने के लिए दे दिया और अपने पास वो कुछ सुहाने पल समेट कर रख लिए। जो जिंदगी में कभी-कभी मिलते हैं।