कहानी : प्रैक्टिकल

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-चैतन्य प्रकाश

“यह सब झूठ है, बेबुनियाद है, मेरे राजनैतिक विरोधियों की चालबाजी है।” फोन पर उत्तर देते हुए श्याम सुंदर ने कहा।

उसके चेहरे पर प्रतिक्रिया थी, जिसमें घबराहट और भय भी छुपे हुए थे। टेबिल पर आज सुबह के अखबार थे। सारे अखबारों में एक घोटाले की खबर प्रमुख थी, इस घोटाले में श्याम सुंदर के शामिल होने की खबर पर लगातार फोन आ रहे थे। वो इसी तरह सबको लगभग इसी मजमून का उत्तर दे रहा था। यही उत्तर देते-देते उसका आत्मविश्वास अब चिंता और घबराहट से ऊपर आने लगा था। मगर उसके भीतर अभी भी कुछ कांप रहा था।

‘यह आपको फंसाने की साजिश है… अरे चिन्ता न करो, राजनीति में यह सब तो चलता ही है।’

‘इस अखबार के पत्रकार पर मानहानि का दावा ठोकना चाहिए।’

‘श्याम भैया, आप फिक्र न करें, कोर्ट में आप बाइज्जत बरी होंगे, फिर दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा।’

ये शुभ-चिंतकों की बातचीत के वुफछ जुमले थे जो वो आज सुबह से लगातार सुन रहा था।

श्याम सुंदर को थकान अनुभव हो रही थी। वह अपने पी.ए. को कुछ आवश्यक निर्देश देकर, कुछ देर के लिए एकांत में आ गया। कमरे के भीतर एक आदमकद शीशा लगा था। सहसा श्याम सुंदर स्वयं के प्रतिबिम्ब के सामने आ गया और कुछ देर ठहर गया। अंदर से कुछ पुर्नस्मृत होने लगा। वह पास ही पड़े सोफे पर पसर गया। उद्विग्नता भी कभी-कभी अंदर की मथनी को ऊर्जा दे देती है। मंथन हमारे अंदर के पाखंड पर प्रहार करता है। श्याम सुंदर अपने आलोड़न-विलोड़न में टूटते-पिसते पाखंड को एक नजर देख रहा था। वह अपने ही भीतर के कटघरे में खड़ा होकर स्वयं के प्रश्नों को सुनने लगा था।

”क्यों ऐसे हुआ?”

”तुम अभी भी झूठ बोल रहे हो?”

”झूठ ही जिन्दगी हो गई है।”

”तुम्हारा पतन हो गया है?”

”तुम ऐसे तो न थे।”

”कथनी और करनी में कितना अंतर है?”

प्रश्नों का उत्तर उसकी जिन्दगी की कहानी है। जज्बात और जद्दोजहद के किनारों के बीच तैरती नाव सा उसका सफर। वह एक संवेदनशील, साहसी युवक था। देशभक्ति की बातों-गीतों और कविताओं से उसके रोम-रोम में रोमांच होता था। उसकी सामाजिक सक्रियता की शुरूआत ऐसे ही हुई, कालेज के एक आंदोलन में वह सहज ही नेतृत्व का प्रतिरूप बनकर उभरा, कालेज के लड़के-लड़कियों में एक ईमानदार, संवेदनशील, सजग और समर्थ नौजवान की तरह वह धीरे-धीरे प्रतिष्ठित होता गया। वह पुस्तकालय की विविध पुस्तकों में उदाहरण ढूंढता, महापुरुषों के जीवन के प्रसंग ढूंढता… अपनी बातचीत में, भाषणों में, चर्चाओं में अपने विचार प्रभावी तरीके से रखता।

उसका नैतिक आधार प्रबल हो गया। वह अनेक महापुरुषों के जीवन के प्रसंगों एवं संदर्भों के साथ स्वयं को जोड़कर मन ही मन आनन्दित होता। उसके भीतर जैसे महान तत्व प्रस्फुटित हो रहा था। उसका आत्म गौरव प्रतिमान छू रहा था। ”इस तरह कोरी नैतिकता और आदर्शों से जिन्दगी नहीं चलती है, ये बातें सिर्फ किताबों में अच्छी लगती है।” उसके पिता अक्सर उसको समझाते थे। ”कुछ प्रैक्टिकल बनो यार। फोकट की लीडरी से पेट थोड़े ही भरेगा, हमारे देश के सारे पोलिटिशियन करप्ट है।” उसके मित्र अनेक बार उसको ऐसी सलाहें देते थे।

मगर ऐसी बातें सुनने के बाद वह और अधिक मजबूत होता, उसके भीतर एक नैतिक अहं पैदा होता, वो दुनिया के रास्ते से नहीं, अपने रास्ते से चलेगा, तमाम विरोधों में भी वह अपने आदर्शों को नहीं छोड़ेगा, हमेशा इस तरह के उत्तरों को वह पूरी तर्कशक्ति के साथ ऐसे प्रस्तुत करता कि लोग निरूत्तर हो जाते।

”पैसा जिन्दगी में अहम चीज है श्याम! फिलासफी से पेट नहीं भरता।” उसके इस सफर में भावनात्मक साथी बन चुकी प्रियंका ने एक दिन यह दलील दी थी।

मगर श्याम अपने पक्के इरादों का मालिक था, वो इन सब दलीलों के उत्तर देकर सबको संतुष्ट कर देता, लोग उसकी तर्कशक्ति के सामने परास्त हो जाते थे।

कालेज के दिन गुजरे। श्याम ने पिता की प्रिन्टिंग प्रैस में हाथ बंटाना शुरू किया। उसकी सामाजिक सक्रियता अब राजनैतिक सक्रियता बनने लगी थी। और धीरे-धीरे वह एक राजनैतिक पार्टी का सक्रिय कार्यकर्ता बन गया। घर, परिवार और व्यवसाय को जाने-अनजाने उसकी सक्रियता से लाभ होने लग गया। पार्टी में भी अनेक मित्र उसे व्यावहारिक होने का पाठ पढ़ाते, किन्तु श्याम अपनी पार्टी की विचारधारा के लिए अध्ययन करता, चर्चा करता, लोगों के बीच जाता, कार्यकर्ताओं को विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता के लिए प्रेरित करता।

अपनी इस पूरी आत्म-कथा को स्मरण करते-करते श्याम काफी गहरा डूब चला था। उसे चाय की तलब महसूस हुई, उसने आवाज देकर नौकर को बुलाया और एक चाय का कप लाने के लिए कहा। साथ ही निर्देश दिया कि अभी कोई फोन या आगंतुक आए तो कहे कि अभी मैं व्यस्त हूं।

कमरे के भीतर जुड़े बाथरूम में जाकर उसने वाशबेसिन पर ठंडे पानी से अपना मुंह धोया, पास ही टंगे तौलिये से हल्का सा पौंछ कर वह फिर सोफे पर आ बैठा। आज बहुत दिनों बाद यों अंतर्मुखी होना उसे भा रहा था। उसे अपने अंतर्मुखी होने का संदर्भ भी सूझा। वह अक्सर पढ़ी गई बातों को गहरे से विचार करता था। इसलिए मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास ‘गबन’ की एक उक्ति स्मरण हो आई।

”आदमी जब तक स्वस्थ रहता है, उसको इसकी चिन्ता नहीं रहती कि वह क्या खाता है, कितना खाता है, कब खाता है, लेकिन जब विकार उत्पन्न हो जाता है, उसे याद आता है कि कल मैंने पकौड़ियां खाई थीं। विजय बहिर्मुखी होती है, पराजय अन्तर्मुखी।”

एकाएक वह मुस्करा उठा। कुछ अच्छे उदाहरण अपनी डायरी में लिख लेना उसकी अध्ययनशीलता का हिस्सा था। यह उदाहरण भी उसने डायरी में लिखा था और बार-बार डायरी लिखते-पढ़ते यह उसकी स्मृति पर भी अंकित हो गया था। अनेक बार आपसी चर्चा एवं विवेचना में वो इस उक्ति का जिक्र भी करता था।

कुछ क्षण के लिए श्याम सुंदर ने ‘गबन’ की कहानी के साथ स्वयं को जोड़ा और ‘रमानाथ’ के साथ अपनी तुलनाकर मन ही मन मुस्कराने लगा। लेकिन थोड़ी ही देर में नौकर चाय का प्याला सामने रख कर गया। और जाते-जाते एक सुझाव भी देता गया।

‘भैया आप परेशान न हों, भोलेनाथ सब ठीक करेंगे। हम उनको ग्यारह रुपए का प्रसाद चढ़ाएंगे।”

श्याम सुंदर ने हंसकर उसकी बात का रिस्पांस दिया। मूलचंद उसके कस्बे का ही निवासी है। एम.पी. का चुनाव जीतने के बाद जबसे वह दिल्ली आया है, काम के लिए उसे यहां ले आया है। वह श्याम सुंदर को अपना बड़ा भाई मानता है। पूरी लगन से काम करता है। मूलचंद अपनी बात कहकर चला गया। श्याम की विचार-श्रृंखला फिर चल पड़ी।

उसकी मेहनत और ईमानदारी से पार्टी में बहुत लोग उससेर ईर्ष्या करते थे, मगर उसका सहयोग करने को मजबूर थे। श्याम सुंदर ने पार्टी में लाबिंग को कभी बढ़ावा नहीं दिया। पर उसे चाहने वालों की भी अच्छी-खासी संख्या थी। पार्टी में युवा नेतृत्व को अवसर दिए जाने की मुहिम चली तो श्याम सुंदर अपनी ‘अविवादित छवि’ के कारण प्रदेश महासचिव बन गया। इसी बीच लोकसभा के चुनाव में उसे उसकी ही जाति के एक बुजुर्ग तथा नामी नेता से चुनाव लड़ने के लिए टिकट मिल गया।

श्याम सुंदर ने अपने विचार और व्यवहार की ताकत के बूते पर चुनाव में जोरदार प्रचार किया। पार्टी का प्रभाव भी उस इलाके में श्याम सुंदर के प्रयास का नतीजा था। गणित ऐसा बैठा कि श्याम सुंदर अपने संसदीय क्षेत्र से सांसद चुना गया।

”श्याम भैया जिन्दाबाद।”

”हमारा नेता कैसा हो…”

नारे गूंजते थे, मालाएं पहने श्याम सुंदर गांव-गांव गया, लोगों का आभार व्यक्त करने। उसके कदमों में विजयोल्लास से अधिक संतुष्टि की शक्ति थी। वह अपनी लोक शक्ति के अराधक रूप को प्रमाणित हुआ देखकर प्रसन्न था। उसे अपने आदर्शों और विचार-धारा की प्रतिबद्धता पर गर्व हुआ। उसे लगा जैसे ईश्वर ने उसके रास्ते को सहज, सुगम बना दिया है। वह मन ही मन कृतज्ञ अनुभव करने लगा। उसका संवेदनशील हृदय धन्यवाद से भर उठा। सचमुच श्याम सुंदर के लिए वह दिन स्वर्गोपम सुख का दिन था।

”मगर, हमको चुनाव खर्च का सारा ब्यौरा पार्टी कार्यालय में देना चाहिए।”

वह अपने चुनाव अभियान के संयोजक महेन्द्र से कह रहा था।

”मगर भैया सारा ब्यौरा देने में बड़ा घपला है। कुछ खर्च ऐसा है जो दिखाया नहीं जा सकता। जैसे…।”

”जैसे क्या है?”

उसने तल्खी से पूछा।

”जैसे कई जगह शराब बांटी गई, कई बूथों पर गुण्डों को लगाया था। उसका पेमेंट हुआ है। कुछ जातियों के प्रमुखों को रुपयों की थैली पहुंचाई गई है।” महेन्द्र ने उत्तर दिया।

”मगर यह सब किसके कहने पर हुआ, यह पैसा कहां से आया? तुम जानते हो, मैं इन बातों के सख्त खिलाफ हूं।” श्याम ने कहा।

”आप खिलाफ थे भैया, अब नहीं हैं, चुनाव जीतने में यह सब होता है। यह सबने मिलकर तय किया था, और आपसे पूछने पर आप बिदकेंगे, ऐसा सोचकर ही हमने आपसे यह बात नहीं पूछी।”

महेन्द्र बहुत अनुभवी, किन्तु तेज-तर्रार राजनैतिक कार्यकर्ता था। श्याम के साथ उसकी मित्रता भी थी, पर श्याम को यह बात जानकर महेन्द्र पर थोड़ी नाराजगी हो आई।

”यह ठीक नहीं हुआ महेन्द्र।”

”यह तो शुरूआत है श्याम सुंदर भैया! आपको प्रैक्टिकल होने में थोड़ी देर हो गई है। हम तो ‘परफेक्ट प्रैक्टिकल’ कभी से हो चुके हैं। खैर इसको अन्यथा न लें, पर आप इस बात को जान लें तो अच्छा होगा कि ‘पोलिटिक्स इज ए प्रेक्टिकल फील्ड, इट इज नाट ए गार्डन आफ आइडियल्स।”

महेन्द्र ने यह कहकर बात समाप्त की, श्याम सुंदर ने बहस करने में कोई भलाई नहीं समझी।

मगर सचमुच वो शुरूआत थी। फिर कभी कोई योजना, कभी कोई निविदा, कभी कोई ठेका, कभी कोई कार्यक्रम… अब पैसे के घालमेल को श्याम सुंदर ने सामान्य बात समझ लिया। उसे लगा ही नहीं कि कुछ असामान्य हो रहा है।

सत्ता, सुविधा और मान-सम्मान का चक्र ऐसे चला कि श्याम सुंदर सदैव इन सबकी सुरक्षा छिन जाने के डर से कई तरह के नैतिक मानदण्ड तोड़ता चला गया। उसको सत्ता की सुविधा ने पूरी तरह आकर्षित किया। उसका ज्यादातर समय दिल्ली में बीतने लगा। वह चुनाव क्षेत्र में अब कम ही जाता था। अपने ही क्षेत्र में अतिथि बनकर जाना ही अब उसे रुचता था।

पार्टी की आंतरिक राजनीति, बड़े नेताओं से सांठगांठ, मंत्रिमंडल में स्थान पाने की जुगत-जुगाड़ अब उसको ज्यादा रुचिकर विषय लगते थे। पार्टी के भीतर इस तरह के तत्वों से उसकी मित्रता भी होती चली गई।

अपनी कालेज की मित्र प्रियंका से शादी करते समय उसने उसको साफ-साफ बताया था, ”मैं तुम्हें सुख नहीं दे पाऊंगा। संघर्ष मेरी राह है। यदि तुम साथ चल सको तो मैं प्रस्तुत हूं।” प्रियंका ने सब स्वीकार किया था, किन्तु अब प्रियंका की जरूरतें भी बढ़ गई हैं, वह घर में श्याम के मां-बाप के साथ पिछले दस वर्षों से रह रही थी। पांच वर्ष की सोनम को बाप का प्यार कहां मिल पाया था। श्याम की राजनीति की व्यस्तता में घर उपेक्षित ही था। प्रियंका ने दिल्ली आकर रहने का प्रस्ताव रखा, श्याम ने अगले महीने शिफ्टिंग की योजना भी बना ली थी।

श्याम की इच्छा थी कि यह सब सुख-सुविधा अब उसके परिवार और रिश्तेदारों को भी मिले। उसको लगने लगा कि उसकी मेहनत का यह सुफल है। इसको भोगने में क्या बुराई है। पर एकाएक कभी जब उसके मन में अन्तर्विरोध भी जन्मते, तब वह स्वयं को समझाता, ‘आदर्शो की अति भी अच्छी नहीं’ ‘अखंड नैतिकता असंभव है।’

इन सुख-सुविधाओं की चाहत का सफर आज इस पड़ाव पर आ पहुंचा था। श्याम सुंदर को उसके प्रैक्टिकल हो जाने का मंजर अब नजर आ रहा था। उसके सामने दोनों रास्ते खुले थे। एक उसका अपना रास्ता था, जिससे वह भटक चुका है। दूसरा उसका वह रास्ता, जिस पर दुनिया चलती है, जमाना चलता है, राजनीति चलती है।

”एक्सक्यूज मी सर, एक जरूरी मैसेज है।” उसके निजी सहायक विनोद ने इस विचार श्रृंखला को दरवाजा खोलकर बोलते हुए भंग किया।

”ऊंह।” श्याम सुंदर ने रिस्पांस किया।

”सर पार्टी प्रेसीडेन्ट ने शाम 4 बजे आपको घर पर मिलने के लिए बुलाया है।”

”ठीक है, और कुछ…?” श्याम ने पूछा।

”सर घर से मैडम और मम्मी-पापा का फोन था, आप बात कर लीजिए सर।”

”ठीक है, करता हूं।”

”थैंक्यू सर!” विनोद चला गया।

श्याम सुंदर फिर अकेला हो गया। आज सचमुच इस सारी स्मृति श्रृंखला के बाद श्याम ने बेहद अकेलापन महसूस किया। एक क्षण को वितृष्णा, विराग सा छा गया भीतर…! मगर फिर संभला, सोचने लगा – अब तो पहला रास्ता बचा ही कहां है। सिर्फ एक ही विकल्प है कि पहले रास्ते पर चलने की बात की जाए। उसी का दावा किया जाए, पर चलना तो होगा दूसरे रास्ते पर ही… आखिर वह अब वापस नहीं लौट सकता है। यह सब कुछ छिन जाए तो फिर यहां तक आने का फायदा ही क्या हुआ।

वह बाहर निकलने की तैयारी कर रहा था। घर में सब कुछ समझा दिया है। क्या कहना है, क्या नहीं कहना है? ”शीघ्र ही इस संकट से हम बाहर निकलेंगे।” उसने अपनी पत्नी और माता-पिता को आश्वस्त किया।

अभी वो आगे की रणनीति तैयार करेगा। पार्टी प्रेसीडेन्ट को समझाएगा। दहाड़ कर कहेगा, ”यह मुझे बदनाम करने की साजिश है। आइ विल फाइट अगेंस्ट दिस कान्सपिरेसी, डेफिनेटली आइ विल विन इन दि कोर्ट।”

अपने भीतर के कोर्ट में हारा श्याम सुंदर बाहर के कोर्ट में जीतने के प्रति निश्चिंत है। ”आफ्टर आल इट इज ए प्रैक्टिकल वे आफ लाइफ…।”

1 COMMENT

  1. इस कहानी के बारे में क्या कहा जाये?ठेठ यथार्थवादी कहानी या अकहानी ?क्योंकि इसमे कहानी जैसा तो कुछ भी नहीं है.१९४७ से आजतक यही तो होता आ रहा है.केवल नाम और चेहरे बदलते जा रहे हैं.इस कहानी के नायक की जगह आप १९४७ या तथाकथित दूसरी आजादी यानि आपातकाल के बाद के किसी जाने माने नेता का नाम लिख दीजिये. कहानी का स्वरुप यही रहेगा .यह दूसरी बात है की आज तो बहुत से ऐसे भी नेता हैं जिन्होंने आदर्श वाद को कभी अपनाया ही नहीं.वे शुरू से व्यावहारिक रहे,इसलिए आत्मा जैसी किसी चीज ने उन्हें कभी परेशान नहीं किया.उन्हें आत्म ग्लानी का सामना कभी नहीं करना पडा.

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