चश्म-ए-बद्दूर बनाम बेलगाम घोड़े

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रामकृष्ण

फ़ुरसतनामा

वह ज़माना फ़िल्मी दुनिया में राज कपूर के चरमोत्कर्ष का था, और के साथ ही शैलेन्द्र और हसरत जयपुरी भी अपनी लोकप्रियता तब आसमान छू रहे थे. उन दिनों निर्मित होने वाली कम से कम पचास प्रतिशत फ़िल्में ऐसी ही होती थीं जिनमें शंकर-जयकिशन का सगीत हुआ करता था और हसरत-शैलेन्द्र के गीत. इन दोनों जोड़ियों का सहयोग जो निर्माता प्राप्त कर लेता था उसके जैसे भाग्य के द्वार खुल जाते थे. ऐसी शायद बहुत ही कम फ़िल्में होंगी जिनमें इन जोड़ियों का सहयोग रहा हो और तब भी वह विफल सिद्ध हुई हों. वैसे शंकर और जयकिशन में कोई आपसी प्रतिस्पर्द्धा थी या नहीं यह तो मैं नहीं जानता, लेकिन शैलेन्द्र और हसरत के बीच न आपसी सद्भाव था और न सौहार्द्र, यह एक निश्चित तथ्य है. शैलेन्द्र के गीतों में अगर भावलालित्य था तो हसरत के गीत आम आदमी के अधिक निकट थे, लेकिन एक दूसरे की नज़रों में इन गुणों का न कोई महत्व था और न कोई मानसम्मान. हर कोई यह समझता था कि दूसरे आदमी की प्रतिभा उसकी अपेक्षा गौण है, और उनके लिखे गीतों के बल पर अगर कोई फ़िल्म लोकप्रिय होती है तो उसका श्रेय स्वयं उसका है, दूसरे का नहीं.

बम्बई पहुंचने के बाद हालांकि मेरी मुलाकात पहले हसरत से हुई थी, लेकिन राहरस्म शैलेन्द्र से ही ज्यादा रही. जहां तक मेरा अपना प्रश्न है, शैलेन्द्र के लिखे गीत मुझे ज्यादा भाते थे, और हसरत के साथ अपनी अपेक्षाकृत पुरानी जान-पहचान के बावजूद उसको मैं ज्यादा गंभीरता से नहीं ले पाया था. इसी से एक दिन शैलेन्द्र ने जब मेरे घर पर फ़िल्म जर्नलिस्ट्स असोसिएशन के उस लेटरपैड का आखरी पन्ना देखा जो अन्य कागज़पत्रों के बीच पड़ कर मेरे साथ लखनऊ से बम्बई पहुंच गया था, तो अचानक ही उसके दिमाग़ में एक दिलचस्प योजना कौंध गयी.

वह दिन शायद सन् 1963 के मार्च का पच्चीसवां या छब्बीसवां दिन था, और पहली अप्रैल आने में दो तीन दिन की देर थी. शैलेन्द्र ने मुझसे कहा कि क्यों नहीं उस लेटरहेड पर एक पत्र मैं हसरत को लिख कर उसे इस बात की खुशखबरी दे दूं कि उत्तरप्रदेश के पत्रकारों ने वर्ष के सर्वश्रेष्ठ गीतकार के रूप में उसका चयन किया है, और इस तरह उसे पोस्ट करूं कि ठीक पहली अप्रैल के दिन वह उसके हाथ लगे. मज़ाक में निश्चित ही मौलिकता थी, और मैंने फ़ौरन ही उसके लिये हामी भर दी. लेटरहेड का न केवल वह आखरी काग़ज़ था बल्कि पुराना होने के कारण पूरी तरह जर्जर भी हो चुका था, लेकिन तब भी उसका उपयोग मैंने किया. फिर वी.टी. स्टेशन जाकर किसी आर.एम.एस. के डिब्बे में उस लिफ़ाफ़े को शैलेन्द्र ने स्वयं डाला, जिससे बम्बई की मुहर उसमें न पड़ने पाये और लगे कि जैसे लखनऊ से ही वह पोस्ट किया गया है. दूसरे ही दिन शैलेन्द्र के सामने मैंने हसरत को टेलिफ़ोन किया कि लखनऊ से मुझे सूचना मिली है कि वर्ष के सर्वश्रेष्ठ गीतकार होने का पुरस्कार उसे दिया गया है, और तत्संबंध में औपचारिक पत्र उसे एक ही दो दिनों में मिलता होगा.

हसरत तो मेरा टेलिफ़ोन पाकर जैसे बाग़बाग़ हो उठा हो. ज़िन्दगी का शायद वह पहला अवार्ड था जिसकी प्राप्ति उसे होने वाली थी. इसके पहले किसी भी संस्था ने उसे पुरस्कृत नहीं किया था, और तत्संबंध में मेरा टेलिफ़ोन पाकर उसे जो अन्दरूनी खुशी हुई थी उसका अन्दाज़ा लगाना मुश्किल है. इसी से ठीक पहली अप्रैल के दिन जब उसे वह पत्र मिला तब वह सपने में भी इस बात को नहीं सोच पाया होगा कि किसी ने उसे एप्रिल फ़ूल बनाने की चेष्टा की है. उस पत्र को अपने साथ लेकर वह फ़ौरन भागा स्क्रीन के कार्यालय में, और उसके अगले ही अंक में प्रमुखता के साथ यह खबर छप गयी कि उत्तरप्रदेश फ़िल्म जर्नलिस्ट्स असोसिएशन ने वर्ष के सर्वश्रेष्ठ गीतकार होने का पुरस्कार हसरत जयपुरी को प्रदान करने का निर्णय किया है.

शैलेन्द्र के लिये तो इस खबर का स्क्रीन जैसे बहुप्रसारित पत्र में छपना आग के गोले के मानिन्द था. उसका उद्देश्य तो मेरे माध्यम से हसरत को उल्लू भर बनाना था, उससे ज्यादा कुछ नहीं. इस बात की तो उसे रत्ती भर आशंका नहीं थी कि वह खबर अखबारों तक में छप जायेगी और हसरत का सेनसेक्स अचानक उछल पड़ेगा. मुझसे जब उसने इस बात का ज़िक्र किया तो मैंने यही जवाब दिया कि मज़ाक का फ़ायदा अगर हसरत को मिल रहा है तो उसके चिन्तित होने की कोई बात नहीं, क्योंकि जब तक सचमुच उसे कोई ट्राफ़ी नहीं मिलती तब तक तो वह खबर मात्र खबर ही बनी रहेगी. लेकिन शैलेन्द्र मेरी बात से सहमत नहीं हुआ, और दुःखी मन के साथ मुझसे विदा लेते हुए चला गया.

उन दिनों बम्बई से उर्वशी नाम से एक फ़िल्म साप्ताहिक निकला करता था, जिसके स्वामी और सम्पादक रामराज नाहटा थे. रामराज नाहटा किसी ज़माने में साल में छः की दर से फ़िल्मों का थोक निर्माण करने वाले बी.के. आदर्श नामक निर्माता-निर्देशक के छोटे भाई थे, और शैलेन्द्र के साथ उन लोगों की अच्छी राहरस्म थी. आदर्श की बीवी जयमाला, जो उनकी प्रायः हर फ़िल्म में हीरोइन हुआ करती थी, शैलेन्द्र के प्रशंसकों में थी, हालांकि उसके अनेकानेक अनुरोधों के बावजूद शैलेन्द्र ने उसकी किसी फ़िल्म के लिये कोई गीत नहीं लिखा था.

मुझसे बात करने के बाद शैलेन्द्र शायद रामराज के पास गया होगा, क्योंकि अगले ही हफ़्ते उर्वशी की बैनर-लाइन में कहा गया था कि उत्तरप्रदेश फ़िल्म पत्रकार संघ के नाम से हसरत को अवार्ड देकर उसे एप्रिल फ़ूल बनाने का षडयंत्र किया गया है. खबर को पढ़ते ही हसरत मेरे पास दौड़ा आया, और चूंकि मैंने खुद अपने को संघ का मुख्य कर्त्ताधर्त्ता बताया था इससे उसने तत्संबंध में मुझसे ही कैफ़ियत तलब की. हसरत की वह जवाब-तलबी न केवल वाजिब बल्कि पूरी तरह स्वाभाविक थी. उसे सपने में भी इस बात का सन्देह नहीं हो सकता था कि उस मामले में उसके साथ किसी तरह की धोखाधड़ी की गयी है. तुषारकान्ति घोश की अध्यक्षता में बंगाल फ़िल्म पत्रकार संघ का उदय डेढ़-दो दशक पहले हो चुका था, और उसके द्वारा प्रदत्त पुरस्कारों ने जो ख्याति और विश्वसनीयता अर्जित की थी उसके सम्मुख फ़िल्मफ़ेयर द्वारा दिये जाने वाले अवार्ड भी फीके साबित हुए थे. फिर उत्तरप्रदेश हिंदी फ़िल्मों की सबसे बड़ी मन्डी थी, और वहां के पत्रकार संगठित होकर फ़िल्मकारों को पुरस्कृत करने की किसी योजना का यदि कार्यान्वयन करते तो उन पुरस्कारों की गरिमा बंगाल से भी आगे बढ़ सकती थी. शैलेन्द्र इस तथ्य से परिचित था. इसी से हसरत ने अपने नामित पुरस्कार को प्रचारित करने की जब पहल की तो शैलेन्द्र का चिन्तित होना स्वाभाविक था. वह नहीं चाहता था कि उत्तरप्रदेश फ़िल्म पत्रकार संघ का कोई अवार्ड प्रमाणित रूप से उसके किसी प्रतिस्पर्द्धी को सुलभ हो सके.

लेकिन तीर हाथों से निकल चुका था, और संयोग की बात यह थी कि वह तीर शैलेन्द्र की तरकस से ही निकला था – मैं तो उसका निमित्त मात्र था. शैलेन्द्र ने बहुतेरी कोशिश की कि मैं स्क्रीन को औपचारिक रूप से यह सूचित कर दूं कि हसरत ने अपने पुरस्कार का झूठा प्रचार किया है और उत्तरप्रदेश फ़िल्म पत्रकार संघ या उसकी पुरस्कार समिति का उसमें कोई योगदान नहीं है, लेकिन मेरे लिये वैसा करना अपनी नज़रों में स्वयं ही अपनी प्रतिष्ठा के साथ बलात्कार करने जैसा था.

लेकिन मेरी प्रतिष्ठा से ज्यादा वह प्रश्न अब शैलेन्द्र की प्रतिष्ठा का बन चुका था. यह ज़रा सी बात उसकी समझ में नहीं आ पा रही थी कि पुरस्कार की घोषणा के बाद भी अगर पुरस्कार-समर्पण की रस्म पूरी नहीं की जाती तो उस पुरस्कार का न कोई महत्व हो सकता है, न स्थायित्व. इस दिशा में अगर वह पूरी तरह निस्पृह और निर्लिप्त होकर बैठ जाता तो मामला शायद वहीं ठन्डा भी हो गया होता. लेकिन नियति ने तो शायद उस खेल-तमाशे के माध्यम से ही उत्तरप्रदेश फ़िल्म पत्रकार संघ नामक संस्था को प्राणदान करना निर्द्धारित कर रक्खा था, कोई कुछ कर भी क्या सकता था भला?

शैलेन्द्र से जब कई दिनों तक मेरी मुलाकात नहीं हुई तो मैंने समझा कि मामला जहां का तहां दब कर रह गया है, लेकिन वह मेरी भूल ही थी. क्योंकि पन्द्रह-बीस दिनों बाद ही उर्वशी का जो ताज़ा अंक देखने को मिला उसका मुखपृष्ठ शुरू से आखीर तक मुझे ही समर्पित था. लाल स्याही में रेखांकित और पूरे आठ कॉलमों में फैली बहत्तर प्वाइन्ट की जो हेडलाइन थी उसमें इंगित किया गया था कि उत्तरप्रदेश के फ़िल्म पत्रकारों के नाम पर जालसाज़ी की जा रही है. नीचे तीन कॉलम लम्बे दो पंक्तियों के उपशीर्षक में लिखा था कि रामकृष्ण नामक छद्म पत्रकार पुरस्कारों के माध्यम से लोगों को बेवकूफ़ बना कर अपना उल्लू सीधा करने के प्रयास में रत है, और मुख्य समाचार में ़िफ़ल्मी दुनिया को उन झूठे पुरस्कारों के प्रति सावधान रहने का परामर्श देते हुए बेहद अशोभन और पूरी तरह असंस्कृत भाषा और शैली में व्यक्तिगत रूप से मेरे नाम के उल्लेख के साथ न केवल मुझे भरपूर गालियां दी गयी थीं बल्कि समूचे फ़िल्म संसार में मेरी प्रतिष्ठा का हनन करने के लिये जितने कुत्सित और कुरूचिपूर्ण विशेशणों से मेरी भर्त्सना संभव थी उसे करने में कोई संकोच नहीं किया गया था. और यह उर्वशी के मात्र एक अंक में किया गया हो, ऐसी बात भी नहीं थी. क्योंकि बाद के लगातार तीन-चार अंकों में सिर्फ़ मेरी ही चर्चा-परिचर्चा उर्वशी में होती रही. वह चर्चा हालांकि पूरी तरह स्वयं मुझे बदनाम करने के लिये ही की गयी थी, लेकिन वस्तुतः उसके माध्यम से मेरा और उत्तरप्रदेश फ़िल्म पत्रकार संघ का जो प्रचार-प्रसार हुआ, वह अपनी दुर्भावनाओं के बावजूद शायद बरसों वहां अपनी एड़ियां रगड़ने और लाखों रूपये खर्च करने के बाद भी उपलब्ध होना कठिन था. उर्वशी उन दिनों बम्बई का सर्वाधिक लोकप्रिय फ़िल्म साप्ताहिक था, और फ़िल्म उद्योग का अदना से अदना व्यक्ति भी उसे पूरी रूचि और उत्सुकता के साथ पढ़ा करता था.

मुझे मालूम था, यह सब उर्वशी या उसके स्वामी-सम्पादक रामराज नाहटा की करतूत नहीं, स्पष्टरूप से शैलेन्द्र और उसके उन चमचों की कारगुज़ारियां थीं जो मुझे फ़िल्मी दुनिया से दूर कर देना चाहते थे. उर्वशी की आड़ लेकर एक शिखंडी की भांति शैलेन्द्र ने मुझ पर जो प्रहार किये थे वह एक अच्छी-खासी सीमा तक मुझे झकझोर भी गये थे. मुझे प्रतीत हुआ कि फ़िल्मी दुनिया – और उसके बाहर भी – अपनी प्रतिष्ठा बचाने का एकमेव रास्ता मेरे सम्मुख सिर्फ यह बचा है कि समस्त षड्यंत्र का पर्दाफ़ाश करने के लिये मैं न्यायालय का सहारा लूं. मुकद्दमेबाज़ी का किंचित कोई अनुभव तब तक मुझको नहीं था. मुझे तो यह बात भी नहीं मालूम थी कि दीवानी और फौज़दारी अदालतों में आखिर क्या अन्तर होता है. तब भी बम्बई में कोई कार्रवाई शुरू करने के स्थान पर मैंने लखनऊ को ही अपनी तत्संबंधित गतिविधियों का केन्द्र बनाने का निर्णय किया और फिर शीघ्र ही वहां पहुंच गया.

अपने अनेक परिचितों और मित्रों की राय लेकर मैंने उर्वशी-परिवार के विरूद्ध अपने दावे तो दायर कर दिये, लेकिन उस समय मेरे सम्मुख उसके निबटारे का प्रश्न उतना प्रमुख नहीं था जितना यह कि सचमुच में पुरस्कार-समारोह का संयोजन कर अपनी विश्वसनीयता को कैसे क़ायम रक्खा जाये? वैसे भी मुकद्दमे के दौरान रामराज नाहटा और आदर्श कई बार लखनऊ आये, और उनकी बातों से मेरे इस अनुमान को पर्याप्त बल मिला कि पूरा घटनाक्रम मात्र शैलेंद्र के इर्दगिर्द केन्द्रित रहा है, उर्वशी का महत्व निमित्त से किंचित अधिक नहीं. आदर्श और रामराज, दोनों ही राजस्थान के भोलेभाले व्यवसायी थे. उनमें वणिक बुद्धि तो थी, लेकिन किसी प्रकार की कुटिलता का उनमें पूरा अभाव था. दोनों भाइयों ने स्वीकार किया कि उर्वशी के माध्यम से मेरी मानहानि करने के खतावार तो वह ज़रूर है और अपने उस कृत्य के लिये माफ़ी मांगने में भी उन्हें कोई ऐतराज़ नहीं होगा, लेकिन उसके पन्नों पर जो कुछ छपा है उसके बारे में किसी भी तरह की कोई अग्रिम जानकारी उनको नहीं थी. अपने इस वक्तव्य को एक व्यक्तिगत पत्र के रूप में भी लिख कर उन्होंने मुझे दिया और बाद में मैजिस्ट्रेट के चैम्बर में भी अनौपचारिक रूप से उन्होंने उसकी ताईद की — हालांकि तब भी वह इस बात के लिये कतई तैयार नहीं हुए कि अपने उस कथन को वह उर्वशी में भी ज्यों का त्यों छाप दें. — अगर यह बात छप गयी तो जो रहीसही साख बची है हमारी वह भी खतम हो जायेगी, और तब उर्वशी को हमेशा के लिये बन्द करने के अलावा हमारे सामने कोई चारा नहीं बचेगा — उन्होंने लगभग करबद्ध होते हुए हम लोगों से निवेदन किया था. तब तक मुकद्दमा चलते हालांकि छः महीनों का समय बीत चुका था लेकिन तब भी अधिकांश गवाहों के बयान होने बाकी थे. फिर मुकद्दमें की आये दिन की पैरवी भी मेरे लिये जी का जंजाल बन चुकी थी — उस मद्द में समय, श्रम और अर्थ का जो निरर्थक व्यय हो रहा था उसकी तो बात ही दरकिनार. चूंकि आदर्श और रामराज द्वारा घटना के सारे तथ्य मुझे शुरू में ही पूरी तरह बताये जा चुके थे, इससे ज्यादा कुछ जानने की कोई ज़रूरत ही मेरे लिये नहीं बच पायी थी. ऐसी अवस्था में उस वाद को वापस लेना ही मैंने श्रेयस्कर समझा और अपने मुकद्दमें मैंने उठा लिये.

अब शैलेन्द्र और हसरत के साथ हुए खेल-तमाशे का विवरण कुछ विस्तार से.

शैलेन्द्र और हसरत, दोनों की दास्तान आज भी मेरी यादों में उतनी ही तरोताज़ा है जितनी वह आज से चार दशक पहले रही होगी. जैसा पहले ही बता चुका हूं, स्थायीरूप से बम्बई बसने के इरादे से सन् 1961 के मध्य में मैं वहां पहुंचा था. छिटपुट रूप से उसके पहले भी मैं वहां काफ़ी रह चुका था, लेकिन फ़िल्मी दुनिया से संबंधित लोगों से अच्छी-ख़ासी राहरस्म होने के बावजूद शैलेन्द्र से मैं पहले क्यों नहीं मिल सका यह मुझे अब भी समझ में नहीं आ पाया. उसके नाम से मैं परिचित न होऊं, यह बात भी नहीं थी. फ़िल्म गीतकार बनने के पहले भी हंस और जनयुग आदि पत्रिकाओं में छपी अपनी इक्कीदुक्की रचनाओं के माध्यम से वह पर्याप्त लोकप्रिय हो चुका था. मुझे स्वयं उसकी उन कविताओं ने बहुत प्रभावित किया था जिनके माध्यम से बम्बई में बसने वाले मज़दूर तबके के दैनन्दिन जीवन से संबंधित समस्याओं का चित्रण वह किया करता था. बाद में मुझे मालूम हुआ कि वह स्वयं भी उसी वर्ग से संबंधित था और साथ ही मिल मज़दूरों के ट्रेड-यूनियन आन्दोलनों की दिशा में भी उसने सक्रियता से भाग लिया था. यह, सच ही, मेरे लिये एक खुशी की बात थी. बरसात में, इसीलिये, राज कपूर ने जब उसके गीतों को स्वरव्यंजित करने की घोषणा की तो लगा था जैसे फ़िल्मी गीत संसार में भी इंक़लाब का समावेश हो गया हो. शैलेन्द्र की क़लम उन दिनों सच ही आग बरसाती थी.

लेकिन वह आग फिर बरस नहीं सकी. बरसात की फुहार शायद इतनी ज़ोरदार थी कि इंक़लाबी आग की चिनगारियां उसके प्रभाव में पूरी तरह ठन्डी होकर बुझ गयीं, और साथ ही उस शैलेन्द्र का भी खात्मा हो गया जो किसी ज़माने में धुएं और सीलन और पसीने की बदबू से भरी मज़दूर बस्ती में बैठ कर क्रान्ति का राग अलापा करता था. फ़िल्मों की चकाचौंध ने उसके अन्तर के असन्तोष पर एकबयक ऐशोआराम की चादर फैला दी थी और वह मात्र एक फ़िल्मी शायर बन कर रह गया था. इसी से शैलेन्द्र से पहली बार जब मेरी जानपहचान हुई तब निश्चित ही उस शैलेन्द्र से वह सर्वथा भिन्न मिला जिसकी तस्वीर हंस और लोकयुद्ध पढ़ कर मेरे मन में बना करती थी.

लेकिन शैलेन्द्र से हुए अपने उस प्रारंभिक परिचय की चर्चा करने के पहले हसरत के साथ हुई अपनी उस अनोखी लुकाछिपी का जिक्र करना भी ज़रूरी है.

हसरत – यानी फ़िल्मी गीतलेखन के क्षेत्र में शैलेन्द्र का जोड़ीदार, हसरत जयपुरी. स्वभाव से ही नहीं, रहन-सहन और चालढाल – सभी दृष्टियों से भरपूर शायर. क्रान्ति के गीत हालांकि उसने अपनी ज़िन्दगी में कभी नहीं गाये थे, लेकिन रस की जिस अनुभूति की बदौलत सामान्य व्यक्ति कवि के रूप में परिवर्त्तित हो जाता है उसकी कमी उसके अन्तर में कभी नहीं रही. आश्चर्य की बात तो यह थी कि फ़िल्मी दुनिया की चकाचौंध भी अपनी परिवृत्ति में उसे कभी बांध नहीं पायी, और न अपरिमित यश, मानसम्मान और धनदौलत इकठ्ठा करने के बावजूद उसके व्यक्तित्व में किंचित अन्तर आ पाया. मैं कह नहीं सकता कि शैलेन्द्र से मुलाकात होने के पहले ही हसरत से मैं कैसे अपना मेलजोल बढ़ा बैठा था, लेकिन इतना ज़रूर है कि अपनी पहली ही भेंट में हम दोनों खासे दोस्त बन बैठे थे.

उस दोस्ती के पहले चरण की ही बात है. सरिता उन्हीं दिनों एक नियमित फ़िल्म-स्तंभ का प्रकाशन शुरू करने वाली थी, और उसके सम्पादक विश्वनाथ ने मुझे लिखा था कि उस दिशा में कुछ रोचक सामग्री मैं उन्हें भेजूं. हसरत चूंकि मेरा नया नया दोस्त बना था और ईमानदारी के साथ मुझे यह बात महसूस हो रही थी कि साहित्य के नामधारी पन्डे उसके साथ पूरा अन्याय कर रहे हैं, इससे सरिता के लिये अपना पहला फ़ीचर मैंने उसी के बारे में तैयार किया. फ़ीचर क्या था, डेढ़-दो पन्नों का एक छोटा सा रेखाचित्र था वह जिसमें बहुत हलके-फुलके ढंग से हसरत के व्यक्तित्व को उभाड़ने की चेष्टा करते हुए फ़िल्मी गीत-साहित्य के विकास में किये गये उसके योगदान की चर्चा मैंने की थी. प्रकाशन के लिये भेजने के पहले अपने उस आलेख को मैंने स्वयं हसरत को सुनाया, और उसने उसे ख़ासा पसन्द भी किया. — मेरे बारे में यह पहली बार किसी ने टु द प्वाइन्ट आर्टिकिल लिखा है, — लेख को सुनने के बाद उसने मुझसे कहा था, और उसकी इस प्रशंसा में ईमानदारी की भावना भी मुझे निहित मिली थी.

संबंधित आलेख की प्रति चूंकि अब तक मेरे पास सुरक्षित है, इसे उसको आद्यान्त प्रस्तुत करने के लोभ का संवरण करना मेरे लिये मुमकिन नहीं लगता. हसरत का परिचय देते हुए उसमें मैंने लिखा था:

रेडियो नियमितरूप से आप आप भले ही न सुनते हों, मगर यह कैसे हो सकता है कि मियां हसरत के लिखे गीत चश्मे-बद्दूर को आपने अब तक न सुना हो?

चश्मे-बद्दूर – सच ही कुछ अजीब सा गीत है यह. हो सकता है, शुरू में इसके बोल भी आपकी पकड़ में न आ सके हों, मगर इस तथ्य से कोई भी इंकार नहीं कर सकता कि आज यह गीत भारत के बच्चे-बच्चे की ज़बान पर है. भला हो इस गीत का, मियां हसरत फ़र्माते हैं, महज़ इसी की वजह से उनके पास लगभग दो हज़ार ख़त आये.

और मियां हसरत जैसे आदमी के लिये दो हज़ार तो क्या, दो ख़त भी लिखे जाते तो बहुत बड़ी बात होती.

मुलाक़ात होने पर मियां हरसत फ़र्माया करते हैं — जनाब, जवाब नहीं मेरे इस गीत का भी – पिछले सारे रेकोर्डों को तोड़ कर इसके रेकोर्डों की बिक्री हो रही है आजकल. मगर अफ़सोस, रेकॉर्ड चाहे जितने बिकते हों, हसरत मियां को अपने गीतों की कोई रॉयल्टी नहीं मिल पाती. उनकी पूरी आमदनी मार ले जाते हैं उन फ़िल्मों के प्रोड्यूसर.

हसरत मियां फ़िल्मी गीतकार हैं. गीतों की रॉयल्टी न मिल पाती हो उन्हें तो न सही, मगर जो कुछ मिलता है उन्हें अपने गीतों से वह भी कोई मामूली चीज़ नहीं. उन्होंने अपना रेट आम फ़िल्म-गीतकारों की तरह मुझसे खुल कर तो नहीं बताया, मगर उनकी आमदनी जो कुछ है वह किसी भी सूरत में उस ज़माने से बहुत ज्यादा है जब वह बम्बई के सुपर सिनेमा में गेटकीपर हुआ करते थे, भिन्डी बाज़ार में गुब्बारों की फेरी लगाते थे, या 1727 नम्बर का बैज लगा कर बसों में कन्डक्टर की हैसियत से अपने लिखे गीत खुद को सुना कर खुश हो लिया करते थे.

यह तो एक संयोग की ही बात थी कि राज कपूर ने ठीक वक्त पर उनकी प्रतिभा को पहचान लिया. उन्हीं की फ़िल्म बरसात से गीत लिखना शुरू किया था हसरत मियां ने, और तब से आज तक सारा ज़माना उनके गीतों को सुनता चला आ रहा है.

और सारे ज़माने को अपने गीत सुनाने वाले हसरत मियां अब खार के घोडबन्दर रोड पर कैलाश नाम के एक नवनिर्मित भवन में क़याम फ़रमा रहे हैं. बाहर से उनका घर एक अच्छा खासा फ़्लैट है, और अन्दर से घरौंदा. उस घर में पहला क़दम रखते ही ज़ाहिर हो जाता है कि उनकी कमाई अब इस छोटे से फ़्लैट में समा नहीं पा रही है. मगर मियां हसरत को गीत लिखने की जितनी फ़िक्र है इन दिनों उतनी घर बदलने की नहीं. इसकी वजह शायद यह हो कि अपने सारे गीत अब तक उन्होंने इसी घर में बैठ कर लिखे हैं. प्रोड्यूसर की डिमान्ड हो चुकी होती है, म्यूज़िक कम्पोज़ किया तैयार रहता है, और मियां हसरत अपने बन्द कमरे में कई मील का चक्कर लगा डालते हैं डाइरेक्टर की धुन के लायक बोल पकड़ने के चक्कर में. यह काम कभी बहुत जल्दी हो जाया करता है, कभी कुछ देर भी हो जाती है — लेकिन इसका रेकॉर्ड है कि चार घन्टे से ज्यादा वक्त कभी ज़ाया नहीं किया उन्होंने अपने एक गीत को क़लमबन्द करने में.

यों मियां हसरत वक्त के बहुत ज्यादा पाबन्द हों, ऐसी बात भी नहीं. आप जब भी उनकी तारीफ़ करना चाहें उनके घर तशरीफ़ ले जा सकते हैं. हर बार वह तहेदिल से आपका स्वागत करेंगे. और यह बात भी नहीं कि अपनी तारीफ़ सुनने की तकलीफ़ वह ज्यादा देर तक उठायें, अपने बारे में उनकी अपनी जानकारी हद से ज्यादा है. इसलिये अपने गीतों की बारीकियों को वह इस बारीकी से समझा जायेंगे आपको जिन पर ख्वाब में भी आपकी नज़र नहीं गयी होगी कभी. यों कुछ सोचने-समझने की कोई बात उनके यहां पहुंच कर रह भी नहीं जाती – रह जाती है तो सिर्फ़ उनको सुनने की बात.

लगता है जैसे हसरत मियां ज़माने को सुनाने के लिये ही बने हैं – सिर्फ़ गीत ही नहीं, और भी बहुत कुछ. खुले दिल और बच्चों जैसे स्वभाव के आदमी हैं, किसी से कुछ भी लागलपेट नहीं रखते. इसीलिये वह बड़े मज़े में बता भी जाते हैं कि किस गीतकार ने किसका क़लाम कहां से चोरी किया है. अपने बारे में उनकी खुली राय है कि वह पूरी तरह ओरिजिनल शायर हैं.

और जहां तक शायरी का ताल्लुक है, मियां हसरत के दिल में एक अफ़सोस भी है. ज़माना उन्हें महज़ एक फ़िल्मी गीतकार मानता है, अदीबों की दुनिया उन्हें कोई तरज़ीह नहीं देती. लेकिन इन सब बातों का ज़ोरदार बदला चुकाने के लिये ही वह क़लाम पर क़लाम लिखते चले जा रहे हैं. अपना एक पूरा दीवान किसी प्रकाशक के खर्चे पर छपा डालने का इरादा भी बना रक्खा है उन्होंने. दीवान का नाम भी वही होगा, यानी चश्मे-बद्दूर ! ……

लेख का छपना था कि फ़िल्मी दुनिया के चुन्नेमुन्ने धरातल पर जैसे ज्वार सा आ गया हो. लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि उसके ज़रिए जानबूझ कर हसरत का मखौल मैंने उड़ाया है, और फिर वह बात इतनी चर्चित हुई कि हसरत को भी आखिर उस पर यक़ीन करना पड़ गया. विश्वनाथ को भी उसने लगातार तीन चिट्ठियां लिख डालीं जिनमें यह आरोप लगाया गया था कि उस लेख के माध्यम से जानबूझ कर मैंने उसको बेइज्ज़त करने की कोशिश की है, कि वह मुझसे या मेरे नाम से क़तई वाकिफ़ नहीं है, और भूल से भी कभी अगर मैं उसके सामने पड़ गया तो अपनी जान से भी मुझे हाथ धोना पड़ सकता है.

इस अप्रिय प्रसंग की समाप्ति कब हुई और हम दोनों पहले से भी ज्यादा पक्के दोस्त और साथी कैसे बन गये इसका जिक्र बाद में आयेगा, लेकिन शैलेन्द्र से अपनी पहली मुलाक़ात होने तक उस दौर से चूंकि मुझे पूरी तरह मुक्ति नहीं मिल पायी थी, इससे उसकी भूमिका में इसका उल्लेख आवश्यक था. बम्बई की फ़िल्मी दुनिया में वह मेरे बिलकुल शुरू शुरू के दिन थे, लेकिन पैसों का अपरिमित कोश आदमी से क्या कुछ करा सकता है उसकी जानकारी मुझे थी. यों इस बात का मुझे पूरा विश्वास था कि उस घटना को लेकर जो कुछ हुआ है या हो रहा है उसमें हसरत की बनिस्बत उन निहित तत्वों का ही अधिक योगदान था जो अपने पूरे बलबूते के साथ फ़िल्मी रंगमंच से मुझे नीचे उतारने के लिये कटिबद्ध थे और हसरत बज़ाते-खुद उनकी स्वार्थपूर्त्ति के निमित्त की एक कठपुतली मात्र बन कर रह गया था. मैं यह भी जानता था कि हसरत की समझ में जैसे ही यह बात आयी वैसे ही वह अपना ज़बर्दस्ती का पहना हुआ मुखौटा उतार कर एक बार फिर पहले जैसा यारबाश और हमदर्द दोस्त बन जायेगा – बाद की घटनाओं ने मेरी इस धारणा को सिद्ध भी कर दिया – लेकिन तात्कालिक रूप से मेरे सम्मुख जो संकट पैदा हो गया था उसकी उपेक्षा भी सहज-संभव नहीं थी. फलस्वरूप अपने तई काफ़ी सतर्क होकर रहना मैंने शुरू कर दिया और इस बात की कोशिश ज़ारी रक्खी कि हसरत के साथ मेरा सामना ही कभी न होने पाये.

शैलेन्द्र से उन्हीं दिनों पहली बार मेरी भेंट हुई. ब्लिट्ज़ के हिन्दी संस्करण का प्रकाशन कुछ ही दिनों पहले शुरू हुआ था, और उसके सम्पादक होकर आये थे मुनीश सक्सेना. मुनीश के स्वागत में ख्वाजा अहमद अब्बास ने अपने घर पर एक परिचय-गोष्ठी आयोजित की थी. शैलेन्द्र के साथ मैं भी उस समारोह में आमंत्रित था, और वहीं पर हम लोगों ने शायद पहली बार एक दूसरे की शक्ल देखी. वापसी में शैलेन्द्र न सिर्फ अपनी गाड़ी पर मुझे अपने फ़्लैट तक पहुंचाने आया बल्कि घन्टे-दो घन्टे वहां बैठा भी, और अपनी आदत के विपरीत अपनी तीन-चार कविताएं भी उसने मुझे सुना डालीं. आकस्मिक रूप से उस दिन उसका वह सान्निध्य पाकर मुझे प्रसन्नता भी हुई थी और सन्तोश भी. मुझे लगा था जैसे फ़िल्मी माहौल में इतने दिनों रहने के बावजूद वह पूरी तरह फ़िल्मी नहीं हो पाया है. हसरत के संबंध में गंभीरतापूर्वक उस दिन शैलेन्द्र से मेरी कोई विस्तृत बातचीत नहीं हो पायी थी, लेकिन उसकी जो हलकी-फुलकी चर्चा हम लोगों के मध्य हुई थी उससे लगता था कि उस काण्ड की खासी जानकारी उसे है.

इस घटना के कुछ ही दिनों बाद मैंने स्वयं बम्बई के लेखक-पत्रकारों की एक अनौपचारिक मिलन गोष्ठी अपने घर पर आयोजित की थी, और ख्वाजा अहमद अब्बास, अली सरदार जाफ़री, नरेन्द्र शर्मा, कृशनचन्दर, राजेन्द्रसिंह बेदी, पण्डित सुदर्शन, धर्मवीर भारती, फणीश्वरनाथ रेणु, राजेन्द्र अवस्थी, कन्हैयालाल नन्दन, गुलाबदास ब्रोकर, ओंकारनाथ श्रीवास्तव और दूसरे अनेक जाने-अनजाने बंधुओं के साथ शैलेन्द्र भी उस दिन उसमें सम्मिलित हुआ था. हसरत की चर्चा जानबूझ कर उस अवसर पर मैंने नहीं होने दी थी, लेकिन चलते समय, अग बुला कर, शैलेन्द्र ने अचानक ही जो बात मेरे कानों में कही उसने अवश्य ही मुझे चिन्ता में डाल दिया था. एक अजीब सी रहस्यमय मुस्कान के आवरण में अपने चेहरे को ढकते हुए, बेहद धीमी आवाज़ में कहा था उसने मुझसे – हसरत बेहद नाराज़ है तुमसे उस मसले को लेकर, और किसी भी दिन वह कुछ कर सकता है. अच्छा यही है कि तुम उससे खूब दूर दूर रहो – आखिर भिन्डी बाज़ार का गुन्डा वह खुद भी तो है. फिर कुछ रूक कर, अपनी मुस्कान में एक अजीब सी हितचिन्ता संलग्न करते हुए उसने अपनी बात को आगे बढ़ाया था – यह बात तो, दोस्त, मैं बहुत पहले तुम्हारे कानों में डालना चाहता था, लेकिन ज्यादा राहरस्म न होने की वजह से वैसा करना मुमकिन नहीं हो पाया. ज़रा सतर्कता से रहने की ज़रूरत है, बस. और कोई बात नहीं.

शैलेन्द्र के इस अयाचित परामर्श को एकबयक मैं अस्वीकार नहीं कर पाया था. पहली नज़र में वह सुसंस्कृत भी लगता था, पढ़ालिखा भी, और कुछ यह भी जैसे उसे सचमुच मुझसे हमदर्दी हो. एक अनोखे रहस्यमय आवरण में आवृत्त होने के बावजूद उसकी मुस्कराहट में एक अनोखी स्पर्शजता थी, और उसने सहज ही मुझे अपनी परिवृत्ति में बांध लिया. उपनगरीय विभाजन-रेखा के अनुसार शैलेन्द्र हालांकि खार में रहता था और मैं सान्ताक्रुज़ में, लेकिन तब भी हम दोनों के घरों के बीच मुश्किल से एक फ़र्लांग की दूरी रही होगी. इसी से अपनी जान-पहचान को बढ़ाने में हमें किसी तरह की खास कोशिश नहीं करनी पड़ी, हम दोनों ही मौके-बेमौके एक दूसरे के यहां आते जाते रहे और हमारे नैकट्य में स्वाभाविक प्रगाढ़ता आती गयी.

 

उन्हीं दिनों शैलेन्द्र ने अपनी तीसरी कसम का निर्माण शरू किया था, जो फणीश्वरनाथ रेणु की मारे गये गुलफ़ाम नामक कहानी पर आधारित थी. फ़िल्म के निर्देशन का कार्यभार सौंपा गया था बासुदेव भट्टाचार्य को. बासु भट्टाचार्य ग़लत अंगरेज़ी ही नहीं, ग़लत हिन्दी बोलने का भी आदी था उन दिनों. जानने वाले तो यह भी बताते हैं कि बासुबाबू को बंगला बोलना भी ठीक तरह नहीं आता था – हालांकि यह बात कितनी सही थी इसे कोई बंगलादां ही बता सकता है. विश्वविद्यालय की अर्जित डिगरी ने उसकी बस इतनी मदद की थी कि उसे अच्छी तरह लिखना-पढ़ना आ गया था. तीसरी कसम के निर्देशक के रूप में भी वह पूरी तरह मस्त-मलंगा साबित हुआ. अच्छे पारिश्रमिक के साथ इतनी महत्वपूर्ण फ़िल्म का निर्देशनकार्य प्राप्त करने के बावजूद चारमीनार पीने और आनन्दकुंज के सामने वाले फुटपाथ की सुनसान पुलिया पर बैठ कर अपने साथियों के सामने दिनदहाड़े बड़ी-बड़ी गप्पें मारने की उसकी आदत तब भी नहीं जा पायी थी. अपनी फ़िल्म के लिये उसे किसी लड़की की नहीं बल्कि बड़ी-बड़ी आंखों वाली किसी खूबसूरत औरत की तलाश थी – एक ऐसी परिपक्व औरत निसकी अनुभवी आंखें किसी प्रौढ़ व्यक्ति के कुमार हृदय में पहली ही नज़र में कशमकश पैदा कर दे. उस औरत की तलाश में मेरे जैसे अपने साथियों के साथ वह गली-गली डोलता फिरा. सांताक्रुज़ से चर्चगेट तक के सभी होटलों में उसने अड्डेबाज़ियां शुरू कर दीं, और एक दिन जब किसी अनुभवी आंखों वाली औरत से चप्पलें खाने की नौबत आ गयी उसके लिये तो उसने भी हीरामन की तरह कसम खा ली – नहीं, अब किसी औरत की तलाश नहीं होगी !

उन दिनों मैं खुद भी नया नया बम्बई आया था. आते ही आते धर्मवीर भारती, मोहन राकेश, कृशनचन्दर, चेतन आनन्द, ख्वाजा अहमद अब्बास, राजेन्द्रसिंह बेदी, सुदर्शन, नरेन्द्र शर्मा, गुजराती साहित्यकार गुलाबदास ब्रोकर और ऐसे ही दूसरे जाने माने अग्रजांे ने इस गर्मजोशी के साथ मुझे अपनी बाहों में उठा लिया था कि लगता ही नहीं था कि लखनऊ जैसी चुन्नी-मुन्नी नगरी को छोड़ कर बम्बई जैसे महानगर में मैं आ गया हूं. बासु भी मेरी ही तरह चूंकि तब तक बिलकुल अकेला था, इससे आमतौर पर हर रोज़ वह मेरे फ़्लैट पर आ धमकता और हम लोग घन्टों अल्लम-ग़ल्लम चर्चा-परिचाओं में मगन रहते. वह खाना बनाने का बहुत शौकीन था और पूरे विधिविधान के साथ उसकी तैयारी करता था. मुझे याद है, एक रात खिचड़ी बनाने के इरादे से जब वह रसोईघर पहुंचा तो उसे वहां हल्दी नहीं मिल पायी. मैंने उससे कहा भी कि खिचड़ी तो बगैर हल्दी भी अच्छी-खासी बन सकती है, लेकिन उस बात को मानने से उसने पूरी तरह इंकार कर दिया. उस समय आधी रात से अधिक का समय बीत चुका था और हमारी बिलडिंग के बाहर की गुमटी के बनिए की दूकान बन्द हो चुकी थी. लाचार होकर मैंने अपने एक पड़ोसी को सोते से जगा कर उनसे थोड़ी सी हल्दी मांगी, और उसकी प्राप्ति के बाद ही बासु का चौका-चूल्हा आबाद हो पाया.

तब तक इस बात का मुझे क़तई पता नहीं चल पाया था कि बिमल रॉय की बेटी रिंकी के साथ चोरी-छिपे उसका रोमांस चल रहा है, और मामला उस सीमा तक पहुंच चुका है जहां से वापस लौट पाना सामान्यतः किसी के लिये संभव नहीं हो पाता. संगीतकार अनिल विश्वास के यहां भी बासु की अच्छी खासी राहरस्म थी, और मुझसे या शैलेन्द्र से उसे जब भी छुट्टी मिलती वह फ़ौरन ही अनिलदा की तरफ़ भाग उठता. बाद में मालूम हुआ कि अनिलदा के यहां उसके आकर्षण की सिर्फ एक चीज़ थी, और वह था उनका टेलिफ़ोन. मेरे या शैलेन्द्र के यहां तब तक टेलिफ़ोन की सुविधा सुलभ नहीं हो पायी थी, और पब्लिककॉल आफ़िस या किसी अनजान व्यक्ति के टेलिफ़ोन से अपनी प्रियतमा के साथ बातचीत करना, फिर भले ही वह वार्त्ता ठेठ बंगाल की उस बोली में क्यों न की जा रही हो जिसका ककहरा भी बम्बईवासी को नहीं मालूम, किसी के लिये भी संभव नहीं हो सकता था – बासु जैसे सम्वेदनशील प्राणी के लिये तो हरगिज़ नहीं.

लेकिन संयोग से ठीक उन्हीं दिनों जब रिंकी-बासु के यह प्रेम प्रसंग अपने पूरे यौवन पर थे मेरे यहां भी टेलिफ़ोन आ गया, और बासु ने खुद अपनी ही ओर से उसके उपयोग की पूरी छूट ले ली. अनिलदा के यहां उसे वह आज़ादी नहीं मिल सकती थी जो मेरे यहां उसे सहज ही प्राप्त थी. इसका परिणाम यह हुआ कि लाइनपार की अपनी कोठरी को छोड़ कर अपना अधिकांश समय वह मेरे ही यहां गुज़ारने लगा – दिन ही नहीं बल्कि रात का भी समय – क्योंकि टेलिफ़ोन वार्त्ता का ज्यादा लम्बा दौर रात के सन्नाटे में ही चलना मुमकिन था.

कहना चाहिए कि शैलेन्द्र से हुए अपने परिचय में जो हलकी-फुलकी दूरी मुझे दिखायी दे रही थी उसे बासु के इस सान्निध्य ने पूरी तरह काट कर रख दिया. बासु न केवल शैलेन्द्र की तीसरी कसम का निर्देशक था बल्कि उसके अलावा भी दोनों के बीच बड़ी गहरी दोस्ती थी, और उसी दोस्ती की वजह से शैलेन्द्र भी तकरीबन हर दिन किसी न किसी समय मेरे घर आ पहुंचता. आते ही आते वह भी हम लोगों के साथ ही बिलकुल नंगी ज़मीन पर जा बैठता, और फिर बगैर दूध-शकर चाय के रंगीन पानी के साथ पिछली रात या सुबह की बची हुई खिचड़ी या दाल-चावल का नाश्ता हम लोग इस शान के साथ करते मानों दुनिया की सबसे बड़ी नियामत हो वह.

अपनी उन्हीं बैठकों के बीच शैलेन्द्र को बिलकुल निकट से देखने, परखने और समझने का मौका मुझे मिला, और मैं कह सकता हूं कि वह मुझे बेहद, बेहद पसन्द आया. आनन्दकुंज के फ़्लैट नम्बर नौ में बितायी गयी कुछ बरसों की वह अवधि मेरे जीवन की सर्वाधिक स्मरणीय धरोहर है, और जैसे जैसे दिन बीतते जाते हैं वैसे वैसे उनकी कीमत भी बढ़ती जा रही है. अपनी उन्हीं बैठकों के बीच शैलेन्द्र ने न जाने कितने खट्टेमीठे किस्से मुझे सुना डाले, अपने, अपने साथियों के, शंकर के, जयकिशन के, हसरत के, राज कपूर के. उन दिनों के किस्से जब परेल मज़दूर बस्ती के घुएं और सीलन से भरी गंदी कोठरी में अपने बालबच्चों को लेकर वह आने वाली ज़िन्दगी के सपने देखा करता था, और इन दिनों के किस्से जब रिमझिम जैसे शानदार मकान और ऑस्टिन-कैम्ब्रिज जैसी लम्बी गाड़ी का स्वामी होने के बावजूद अपने रीते लमहों की आग उसे शराब की प्यालियों से बुझानी पड़ती है. — उन दिनों की याद, रामकृष्ण, सच ही भूल नहीं पाता हूं मैं. मानसिक शांति का संबंध, लगता है, धनदौलत और ऐशोआराम के साथ बिलकुल नहीं है, बिलकुल नहीं. ऐसा नहीं है अगर तो आज मुझे वह सुकून, वह चैन क्यों नहीं मिल पाता आखिर जो उस हालत में मुझे आसानी से नसीब था – आज, जब मेरे पास वह सब कुछ है जिसकी तमन्ना कोई कर सकता है – नाम, इज़्ज़त, पैसा ……

यह सब कहते कहते शैलेन्द्र अचानक ही बड़ी गंभीरता के साथ चुप हो जाया करता था और देखने लगता था मेरी आंखों की ओर, जैसे उसके सवालों का जवाब शायद वहां से उसे मिल सके. लेकिन यह स्थिति भी उसे ज्यादा देर तक बांध पाती हो, ऐसा नहीं. क्योंकि फिर जल्दी ही अपने 555 का टिन उठाते हुए वह बोल उठता – चलो, किसी होटल-रेस्त्रां में बैठ कर कुछ खाया-पिया जाये. इस तरह बैठ कर कब तक पुरानी बातों को लेकर रोते रहेंगे हम?

और फिर वह घसीट ले जाता मुझे, बासु को, और मेरे उन दूसरे संगीसाथियों को जो उस वक्त वहां पर मौजूद होते – कभी सन एन‘ सैन्ड, कभी जुहू, और कभी पवई लेक की उस चुन्नीमुन्नी चाय की दूकान पर जहां तब भी, कुमाऊं की पहाड़ियों की तरह, पीतल के चमचमाते हुए गिलासों में चाय परोसी जाती थी. तीसरी कसम फ़िल्माने की रूपरेखा वहां तय की जाती, उससे संबंधित कठिनाइयों पर बहस मुबाहसा किया जाता, और अच्छी तरह तरोताज़ा होकर जब हम लोग उसके घर रिमझिम पहुंचते, तो चोर बाज़ार से बीस-गुनी कीमत पर खरीदी गयी स्कॉच की दर्ज़नों बोतलें हम लोगों का स्वागत करते हुए वहां तत्पर मिलती. बम्बई में उन दिनों मद्यनिषेध नियमों का पूरा अनुपालन किया जा रहा था.

शैलेन्द्र को बढ़िया शराब पीने की लत थी, अगर यह कहें कि वह लत भी अपनी सीमा को पार कर चुकी थी तो कुछ गलत नहीं होगा. सूरज डूबने के साथ ही वह खुद भी शराब की प्यालियों में डूब जाता, और फिर उसकी समाप्ति तभी होती जब सूरज की रोशनी उसके बन्द कमरे के दरवाज़ों को खटखटाने लगती. रात कब, कैसे आती है, और फिर उसका खात्मा कब होता है, यह शैलेन्द्र ने अपने जीवन के मध्याह्न में कभी नहीं जाना. उस समय वह इतना बेसुध, इतना बेहाल हो जाता था कि दीन-दुनिया की कोई परवाह ही उसे नहीं रह पाती थी.

इस सन्दर्भ में एक घटना मुझे काफ़ी तेज़ी के साथ याद आ रही है. तीसरी कसम का निर्माण उन दिनों शुरू हो चुका था, और जिस रात का किस्सा मैं बताने जा रहा हूं उसके दूसरे ही दिन उसकी शूटिंग का शेड्यूल था. शाम के समय अपनी चिट्ठियां पोस्ट करने के इरादे से जब मैं सान्ताक्रुज़ एयरपोर्ट के डाकघर पहुचा तो तो अचानक की तीसरी कसम के सत्यजित राय-ख्यातिप्राप्त छायाकार सुब्रत मित्र से मेरी मुलाकात हो गयी. सुब्रत उसी समय हवाई जहाज़ द्वारा कलकत्ते से वहां पहुंचे थे और अपनी बड़ी बड़ी आंखे फाड़ कर किसी स्वागतकर्त्ता की तलाश कर रहे थे. मुझे उन्होंने देखा तो समझा कि मैं ही उस उद्देश्य से वहां आया हूं. पता चला कि पिछले ही दिन तार द्वारा वह शैलेन्द्र को इस बात की सूचना दे चुके थे कि अमुक फ़्लाइट से वह बम्बई पहुंच रहे हैं, लेकिन संयोग से वह तार शैलेन्द्र को शायद किसी ऐसे समय मिला होगा जब दीनदुनिया से बेखबर होकर वह सोने का बहाना करने में रत रहा करता था. किस्सा कोताह यह कि रात दस बजे के आसपास सुब्रत को लेकर जब मैं शैलेन्द्र के घर पहुंचा तो वह हम लोगों को पहचानने की स्थिति में भी नहीं रह गया था. उस रात, फलतः, सुब्रत को मेरे ही यहां विश्राम करना पड़ा. दूसरी सुबह शैलेन्द्र से मिलने पर पिछली रात की घटना जब हम लोगों ने उसे सुनायी तो वह उस पर विश्वास करने के लिये भी तैयार नहीं था. — मैं … मैं तुम लोगों को पहचान भी न पाऊं, यह कैसे हो सकता है भला? …. तुम झूठ बोलते हो, रामकृष्ण, झूठ ….

मुझे पता है, झूठ शैलेन्द्र बोल रहा था, मैं नहीं. एक अनजाना, मासूम झूठ, जिसके पार्श्व में कोई स्वार्थ नहीं था, कोई कमीनी हरकत नहीं थी, गलत विश्वास दिलाने का कोई प्रयास नहीं था, लेकिन तब भी वह झूठ था. काश, इतना ही सच्चा झूठ वह हमेशा बोल पाता !

लेकिन वैसा करना उसके लिये संभव नहीं हो पाया. अनेक कारण हो सकते हैं इस बात के. सबसे बड़ा और सबसे स्पष्ट कारण उसकी असमर्थता को जो था वह शायद यह कि उसके अधिकांश मित्रों की संख्या ऐसे लोगों की थी जो अपने व्यक्तिगत स्वार्थों के आवेश में सच के आवरण में झूठ लोगों के सम्मुख पेश करने के आदी होते हैं, और वह झूठ इतना मदिर और मादक होता है कि उसे सुनने वाला एकबयक उन बातों पर अविश्वास नहीं कर पाता. शैलेन्द्र भी इस तरह की बातों को सुनने का आदी था, या उसके कथित दोस्तों ने उसे उसका आदी बना दिया था. बात जो कुछ भी रही हो, उन्हीं दिनों अचानक कुछ ऐसे बंधुओं से उसका साथ पड़ा जो अनेकानेक कारणों से मेरे प्रतिरोधी थे, और जिन्हें यह बात रास नहीं आ रही थी कि शैलेन्द्र से मेरी राहरस्म इस सीमा तक बढ़े.

 

झूठ में वज़न नहीं होता. गुब्बारे की तरह वह उड़ लेता है, हवा की तरह दुनिया के रगरेशों में व्याप्त हो सकता है. सच मे गंभीरता होती है, गुरूत्व होता है. दृढ़ता के साथ अपनी जगह वह क़ायम तो रह सकता है, लेकिन अगर कोई चाहे कि अपने पंखों का प्रसार कर दुनिया के गलीकूचों में वह उड़ता फिरे तो वह उसे कदापि मान्य नहीं. इसी से हवा की ऊंचाइयों में झूठ अक्सर विजयी बना इठलाता दिखायी देता है, लेकिन सच को आप तब तक नहीं खोज सकते जब तक उस पर पड़ी हुई सात परतों को उखाड़ न डालें.

शैलेन्द्र सच-झूठ के इस अन्तर के बीच रेखाचिह्न बनाने में समर्थ नहीं हो पाया था, और इसी से अपने परिचय के उत्तरार्द्ध में हम दोनों के बीच जो खाई अकारण ही बन गयी थी उसका अन्त उसके अवसान के साथ ही हो पाया, उसके पहले नहीं.

इस स्थल पर हसरत की चर्चा मैं पुनः करता चलूं. यह मैं पहले ही बता चुका हूं कि सरिता में छपे उस लेख की वजह से वह मेरा जानी दुश्मन बन चुका था और अपने सुपरिचित स्वभाव के अनुसार अपने हर खासो-आम मिलने वाले से वह मेरी भरपूर बुराई भी करता रहता था. यों, जहां तक मेरा अपना ताल्लुक है, उसकी उन बातों को मैंने कभी ज्यादा महत्व नहीं दिया. उसके दिल की साफ़गोई पर मुझे नितान्त विश्वास था, और जैसा कि मैं पहले ही बता चुका हूं मुझे मालूम था कि जिस दिन असलियत का पता उसे चलेगा उसी दिन अपने अनचीन्हें मुखौटे को उतार कर वह पहले ही जैसा प्यारा दोस्त बन जायेगा. और हुआ भी यही. घोड़बंदर रोड से सान्ताक्रुज़ स्टेशन जाने वाली सड़क के नुक्कड़ वाली बनारसी भैया की दूकान पर एक शाम मैं लस्सी पी रहा था कि अचानक ही हसरत से वहां मेरी मुठभेड़ हो गयी. अपने तईं उसके प्रति निस्पृह ही बने रहने की कोशिश मैंने की उस समय, लेकिन मुझे आश्चर्य तब हुआ जब स्वयं मेरे पास आकर मुझे अपनी बाहों से आबद्ध करते हुए बेहद रूंआसे स्वर में वह बोला – रामकिशन भाई, यह मनमुटाव ज्यादा दिनों तक पाला नहीं जा सकता. मुझे मेरे दोस्तों ने ही घोखे में रक्खा. कहते रहे, रामकिशन तुम्हारा बुरा चाहता है, तुम्हारा दुश्मन है. लेकिन अब … अब मुझे असलियत का पता चल गया है. मुझे मालूम हो गया है कि अपने ज़ाती फ़ायदे की ख़ातिर ही मेरे-तुम्हारे बीच दुश्मनी की दीवार उन्हों ने खड़ी की ….

और सिर्फ इतना ही नहीं, खुद अपनी गाड़ी पर बैठा कर वह मुझे मेरे फ्लैट तक छोड़ गया और चलते चलते यही कहता रहा – मैं बिलकुल बेगुनाह हूं, मेरे दोस्त. भोला-भाला शायर आदमी, मैं क्या जानूं इस सब पॉलिटिक्स को? मुझे तो मेरे दोस्तों ने जो कुछ कहा उस पर मैंने सीधे यकीन कर लिया. मुझे क्या पता था कि किसी ख़ास गरज़ से यह सब किया जा रहा है ….

और, यक़ीन मानिए, जब उन दोस्तों के नाम मैंने उससे पूंछे जिन्होंने मेरे खिलाफ़ उसके कान भरे थे, तो सबसे पहले उसकी ज़बान से जो नाम निकला वह शैलेन्द्र का था !

और यह खबर एक धमाका ही थी, मेरे दिल के लिये ही नहीं बल्कि दिमाग़ के लिये भी.

मुझे याद है, उस रात मैं ठीक से सो भी नहीं पाया था. मुझे विश्वास ही नहीं हो पा रहा था कि शैलेन्द्र जैसा प्यारा हमराह इतना ज्यादा संगदिल और इतना ज्यादा संगदिमाग़ भी हो सकता है. लेकिन तभी मेरी आंखों के सम्मुख घूमने लगतीं उसकी वह रहस्यमयी, गहरी मुस्कराहटें जो हसरत का जिक्र आते ही उसके चेहरे पर खेलने लगती थीं. …. हसरत भिन्डी बाज़ार का गुन्डा है, रामकृष्ण. उसके साथ ज्यादा रब्तज़ब्त मत रखना ….

दूसरी ही सुबह शैलेन्द्र से फिर मेरी भेंट हुई थी. हलके से पिछली रात का किस्सा मैंने उसे सुना दिया. लेकिन जब मैं उसे यह बता रहा था कि हसरत से मेरी फिर दोस्ती हो गयी है, तब मैंने खासतौर पर इस बात का अनुभव किया कि उसके चेहरे पर वह ताज़गी नहीं आ पायी है जो इस खुशखबरी को सुनने के बाद स्वाभाविक रूप से आनी चाहिए थी. मैंने उससे कहा था – हालांकि मैं स्वयं इस बात पर क़तई यक़ीन नहीं करता, लेकिन हसरत का कहना है कि सरिता वाले उस लेख के खिलाफ़ तुम्ही ने उसके कान भरे थे.

शैलेन्द्र ने मेरी उस बात का कोई जवाब नहीं दिया. उसकी भावभंगिमा से ऐसा लग रहा था उस समय जैसे सुनी ही न हो उसने यह बात, या फिर सुन कर भी उसके प्रति वह उदासीन ही रहना चाहता हो. कुछ देर बाद खुद ही वह बोला था – कहां हसरत जैसे उल्लू के पट्ठों की बातों पर विश्वास करते हो तुम? और शायर भी वह क्या है आखिर? एक चश्मेबद्दूर क्या हिट हो गया समझने लगा कि दुनिया की छत पर वही बैठा है.

मैंने जवाब दिया था – तुम्हारे बारे में हसरत इस तरह की बातें करे, शैलेन्द्र, तो किसी हद तक मैं उसे मुआफ़ भी कर सकता हूं, क्योंकि उसने किसी स्कूल-कॉलेज में शिक्षा नहीं पायी, सांस्कृतिक दृष्टि से वह बिलकुल शून्य है. लेकिन तुम, या साहिर जैसे पढ़ेलिखे, सभ्य और सुसंस्कृत लोग अगर इस तरह के शब्दों का इस्तेमाल करें तो वह मेरी अक़ल के बाहर की चीज़ है. तुम्हारा शैक्षिक, सांस्कृतिक स्तर मैं उससे कहीं ऊंचा समझता हूं. वही बात हसरत के लिये क्षम्य हो सकती है, तुम्हारे लिये नहीं !

शैलेन्द्र को मेरी यह साफ़गोई शायद पसन्द नहीं आ पायी थी. उस दिन वह ज्यादा देर बैठा भी नहीं. यहां तक कि तीसरी कसम की शूटिंग में चलने का आग्रह भी उसने मुझसे नहीं किया, जिसमें उन दिनों प्रायः हम लोग साथ ही जाया करते थे.

यह घटना मेरे लिये अप्रत्याशित थी. मैं नहीं समझता था कि पूरी ईमानदारी के साथ बतायी गयी वह छोटी सी बात शैलेन्द्र को इस क़दर नागवार गुज़रेगी कि उसकी आंखों की चमक ही वह छीन ले. हसरत की वार्त्ता से अगर मैं स्तब्ध रह गया था, तो शैलेन्द्र के इस व्यवहार ने मेरे अन्तर को मथ डाला. खुद अपनी दृष्टि में अपने को मैं दोषी समझने लगा था.

शैलेन्द्र उस दिन फिर दुबारा नहीं आया, दूसरे दिन भी नही आया, तीसरे दिन भी उससे भेंट नहीं हुई. जब भी मैं उसके घर पहुंचता मालूम पड़ता कि शराब के नशे में वह घुत्त है. चौथे दिन आखिर उससे मेरी भेंट हो पायी. मैंने कहा – मेरी किसी बात से अगर तुम्हें दुःख हुआ है तो मैं मुआफ़ी का तलबगार हूं. जानबूझ कर मैंने कोई ऐसी चीज़ नहीं की जिससे तुम्हें चोट लगे, लेकिन चूंकि अपना दोस्त मैं तुम्हें मानता हूं इससे हसरत के साथ मेरी जो भी बातें हुईं उन्हें साफ़ तौर पर तुम्हें बता देना मैंने ज्यादा ठीक समझा. अगर तुम समझते हो कि वैसा करके मैंने कोई ग़लती की थी तो मुझे मुआफ़ कर दो.

— ग़लती की बात नहीं, रामकृष्ण, सेन्टीमेन्ट्स की बात है. तुम्हें अपना हितैषी मैं समझता हूं, इसी से मुझे दुःख भी हुआ…. मुझे तो खुशी हुई थी जब पहली बार अब्बास साहब के यहां मैं तुमसे मिला था. मैं अब भी समझता हूं कि बम्बई के हिन्दी हलकों में, खास तौर पर फ़िल्मी दुनिया के हिन्दी हलकों में, तुम्हारे आने से एक नया जोश-खरोश पैदा हुआ है. उसमें तुम्हें किसी तरह की रूकावट नहीं लानी चाहिए ..

धीरेधीरे उसके चेहरे पर फिर वही पुरानी हंसी फिर खेलने लगी थी. उसी में बहते हुए वह बोला था – तुम क्या यह समझते हो कि मैं कम चिन्तित था इन सब बातों को लेकर? तीन दिनों से, दोस्त, मैंने पिया ही पिया है, खाया कुछ भी नहीं. तुम खुद यहां आ गये, यह अच्छा ही हुआ. अब चलो कहीं पेट भरें चल कर.

और यह कहते हुए वह अपने प्रिय सन एन‘ सैन्ड मुझे घसीट ले गया था.

सन एन‘ सैन्ड में उस दिन हम लोग तीन-चार घन्टे बैठे रहे थे. तीसरी कसम की बातें वह करता रहा, रेणु-बासु की बातें करता रहा, और इस सबके सन्दर्भ में अपनी परेशानियों का उल्लेख भी करता रहा. हसरत मियां की चर्चा भी आती जाती रही. फिर बोला – तुम्हें पता नहीं, हसरत हर जगह मुझे काटने की कोशिश करता रहा है. अब यही गाइड को ही ले लो. पहले देव ने मुझसे उसके गाने लिखने के लिये कहा था, अब सुनते हैं कि हसरत ने वहां अपना सिक्का जमा लिया है…..तुम्हीं बताओ, ऐसी हालत में किस मुंह से उसे अपना दोस्त कहूं मैं?

 

गाइड का निर्दंशन उन दिनों चेतन आनन्द करने वाले थे, और शैलेन्द्र को पता था कि चेतनजी के साथ मेरी अच्छी राहरस्म है. इसी से उसने मुझसे कहा – यार, चेतनजी से कह कर मेरी टिप्पस वहां भिड़वा दो तो तुम्हारा बड़ा आभार मानूंगा मैं. इन्टरनेशनल फ़िल्म है, नाम भी मिलेगा और अच्छा-खासा पैसा भी. …. फिर, तुम्हीं सोचो, हसरत उसके लिये लिख भी क्या पायेगा भला?

संयोगवश उसी शाम खुद अपने किसी काम के सिलसिले में चेतनजी स्वयं मेरे घर पर आ गये. हलके-फुलके तरीके से शैलेन्द्र वाली बात मैंने उनके सामने रक्खी. उन्होंने मुझसे कहा – मैं खुद चाहता हूं कि गाइड के गाने शैलेन्द्र ही लिखें, लेकिन देव हसरत को चाहता है. वैसे मैं कोशिश करूंगा. ….

उस समय चेतनजी बांदरा जा रहे थे, शायद महबूब स्टूडियो. शैलेन्द्र का घर रास्ते में ही पड़ता था, इससे जानबूझ कर मैं चेतनजी के साथ हो लिया. गाड़ी जब शैलेन्द्र के घर के मोड़ पर पहुंची तो चेतनजी को रोकते हुए मैंने उनसे कहा – क्यों न दो मिनट के लिये शैलेन्द्र को भी देख लें हम लोग? किन्हीं बातों को लेकर वह मुझसे किंचित नाराज़ है, और अगर आप मेरे साथ उस तक चलेंगे तो उसकी नाराज़गी काफ़ी सीमा तक दूर हो सकेगी.

चेतनजी ने इंकार नहीं किया, लेकिन रिमझिम की सीढ़ियों पर चढ़ कर जब हम लोग शैलेन्द्र के कमरे में पहुंचे तो पता चला कि वह खुद कहीं बाहर गया हुआ है. उसकी पत्नी से मैंने ज़रूर कह दिया कि शैलेन्द्र के लौटने पर वह उसको बता दे कि हम दोनों उससे मिलने के लिये आये हुए थे.

उसी रात दस-ग्यारह के आसपास शैलेन्द्र मेरे पास पहुंचा. आभारपूरित भावनाओं के साथ उसका स्वर डबडबाया हुआ था. आते ही उसने कहा – तुम्हारी मदद रही, मित्र, तो गाइड का काम मुझे ज़रूर मिल जायेगा. मुझे तुम्हारे प्रयत्नों पर विश्वास है.

लेकिन, कारण जो कुछ भी रहा हो, उस समय गाइड में उसे काम नहीं मिल पाया, और उस बात का जितना अफ़सोस उसे हुआ होगा उससे कहीं ज्यादा मुझे हुआ. हसरत की बनिस्बत शैलेन्द्र को, एक गीतकार के रूप में, हमेशा मैंने ज्यादा मान दिया था, और तमाम गलतफ़हमियों और आपसी तनाव के बावजूद उस समय भी मेरी यह दृढ़ मान्यता थी कि गाइड जैसे भारतीय भावभूमि पर आधारित चित्र के गीतलेखन के लिये हसरत की अपेक्षा शैलेन्द्र कहीं ज्यादा उपयुक्त है. बाद में हसरत का पत्ता कैसे उस फ़िल्म से कटा और कैसे देव आनन्द को शैलेन्द्र ने इस बात के लिये राज़ी कर लिया कि उस फ़िल्म की गीतरचना का काम उसके सिपुर्द वह करे यह एक लम्बी कहानी है, लेकिन इतना तय है कि अपनी उस शुरू की असफलता का अच्छा-खासा दोश शैलेन्द्र ने मेरे ऊपर ही डाला और मौके-बेमौके यह आरोप लगाने से भी वह नहीं चूका कि झूठी आशाओं में फंसा कर मैंने न सिर्फ उसे धोखा देने की कोशिश की है बल्कि गाइड के गीतकार के रूप में हसरत की स्थिति को सुदृढ़ करते हुए उसके साथ मैंने पूरा पक्षपात किया है.

यह बात यों शायद मुझे न मालूम होती. लेकिन उन्हीं दिनों धर्मवीर भारती ने धर्मयुग के लिये एक ऐसा साप्ताहिक स्तम्भ तैयार करने के लिये मुझसे कहा जिसमें फ़िल्म की विभिन्न विधाओं से संबंधित उल्लेखनीय व्यक्ति स्वयं अपनी ओर से अपने क्षेत्र के गुण-दोषों के बारे में कुछ कहे, और अपने प्रस्तावित लेखकों की सूची में शैलेन्द्र का नाम जब मैंने सबके ऊपर रक्खा तो किंचित आश्चर्य के साथ भारती ने मुझसे कहा था – शैलेन्द्रजी तो हर किसी से तुम्हारी बुराई करते फिर रहे हैं उस गाइड वाली बात को लेकर. ऐसी हालत में तुम्हारे लिये कुछ लिखने के लिये तैयार भी होंगे क्या वह?

वैसे मुझे पहले से इस बात का हलका सा शक था कि उस मसले को लेकर शैलेन्द्र का मन मेरी ओर से पूरा साफ़ नहीं है, लेकिन वह बात इस सीमा तक बढ़ चुकी है ऐसा मैं हरगिज़ नहीं समझता था.

तब भी मैंने भारती को जवाब दिया था – शैलेन्द्र मेरा मित्र है, भारतीजी, और हम लोगों की दोस्ती इतनी कच्ची नहीं जो इतनी छोटीमोटी, बेबुनियाद बातों को लेकर छुईमुई हो जाये. मैं उसी से इस स्तम्भ की शुरूआत करवाऊंगा और वह उसे बगैर किसी शक लिखेगा. …. जहां तक बुराई करने का सवाल है, मैं समझता हूं कि अपने असामान्य माहौल में ही उसने वह सब किया होगा, सही हालत में नहीं.

स्तम्भ का शीर्षक हम लोगों ने चुना था – मुझे यह कहना है, और अगले महीने से ही उसकी शुरूआत होनी थी. लेकिन दूसरी बड़ी बड़ी पत्रिकाओं की तरह धर्मयुग की शेड्यूलिंग भी चूंकि महीने-डेढ़ महीने पहले ही बन जाया करती थी इससे सप्ताह भर के अन्दर ही उस स्तंभ का पहला आलेख मुझे भारती को दे देना था. शैलेन्द्र से मैंने उसकी चर्चा की, और वह फ़ौरन मान भी गया. उसने कहा – अगली सुबह तक लेख मुझे निश्चित ही मिल जायेगा.

लेकिन अगली हर सुबह मैं शैलेन्द्र के द्वार खटखटाता रहा, और हर बार उसकी अगली सुबह लेख देने की उम्मीद वह दिलाता रहा. इधर धर्मयुग का मैटर प्रेस में रूका पड़ा था. दिन भर में पांच-छः बार उसके सम्पादकीय विभाग के टेलिफ़ोन की घन्टियां मेरे यहां आती रहतीं – सामग्री जल्दी भेजो. शैलेन्द्र को जब भी तत्संबंध में मैं याद दिलाता वह यही कहता – यार, सुबह से तो कागज़-कलम हाथ में लेकर बैठा हुआ हूं. दिमाग़ में कोई बात जम ही नहीं पाती तो लिखूं भी क्या आखिर?

मैं समझता हूं, यह सब कहते-सुनते कम से कम सात-आठ दिन का समय बीत चुका होगा. आखिर में तय हुआ – तय क्या हुआ शैलेन्द्र ने स्वयं ही उसकी तज़वीज़ की – कि घर के माहौल में तो लेख शायद कभी नहीं लिखा जा सकेगा. अच्छा हो, सन एन‘ सैन्ड में एक दो दिनों के लिये कोई कमरा हम बुक करवा लें. वहां सुकून भी मिल सकेगा और अपेक्षित माहौल भी. उस माहौल में पहुंच कर ही क़लम के लिये आगे बढ़ना संभव हो पायेगा शायद.

खयाल करने की बात है कि उन दिनों भी सन एन सैन्ड में दो दिन रहने का बिल कम से कम चार-पांच सौ रूपये तो आता ही, और उस लेख के एवज़ में धर्मयुग से जो पारिश्रमिक उसे मिलता उसकी राशि होती अधिक से अधिक साठ-सत्तर रूपये. लेकिन उस तथ्य की ओर शैलेन्द्र का ध्यान जब मैंने आकृष्ट किया तो वह सिर्फ घीरे से मुस्करा भर दिया था. — यह फ़िल्मी दुनिया है, रामकृष्ण — कुछ देर रूकने के बाद उसने मुझसे कहा था — यहां महीनों ऐसे होटलों में पड़ा रहा जाता है और उसके बदले में एक लाइन भी नहीं लिखी जाती. फिर तुम्हारे लिये तो मुझे पूरा पन्ना तैयार करना है ….

और उसने सचमुच सन एन‘ सैन्ड के नम्बर को डायल कर दो दिनों के लिये एक एयर-कन्डीशन्ड सुइट का आरक्षण करा डाला.

 

सन एन सैन्ड बम्बई के अभिजातवर्ग का उन दिनों अकेला ऐशगाह था – ताड़ और नारियल के सुरम्य वृक्षों से पूरी तरह आच्छादित और जुहू समुद्र के बिलकुल किनारे. तब जुहू का अंचल मात्र उसके चर्च तक सीमित था और उसके बाद गांधीग्राम और रूइया-आइरिस पार्का के छोटे से इलाके को छोड़ कर शुरू हो जाती थी मछुआरों और कोल-भीलों की बस्ती. बी.ई.एस.टी. की सिर्फ़ एक बस सान्ताक्रुज़ स्टेशन से जूहू चर्च तक दिन भर चक्कर लगाती रहती थी उन दिनों. वहां उस समय तक न कोई बहुमंज़िली इमारत बन पायी थी और न थी पॉश इलाकों जैसी कोई चहलपहल. सेठ जमनालाल बजाज द्वारा अपनी स्वर्गता पत्नी जानकीदेवी की स्मृति में बनवाये गये जानकीकुटीर नामक परिसर में घासफूस से बनी छोटी मोटी झोपड़ियां ज़रूर थीं, जहां किसी ज़माने में महात्मा गांधी स्वास्थ्य-लाभ कर चुके थे. लेकिन तब तक न पृथ्वीराज कपूर वहां अपना झोपड़ा बनवा पाये थे, न पृथ्वी थिएटर का चर्चित प्रेक्षागृह निर्मित हो पाया था, और न मीनाकुमारी वहां रहने आ पायी थीं. हां, शबाना आज़मी अपने अब्बाहुज़ूर कैफ़ी आज़मी के साथ वहां ज़रूर रहती थी, लेकिन तब वह सेन्ट ज़ेवियर्स कॉलेज की छात्रा भर थी और फ़िल्मी दुनिया में उसका प्रवेश नहीं हो पाया था. नामी फ़िल्म स्टारों के नाम पर उस इलाके में उन दिनों मात्र बलराज साहनी रहते थे, और जे.वी.पी.डी. स्कीम का वह अंचल जहां बाद में धर्मेन्द्र, अमिताभ बच्चन, हेमा मालिनी, मनोजकुमार और शत्रुघ्न सिन्हा जैसे सितारों ने अपने शानदार बंगले और कोठियां बनवायीं पूरी तरह वीरान और घुटनों-घुटनों तक के समुद्री दलदल से भरपूर था.

आज तो न केवल बम्बई बल्कि स्वयं जुहू के आसपास मंहगे से मंहगे पंचतारा होटलों की भरमार हो चुकी है, लेकिन उन दिनों धुर-दक्षिण के व्यावसायिक इलाके में अवस्थित ताजमहल होटल के अतिरिक्त सन एन‘ सैन्ड ऐसा अकेला होटल था जिसमें खाना-पीना रहना-ठहरना लोग स्टेटस सिम्बल मानते थे. मंहगी से मंहगी दरों के बावजूद उसके कमरे आसानी से खाली नहीं मिलते थे, खासतौर पर इतवार और छुट्टी के दूसरे दिनों. लाखों-करोड़ों से खेलने वाले मिल-मालिक, महानगर के शीर्षस्थ महाजन, और उनके नवधनाढ्य बेटे-पोते हीरेमोतियों से लदीफंदी अपनी महबूबाओं के साथ उन दिनों वहां पनाह लिया करते थे और अपने व्यस्ततम कार्यक्रमों के बीच हंसीखुशी के दो क्षण वहां बिता कर अपनी नीरस जिन्दगी को तुष्ट और तृप्त करने की कोशिश करते थे. फ़िल्मी दुनिया के लोगों के लिये तो वह होटल मक्का-मदीना और पेरिस-मांटेकार्लाे सभी कुछ रह चुका है. रात के आलम में तो वह जगह सचमुच इन्द्रलोक के नन्दन कानन के रूप में परिवर्त्तित हो जाती थी, जब आंखों के सामने दिखायी देता था अनन्त विस्तार में फैला हुआ गहरा, नीला समुद्र, और सिर के ऊपर उसी रंग के आकाश का असीम चंदोवा. समुन्दर का पानी उस समय अपनी द्रुत लहरों के माध्यम से अगर एक अनोखे कर्णप्रिय संगीत का सृजन करता था तो आकाश में छिटके छोटेछोटे तारों को निहार कर भ्रम होता था जैसे हमारे सामने कोई सद्यःसज्जित वधू आ खड़ी हुई हो – अपने रत्नजटित अलंकारों के साथ. और रात की उस हलकी-नीली रोशनी में रम्बासम्बा और जाज़ की मनमोहक धुनों की संगत पर नर्त्तन करती अर्द्धवस्त्रा बारबनिताओं के मनहर पदचाप एक ऐसा समा बांध देते थे कि आदमी के सामने उनके बीच पूरी तरह खो जाने के अलावा कोई पर्याय नहीं बच पाता था.

मुझे अब भी पता नहीं, शैलेन्द्र उन पदचापों के बीच खोया था या नहीं. लेकिन दूसरी सुबह जब वह मेरे पास आया तो उसकी आंखें शराब के नशे से पूरी तरह चूर हो रही थी और पैरों की लड़खड़ाहट से ़

इस बात का आभास होता था जैसे पूरी रात पीने के अलावा उसे कोई भी दूसरा काम करने की फुरसत नहीं मिली. आते ही एक अजीब सी तल्खी भरे लहज़े में उसने मुझसे पूंछा था – यह तुमने मेरे घरवालों को बताया था कि मैं सन एन‘ सैन्ड में हूं?

— हां, लेकिन क्यों? — मैंने आश्चर्य प्रकट करते हुए उसे जवाब दिया था — भाभी बेहद परेशान थीं तुम्हारे न लौटने पर. उन्होंने राजजी (राज कपूर) के यहां पूंछतांछ की, शंकर (जयकिशन) से पता लगाया. मेरे यहां भी कल आधी रात के बाद उनका कोई आदमी आया था, लेकिन उस समय मैं घर पर नहीं मिला. अभी कुछ ही देर पहले जब उन्होंने फिर पूंछताछ की तो मैंने उनको बता दिया कि तुम्हें सन एन सैन्ड में होना चाहिए. वहीं तो थे न तुम? … कल रात भारतभूषशण से भी मेरी मुलाकात हुई थी. उन्होंने भी तुमको वहां देखा था. क्यों, क्या बात हो गयी आखिर?

— कोई भी बात हो, तुमसे मतलब? — अपनी उसी भावभगिमा में वह कहता रहा — तुम क्या यह समझते हो कि तुम्हारे उस पचास रूपल्ली वाले लेख के लिये पांच सौ का कमरा मैंने बुक कराया था?

— कहा तो तुमने यही था. — मैंने जवाब दिया, लेकिन स्थिति की विस्फोटकता उस समय भी मेरे लिये पूरी तरह अनजानी थी.

— ख़ाक कहा था. — उसी तीव्रता से वह बोला. लेकिन दूसरे ही लमहे कुछ नरमी का आभास उसके चेहरे पर दिखायी देने लगा था. — कुछ तो अक़ल से काम लिया करो, रामकृष्ण. काम के वक्त इस तरह के डिस्टरबेंसेज़ मैं हरगिज़ पसन्द नहीं करता. — उसने कहना ज़ारी रक्खा — तुम्हारा लेख गया अब. वह कभी पूरा नहीं हो सकता.

— लेकिन अभी अभी, दो मिनट पहले नन्दन का टेलिफ़ोन आया था धर्मयुग से….

— भाड़ में जायें नन्दन, और भाड़ में जाये धर्मयुग. मुझे कुछ नहीं लिखना-लिखाना है …. मज़ाक की भी एक हद होती है ….

— और वह मज़ाक तुमने किया है, शैलेन्द्र, मेरे साथ. — मैंने काफ़ी गरमी के साथ उसे जवाब दिया था.

शैलेन्द्र कुछ बोला नहीं, लेकिन उसकी मुखमुद्रा से स्पष्ट लग रहा था जैसे उस समय वह बेहद परेशान है, जैसे उसके सपनों की रेशमडोर अचानक ही कट कर रह गयी हो और सर्वथा पंखहीन होकर वह एकाएक धरती पर आ गिरा हो. मेरे पास फिर वह रूका भी नहीं, बगैर किसी दुआ-सलाम अपनी ऑस्टिन-कैम्ब्रिज पर चढ़ कर वह बाहर निकल गया. मुझे यह पता नहीं कि मेरे यहां से वह अपने घर लौटा था या दुबारा सन एन‘ सैन्ड के अपने आशियाने में, बहरहाल इतना ज़रूर याद है कि धर्मयुग के उस स्तम्भ की शुरूआत मैंने बासु भट्टाचार्य के लेख से करायी थी, और फ़िल्मी दुनिया में न सिर्फ वह बेहद पसन्द किया गया था बल्कि उसकी चर्चा भी पर्याप्तरूप से हुई थी. बाद में उस स्तम्भ में जगह पाने के लिये लोगों में जैसे होड़ सी लग गयी. पृथ्वीराज कपूर, के.एन. सिंह, मजरूह सुलतानपुरी, रोशन, साहिर लुधियानवी, केदार शर्मा, जांनिसार अख्तर, बलराज साहनी, बी.आर.चोपड़ा और उनके प्रख्यात छायाकार महेन्द्रनाथ मलहोत्रा ऐसे लोगों में प्रमुख थे जिन्होंने आग्रहपूर्वक उसके लिये अपने विचार लिपिबद्ध किये, और फिर हिन्दी फ़िल्मों के गुणदोषों पर बाकायदा एक प्रायोजित बहस-मुबाहिसा चल निकला.

 

 

साहित्य की तरह फ़िल्मी दुनिया में भी अगर भूखी या विक्षुब्ध पीढ़ी का अस्तित्व है, तो बासुदेव भट्टाचार्य – कम से कम उस ज़माने में – निस्संकोच उस पीढ़ी का सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि माना जा सकता था. तीसरी कसम जैसी लम्बी स्टारकास्ट वाली फ़िल्म का निर्देशक होने के बावजूद तब तक वह सिर्फ़ चारमीनार बीड़ियों का कश लेना सीख पाया था, मात्र लुंगी-कुरते की पोशाक पहने हुए बड़ी से बड़ी दावत-पार्टियों के बीच उसे आप आसानी से देख सकते थे, अनगिनत किताबों, पत्रपत्रिकाओं से लदीफंदी बापू निवास की अपनी छोटी से कोठरी में आसन जमा कर घन्टों हिन्दी और बंगला और अंगरेज़ी और फ्रंेच कवियों और उनके द्वारा रचित साहित्य की सूक्ष्मतम समीक्षा-परीक्षा करना उसकी हॉबी थी, और लौकिक लाभहानि को अपने जीवन की मान्यताओं का आधारबिन्दु बनाना अपने उन शुरू के दिनों में भी वह स्वीकार नहीं कर पाया था जब आर्थिक दृष्टि से उसकी हैसियत शून्य के बराबर थी.

बासु के फ़िल्मी जीवन की शुरूआत बिमल रॉय की परख से हुई थी. जब वह पहले पहल बम्बई आया तब परख शायद अपने निर्माण के अन्तिम दौर में थी, लेकिन मात्र तीसरे या चौथे असिस्टेंट के रूप में बिमल रॉय के साथ सम्बद्ध होकर जिस तेज़ी के साथ वह उनके ऊपर अपना सिक्का जमाने में समर्थ रहा वह सच ही उसकी आश्चर्यजनक उपलब्धि मानी जायेगी. परख के परदे पर प्रदर्शित होने के पूर्व ही न केवल बिमल रॉय उसे अपना अत्यंत निकटवर्त्ती सहयोगी मानने लगे थे बल्कि चोरी-छिपे उनकी बेटी भी उसके प्रेमपाश में इस तरह बंध कर रह गयी थी कि उसका अन्त पूर्ण समर्पण की जगह दूसरा कुछ होना ही असंभव था.

तीसरी कसम के निर्दंशक के रूप में शैलेन्द्र के साथ सम्बद्ध होने के पूर्व ही बासु-रिंकी का यह प्रेम प्रसंग अपनी चरम परिणति छू चुका था या उसके बाद उसमें गति आयी, यह मुझे नहीं मालूम, लेकिन जहां तक शैलेन्द्र का ताल्लुक है उन दोनों के इस प्रेम-प्रकरण से उसे कोई प्रसन्नता नहीं थी. बिमल रॉय और उनकी यूनिट के साथ शैलेन्द्र का पुराना घरोपा था. सुजाता, परख, मधुमती जैसी बिमल रॉय की प्रायः सभी सफल फ़िल्मों के गीत शैलेन्द्र ने ही लिखे थे, और उन गीतों की रसमाधुरी ने एक ओर जहां खुद उन फ़िल्मों की लोकप्रियता में चार चांद लगाये थे, वहीं उस सफलता से शैलेन्द्र के अपने बाज़ार भाव में भी काफ़ी उभार आया था. ऐसी अवस्था में एक ऐसे व्यक्ति से सान्निध्य-सम्पर्क रखना जो न केवल प्रत्यक्षरूप से बिमल रॉय के प्रतिपक्ष में चला गया हो बल्कि उनकी अपनी बेटी को भी हड़पने की चेष्टा में रत हो, सामाजिक दृष्टि से ही नहीं बल्कि आर्थिक दृष्टि से भी शैलेन्द्र के लिये काफ़ी भारी पड़ रहा था. बिमल रॉय ने इस मसले को लेकर शैलेन्द्र को कई बार मिलने के लिये भी बुलाया, और उसके परिणामस्वरूप बासु को भी शैलेन्द्र ने काफ़ी समझाने बुझाने की कोशिश की, लेकिन सफलता के नाम पर एक बड़े प्रश्नचिह्न के अलावा उसे कुछ नहीं मिला. ज़ाहिर है कि इस घटना-प्रक्रिया का अच्छा प्रभाव बिमल रॉय पर नहीं पड़ा, और शनैःशनैः शैलेन्द्र के साथ उन्होंने पूरी तरह अपने संबंध तोड़ डाले. यहां तक कि बन्दिनी के आखरी गीत को, जो अनुबंध के अनुसार शैलेन्द्र को ही लिखना था, उन्होंने अपेक्षाकृत नये गीतकार गुलज़ार से लिखवाया, और शैलेन्द्र को इस बात की सख्त ताईद कर दी कि वह उनसे मिलने-जुलने की चेष्टा न करें.

इसी बीच एक दिन तीसरे पहर मैंने पाया कि रिंकी को साथ लेकर बासु मेरे द्वार पर दस्तक दे रहा है. तब तक नज़दीक से मैंने रिंकी को कभी नहीं देखा था, दूरदूर से ही उसकी छवि निहारने को मिली थी. दुबली पतली, अपेक्षाकृत कुछ लम्बे कद की छरहरी युवती थी वह. उसके मुखड़े से गज़ब का आत्म विष्वास प्रवाहित हो रहा था उस समय भी. लेकिन खिली, खुली, मुखर और जीवन्त होते हुए भी किंचित मितभाषी वह मुझे प्रतीत हुई. वह मौका ही शायद ऐसा था जिसमें ज्यादा बोलना-बतियाना किसी के लिये आसान चीज़ नहीं थी. कमरे में बैठने-बैठाने के पहले ही बासु बोल उठा — दोपहर कॉलेज-गेट पर अचानक ही रिंकी से मुलाकात हो गयी. मैंने यों ही पूंछ लिया — मेरे साथ चल रही हो न? जबाब में यह बोली — चलो. मैंने फिर कहा — बिमलदा तुम्हारी इस बात से कितना नाराज़ होंगे, इस बात का कोई अन्दाज़ा है क्या तुम्हें? इस पर यह बोली — अब जिसके साथ पूरी ज़िन्दगी बितानी है उसका हुक्म तो मानना ही होगा. फिर मेरे किसी जवाब का इन्तज़ार किये बिना यह मेरे साथ हो ली. ऐसी किसी हरकत की तो मुझे सपने में भी कोई उम्मीद नहीं थी. अब एक तरफ़ तो मेरा दिल इस तरह बल्लियों उछल रहा है जैसे अचानक मुझे क़ारूं का खजाना मिल गया हो, और दूसरी ओर मुझे यह बात समझ में नहीं आ रही कि अब इसे लेकर जाऊं भी तो आखिर कहां? अपनी कोठरी में तो इसे ले जाने से रहा, इससे तुम्हारे यहां आने की ज़रूरत पड़ गयी. अब बोलो, क्या मदद कर सकते हो मेरी?

मैंने जवाब दिया था — जिस तरह तुम्हारा यह घर है, बासु, उसी तरह रिंकी का भी है. वह जब तक चाहे खुशी से यहां रह सकती है. लेकिन जैसा तुम भी स्वीकार करोगे, यह जगह उतनी सुरक्षित नहीं है. बिमलदा किसी भी समय अपने आदमियों को यहां भेज सकते हैं, और तब हम तीनों ही मुसीबत में पड़ जायेंगे. अच्छा हो अगर रिंकी को लेकर कुछ दिनों के लिये तुम बम्बई के बाहर चले जाओ. इसके अलावा मुझे कोई दूसरा पर्याय नज़र नहीं आता.

तय हुआ कि टैक्सी मंगा कर दोनों उसी वक्त स्टेशन चले जायें, और वहां पर जहां के लिये जो भी गाड़ी मिले उस पर सवार होकर तत्काल शहर छोड़ दें. बासु ऐसा करने में कुछ हिचकिचा रहा था, लेकिन जब रिंकी ने भी मेरे प्रस्ताव पर कोई आपत्ति नहीं प्रकट की तो उसे वैसा करने के लिये मजबूर होना पड़ गया. दोनों को साथ लेकर मैं स्वयं सेन्ट्रल स्टेशन गया और वहां सूरत जाने वाली जो पहली गाड़ी मुझे दिखायी दी उसके एक खचाखच भरे हुए एक डिब्बे में खिड़की के रास्ते मैंने उनको अन्दर ढकेल दिया. उससे अधिक सुरक्षित कोई दूसरी जगह उस समय मुझे नहीं दिखायी दी थी.

लेकिन दोनों ही अपनी दो रातें सूरत में बिताने के बाद तीसरे दिन जब बम्बई वापस लौटे तो रात के अंधेरे में भी विरार स्टेशन पर बिमलदा के लोगों ने उनको पहचान लिया और उग्र प्रतिरोध के बावजूद रिंकी को घर ले जाने में उन्हें सफलता मिल गयी. विरार स्टेशन वह सुबह लगभग तीन बजे पहुंचे थे. वहां से बोरिवली तक लोकल ट्रेन और फिर टैक्सी द्वारा उनका सीधे मेरे घर आने का इरादा था. वस्तुतः जब से रिंकी गायब हुई थी तभी से बिमलदा ने बम्बई के हर रेलवे स्टेशन, हर बस टर्मिनल और एयरपोर्ट पर अपने आदमी लगा रक्खे थे और वहां आने-जाने वाले प्रत्येक व्यक्ति पर उनकी ख़ास नज़र रहती थी. ऐसी अवस्था में किसी के लिये भी उनकी आंखों से बच निकलना आसान काम नहीं था.

इस घटना के तीसरे या चौथे दिन अंधेरी के मोहन स्टूडियो में लगे हुए तीसरी कसम के विशाल सेट को पूरी तरह वहां से हटाने का निर्देश देते हुए बिमल रॉय ने स्टूडियो अधिकारियो को जब यह आदेश दिये कि शैलेन्द्र या शैलेन्द्र की फ़िल्म-निर्माण संस्था इमेज मेकर्स का कोई सदस्य शूटिंग के नाम पर स्टूडियो-गेट के अन्दर क़दम भी न रखने पाये, तो शैलेन्द्र को ख़ासी से ज्यादा परेशानी का सामना करना पड़ गया. बिमल रॉय मोहन स्टूडियो के प्रमुख भागीदार थे, और उनके आदेशों का उल्लंघन करना स्टूडियो के किसी भी अधिकारी के बस की बात नहीं थी. उनकी यह निषेधाज्ञा भी प्रत्यक्षतः बासु को लेकर ही थी, और इसमें शक नहीं कि शैलेन्द्र अगर उस समय भी बासु के साथ अपना सम्बन्ध विच्छेद करने के लिये तैयार हो जाता तो इस बात की नौबत शायद न आ पाती. वैसे बिमल रॉय के इस परोक्ष प्रस्ताव को लेकर उसके मन में कोई उथल-पुथल न हो, ऐसी बात भी नहीं थी. मुझसे ही नहीं अपने कई दूसरे संगी-साथियों से भी दबी ज़बान में इस बात की चर्चा वह कर चुका था, और अपनी अन्तरात्मा पर उसका बस चलता तो शायद बासु को अपनी फ़िल्म से वह अलग भी कर देता. उन दिनों वह खुलेआम कहा करता था – तीसरी कसम के बाद किसी दूसरी फ़िल्म का निर्माण मैंने हाथ में लिया तो उसका निर्देशन मैं स्वयं करूंगा. और उसकी इन घोशणाओं के पार्श्व में बासु के प्रति उसके उस आन्तरिक आक्रोश का ही प्राबल्य था जिसे अपनी ढिलमिल और सम्भ्रमपूर्ण आदतों की वजह से वह खुल कर अपने होठों पर नहीं ला पाता था.

मुझे वह दिन अच्छी तरह याद है – 1962 का 30 दिसम्बर था वह. समय होगा रात के आठ-नौ बजे का. बासु उस समय रिंकी के साथ अपनी कभी न ख़तम होने वाली टेलिफ़ोन-वार्त्ता में संलग्न था, और मैं कैरेवान के लिये उस वर्ष प्रदर्शित फ़िल्मों की सालाना समीक्षा लिखने में. एकाएक शैलेन्द्र की गाड़ी एक झटके के साथ मेरे फ़्लैट के सामने आकर रूकी, और उसमें से उतरा पूरी तरह घबड़ाया और बदहवास सा शैलेन्द्र. मैंने सुना, दरवाज़े के बाहर से ही उसने चिल्लाना शुरू कर दिया था — गज़ब हो गया बासु, रामकृष्ण. बिमलदा ने मोहन स्टूडियो में शूटिंग करने की मनाही कर दी है. अब क्या होगा, यह तुम्हीं लोग बताओ. वहीदा कल सुबह सात बजे सेट पर पहुंच जायेगी. महीनों इन्तज़ार करने के बाद कल की डेट मिल पायी थी उससे. क्या करूं अब और क्या न करूं, कुछ समझ में नहीं आता.

और यह कहते हुए चारखानेदार रेशमी लुंगी और मटमैले रंग के सूती कुरते में लिपटा हुआ वह वहीं, सादी ज़मीन पर, घम्म से बैठ गया था.

शैलेन्द्र को दिल की बीमारी कभी रही या नहीं इसका मुझे पता नहीं, लेकिन इसमें शक नहीं कि बिलकुल मामूली मामूली बातों को लेकर वह इस क़दर घबड़ा जाया करता था कि हैरत होती थी कि बम्बई जैसी संघर्ष और समस्याओं से भरीपूरी नगरी में वह इतने दिनों से ज़िन्दा कैसे रह पा रहा है? ऐसी ज़रा ज़रा सी बातें जिनका हम-आप जैसे लोगों के लिये किंचित महत्व नहीं होता, उसके मन-मस्तिष्क को पूरी तरह झकझोर कर रख जाती थीं. बदनामी और आलोचना से तो खासतौर पर वह बेहद डरता था. और बिमल रॉय के ऊपरोक्त आदेश के कार्यान्वयन पर इन्डस्ट्री ही नहीं उसके बाहर के क्षेत्रों में भी उसकी जो बदनामी होती उसकी संभावनाएं उसकी आंखों में उस वक्त इस तरह हिलडोल रही थीं जैसे वह आंखें न होकर सिनेमा की स्क्रीन हो.

हम सबके लिये यह एक अप्रत्याशित सम्वाद था. उसी सुबह हालांकि बासु और बिमलदा के बीच अच्छी-खासी झड़प हो चुकी थी और उस झड़प के बीच मेरी नयी रेशमी कमीज़ भी जिसे भूल से बासु उस दिन पहन गया था चिथड़े-चिथड़े होकर वापस लौटी थी, लेकिन नौबत इस सीमा तक पहुंच जायेगी इसका अन्देशा न मुझे दा, न बासु को और न ही शैलेन्द्र को. वैसे उस स्थिति में सवाल इस बात का नहीं बच रहा था कि बिमल रॉय को कैसे मनाया जाये. उसकी तो संभावनाएं ही पूरी तरह बिखर चुकी थीं. पुलिस और कोर्ट-कचहरी की मदद से ज़रूर उन्हें नीचा दिखाया जा सकता था – कानूनन उन्हें कतई इस बात का अधिकार नहीं था कि वह किसी के लगे-लगाये सेट को स्टूडियो से हटवा दें – लेकिन वैसा करने पर जो व्यावहारिक कठिनाइयां सामने आतीं उनसे आंख मूंदना भी संभव नहीं था. फिर निकट भविष्य में ही बासु के साथ उनके जो पारिवारिक संबंध बनने वाले थे उन्हें मद्देनज़र रखते हुए उनके विरूद्ध इस तरह की किसी कार्रवाई को करने की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी.

वह रात हम सब लोगों के लिये सच ही क़हर की रात साबित हुई. हमें तत्काल ही किसी दूसरे स्टूडियो का इन्तज़ाम करना था, लगे लगाये सेटों को एक जगह से उठा कर दूसरी जगह फ़िट करवाना था, कलाकार और टेकनीशियनों को इस स्थान परिवर्त्तन की सूचना देनी थी. मोहन से प्रकाश स्टूडियो सबसे नज़दीक पड़ता था. सोचा गया कि वहां अगर इन्तज़ाम हो सके तो दौड़ने-भागने की तवालत काफ़ी कुछ कम हो सकेगी. लेकिन संयोग या दुर्भाग्यवश वहां कोई फ़्लोर उस समय खाली नहीं था. राज कपूर के स्टूडियो से शैलेन्द्र के खासे ताल्लुक़ात थे, लेकिन वह जगह अंधेरी से काफ़ी दूर पड़ती थी. कई दूसरे स्टूडियो मालिकों से भी रात में उन्हें जगा कर बातचीत करने का प्रयत्न किया गया, लेकिन किसी के यहां जगह नहीं थी तो कोई बिमल रॉय के विरोधियों को स्टूडियो देकर उनकी नाराज़गी नहीं मोल लेना चाहता था. सब जगह हार मानने के बाद आखिर में आर.के.स्टूडियो ही उस आड़े समय काम आया, और मोहन स्टूडियो में बिखरा-फैला सारा सामान रातोरात गाड़ी और ठेलों में लाद लाद कर किसी तरह चेम्बूर पहुंचाया गया. सुबह सात बजे वहीदा रहमान और दूसरे कलाकार जब स्टूडियो पहुंचे तब किसी को इस बात का किंचित आभास नहीं हो पा रहा था कि जो सेट सामने लगे दिखलायी दे रहे हैं वह सिर्फ चन्द घन्टों पहले वहां लाये गये थे.

साल का वह अन्तिम – 31 दिसम्बर का दिन बहुत सुखद यादों का दान कर विदा हुआ. अप्रत्याशितरूप से आये उन व्यवधानों के विरूद्ध हम सबकी वह विजय सामान्य नहीं थी, और रात भर जानलेवा परिश्रम करने के बावजूद उस दिन हम सबमें इतनी तेज़ी और ताज़गी थी कि लगता था जैसे हम सब ज़मीन पर नहीं आसमान में चलफिर रहे हैं. शैलेन्द्र में इतनी उल्लासबहुलता पहले शायद मैंने कभी नहीं देखी थी. आर. के. स्टूडियो के लॉन पर उस दिन हम पांच-सात लोगों की खास महफ़िल जमी, और दोपहर ग्यारह-बारह से शाम छः-सात के दौरान राज कपूर के खास बारमैन जॉन ने हम लोगों के लिये कितनी शैम्पेन और स्कॉच की बोतलें खोल डालीं इसका अन्दाज़ शायद उसको खुद भी नहीं होगा. खाना भी उस रात हमने साथ ही खाया, ख़ालिस गेलॉर्ड का खाना, जिसे विशेश आग्रह करके शैलेन्द्र ने पच्चीस-तीस किलोमीटर दूर चर्चगेट से मंगाया था.

और उस समारोह का खात्मा सिर्फ वहीं नहीं हुआ. स्टूडियो से सब लोग सीधे आनन्दकुंज पहुंचे और शेश रात हम लोगों ने वहां न्यू-इयर ईव का जश्न मनाने में व्यतीत कर डाली. सुबह चार-पांच के आसपास जब लोग अपने अपने दरबों की ओर रूख्सत हुए उस समय तारे छिटक चुके थे, शरद-जुन्हाई अपने घर वापस लौटने के लिये तत्पर थी और पीछे फैला नीला समुद्र अपनी मन्द कलरवध्वनि के साथ नये साल की नयी सुबह का स्वागत करने में तल्लीन था.

लेकिन नये साल का वह नया सूरज हमारे लिये आशा का कोई सन्देश नहीं ला सका. बीते दिन जिस उल्लास-बहुल गतिमयता के साथ बिछुड़ते हुए साल के अन्तिम क्षणों को हमने विदा किया था वह जैसे उस बत्ती की आखरी लपक थी जो चिराग़ के गुल होने के पहले उससे निकला करती है.

 

वैसे तीसरी कसम का निर्माणकाल मात्र अवसाद और अवरोध ही नहीं, कभी कभार हलके-फुलके मनोरंजन के क्षणों से भी भरपूर हो जाया करता था. फ़िल्म जब सेट पर उतरी थी, तब की बात है. एक शाम बासु भट्टाचार्य छायाकार सुब्रत मित्र के साथ पूरी तरह हड़बड़ाता हुआ मेरे पास आया. पता चला कि शैलेन्द्र के एक मित्र ठाकुर नारायण सिंह तीसरी कसम के विक्रमसिंह नामक उस ज़मीन्दार की भूमिका अभिनीत करने के लिये बम्बई आये हुए हैं जिसकी जागीर में वहीदा रहमान अपनी नौटंकी लेकर जाती है. दरअसल तीसरी कसम को फ़िल्माने की योजना जब बनी थी तब शैलेन्द्र और बासु दोनों का ही यह इरादा था कि फ़िल्म सर्वथा नये कलाकारों को लेकर पूरी की जायेगी, और प्रयत्न यही होगा कि उसके प्रत्येक रोल की भूमिका ऐसे ही लोग निभाएं जिनको वास्तविक रूप से अपने किरदार का व्यक्तिगत अनुभव हो. लेकिन उनकी इस परिकल्पना को साकार होना संभव नहीं था, क्योंकि बगैर स्टार-कास्ट की फ़िल्म को कोई भी वितरक खरीदने के लिये तैयार नहीं था. अन्ततः राज कपूर और वहीदा रहमान जैसे सितारों को उसमें लेने के लिये बाध्य होना पड़ा. शैलेन्द्र ने पहले ही ठाकुर साहब से इस बात का वायदा कर लिया था कि फ़िल्म में जमीन्दार की भूमिका उन्हीं को अभिनीत करनी है. ठाकुर साहब झांसी के नामी-गिरामी ज़मीन्दारों में माने जाते थे, तम्बाकू की उनकी वहां व्यापक खेतीबाड़ी थी. सो जब उन्होने अखबारों में पढ़ा कि फ़िल्म का निर्माण-कार्य शुरू होने वाला है तो वह बगैर किसी औपचारिक आमंत्रण-निमंत्रण मय अपने लाव-लश्कर स्वयमेव बम्बई पहुंच गये और शैलेन्द्र को उनका स्वागत करने के लिये बाध्य होना पड़ा. रिमझिम के अतिरिक्त खार में ही शैलेन्द्र का एक अन्य मकान भी था — पार्वती सदन. मुझे इस बात की जानकारी नहीं कि शैलेन्द्र उस मकान का मालिक था या सिर्फ किरायेदार, लेकिन अपने यहां आने-जाने वाले सगे-संबंधियों को वह अक्सर वहीं ठहराया करता था. शैलेन्द्र की सलहज नन्दिता ठाकुर भी उन दिनों उसके ऊपर के हिस्से में रहा करती थी, जिसने कालान्तर में कमलेश्वर की प्रेम कपूर निर्देशित फ़िल्म बदनाम बस्ती में हीरोइन का रोल अदा किया. ठाकुर साहब के पहुंचते ही मकान के नीचे का पूरा मेहमानखाना उनके सिपुर्द कर दिया गया, और अपने अमलों-क़ारिन्दों के साथ वहां पर वह आरामफ़र्मा हो गये.

बासु और सुव्रत की परेशानी यह थी कि ठाकुर साहब को न अभिनय का ककहरा आता था, और न ही तीसरी कसम की कहानी उनकी नज़रों से कभी गुज़री थी. उनको यह मुग़ालता भी था कि फ़िल्म के निर्माता जैसे महत्वपूर्ण किसी व्यक्ति ने अगर उनका चयन कर लिया है तो उसमें किसी तरह का अवरोध उत्पन्न करने का अधिकार न निर्देशक के पास रह जाता है और न छायाकार के पास. इसी से बासु और सुव्रत जब उनसे मिलने के लिये पार्वती सदन पहुंचे तो ठाकुर साहब ने उनको किसी तरह की कोई तरजीह नहीं दी. मेरे पास आने का उद्देश्य उनका सिर्फ इतना था कि चूंकि मैं भी यू.पी. से संबंधित हूं इससे उनसे मिल कर मैं कुछ इस तरह उनको हताश करने की कोशिश करूं कि वह स्वयं ही फ़िल्म में उतरने से मना कर दें. शैलेन्द्र से यह सब कहने में उनको कुछ संकोच का अनुभव हो रहा था.

उस दिन तो नहीं, लेकिन दूसरी सुबह उनका सान्निध्य प्राप्त करने के उद्देष्य से मैं निश्चित ही पार्वती सदन पहुंच गया. बाहर ही मुझे शैलेन्द्र की इमेज मेकर्स का एक कर्मचारी मिला, जिसे शायद ठाकुर साहब की देखरेख के लिये वहां नियुक्त किया गया था. उसी से पता चला कि ठाकुर साहब उस समय अपने नौकर-चाकरों के द्वारा अपने बदन की तेल-मालिश करवाने में लगे हुए हैं. मैंने उससे कहा कि अन्दर जाकर वह ठाकुर साहब को इस बात की इत्तिला दे दे कि कोई पत्रकार उनसे मिलने के लिये आया हुआ है, लेकिन साथ ही इस बात की जानकारी उनको हरगिज़ नहीं होनी चाहिए कि मैं उसका या शैलेन्द्र का परिचित हूं.

ठाकुर साहब इस बात को सुनते ही कि कोई पत्रकार उनसे मिलने के लिये आया हुआ है, बेहद प्रसन्न हो उठे. बम्बई की धरती पर उनको पहुंचे कुल दो या तीन दिनों का ही समय बीता होगा, और इतने थोड़े से काल में अगर पत्रकारों ने उनसे मिलने के प्रयत्न शुरू कर दिये हैं तो निश्चित ही उससे उनके महत्व का परिचय मिलता है. उन्होंने फ़ौरन तेल मालिश वालों को वहां से विदा किया, बदन पोछ कर अपने कपड़े बदले और मुझे अपने हुज़ूर में पेश होने की इजाज़त अता कर दी.

पहली नज़र में देखने पर ठाकुर साहब मुझे निहायत सीधेसादे और भोलेभाले व्यक्ति प्रतीत हुए थे, और मुझे लगा था कि उनको समझने में ज़रूर ही बासु और सुव्रत को कोई गलतफ़हमी हुई होगी. अपने साथ वह दो-चार नौकर-चाकर ज़रूर लाये थे, लेकिन वह तो उस ज़माने में बड़े आदमियों की रवायत थी. मैंने देखा, उनमें न किसी ज़मीन्दार की ठसक थी और न ही मिथ्या-अभिमान की कोई झलक. मेरे पहुंचते ही बड़ी गर्मजोशी के साथ उन्होंने मेरा स्वागत किया. उनको यह मालूम होकर खुशी हुई कि मैं भी उनके अपने प्रदेश से आया हुआ हूं, और जब उनको इस बात का पता चला कि स्वयं झांसी के अनेक ऐसे लोगों से मैं परिचित हूं जो उनके भी परम मित्रों में हैं तो औपचारिकता के सारे बंधन एकाएक टूट कर रह गये और हम दोनों में सहज ही एकात्मता आ गयी. झांसी से प्रकाशित होने वाले दैनिक जागरण के स्वामी-सम्पादक राजेन्द्र गुप्त उन दिनों बम्बई आये हुए थे और मैरीन ड्राइव स्थित होटल सी-ग्रीन में ठहरे हुए थे. जब मैंने उनका उल्लेख किया तो ठाकुर साहब ने बताया कि उनके साथ तो झांसी क्लब में उनका रोज़ का खाना-पीना है. राजेन्द्र गुप्त मेरे बहुत पुराने मित्रों में थे.

खैर, उस दिन तीन-चार घन्टे तक न केवल मैं ठाकुर साहब के साथ रहा बल्कि दोपहर का खाना भी हम लोगों ने साथ साथ ही लिया. यह बात मैंने ज़रूर उन पर ज़ाहिर नहीं होने दी कि तीसरी कसम के निर्माताओं से मेरा कोई संबंध है, या उनमें से किसी के निदेश पर मैं उनसे मिलने आया हूं. जब मैंने उनको बताया कि अभी कुछ ही दिनों पहले मैं बम्बई पहुंचा हूं और धीरे-धीरे फ़िल्मी समुदाय से जानपहचान बढ़ाने की कोशिश कर रहा हूं तो उन्होने मुझे तहेदिल से आश्वस्त किया अगर हर दूसरे-तीसरे दिन उनके यहां मैं पहुंच जाया करूं तो न केवल अपने साथ स्टूडियो चलने का मौका वह मुझे देंगे बल्कि विभिन्न फ़िल्म-निर्माताओं और कलाकारों आदि से वह मेरा परिचय भी कराते रहेंगे.

ठाकुर साहब जैसे नेकदिल इंसान से मुझे यह कहने की हिम्मत नहीं पड़ी कि वह ऐक्टिंग जैसे पचड़ों का मोह छोड़ कर झांसी वापस चले जायें और वहां अपनी खेतीबाड़ी का काम फिर से शुरू कर दें. शाम को चलते समय स्वाभाविक रूप से मैंने उनसे यह ज़रूर पूंछ लिया कि तीसरी कसम का स्क्रिप्ट क्या उन्होंने पढ़ा है? जवाब में जब उन्होंने प्रश्न किया कि स्क्रिप्ट आखिर क्या बला होती है तब निश्चित ही मैं चौंक उठा. एक-दो दिन के अन्दर ही फ़िल्म की शूटिंग होने वाली है, और अब तक इनको उसकी कहानी का ही अतापता नहीं! कुरेदने पर उन्होंने आगे बताया कि वहीदा रहमान नामक हीरोइन के साथ उनको काम करना है, और वह एक बड़ी स्टार मानी जाती है.

अब मैंने कुछ मज़ाक करने की कोशिश की — तो आपके प्रोड्यूसर ने अब तक क्या वहीदा से भी आपकी भेंट नहीं करायी है? — मैंने उनसे पूंछा था.

— अभी तक तो मैंने उसकी सूरत तक नहीं देखी है.

— फिर आप उसके साथ काम कैसे कर पायेंगे?

— क्यों?

— किसी के साथ काम करने के पहले उससे इन्टीमेसी की ज़रूरत होती है. अगर वह नहीं है तो अभिनय में निखार नहीं आ सकता. आप फ़ौरन शैलेन्द्रजी से इस संबंध में बात कीजिए, अन्यथा आपका बंटाधार हो जायेगा. — मैंने उनको राय दी.

ठाकुर साहब को यह बात समझ में आ गयी. बोले — आज ही उसको पकड़ता हूं. आपने अच्छी बात बता दी.

शाम को बासु और सुव्रत जब उनके पास पहुंचे तो बगैर किसी लागलपेट उन्होंने उन दोनों को डांटना शुरू कर दिया. बोले थे — शैलेन्द्र भी कैसे अजब अजब लोगों को फ़िल्म का डाइरेक्टर बना देते हैं. हीरोइन से मुलाकात तक नहीं करायी, और फिर कहेंगे कि उसकी आंख से आंख मिला कर उसके साथ ऐक्टिंग करो. कमाल है!

यह घटना रात ही में बासु-सुव्रत ने मुझे बता दी थी.

अगले सप्ताह तयशुदा प्रोग्राम के अनुसार मैं फिर ठाकुर साहब के पास पहुंच गया. स्टूडियो की गाड़ी उनको लेने के लिये वहां आयी हुई थी. कुछ ही दिनों में ठाकुर साहब ने कुछ और चमचे बना लिये थे, और उनके साथ मैं भी स्टूडियो के लिये रवाना हो गया. स्टूडियो पहुंचने के बाद वहां उपस्थित लोगों से उन्होंने मेरा परिचय कराया – शैलेन्द्र और बासु से भी. हम लोग मन ही मन इस रस्म पर मुस्कराते रहे थे. आश्चर्य की बात यह थी कि न मेरे चेहरे पर ठाकुर साहब को उस मुस्कराहट की कोई रेखा मिली, और न शैलेन्द्र या बासु के चेहरों पर.

ठाकुर साहब को उस दिन अपना पहला शॉट देना था. सीन यह था कि नौटंकी वाली बाई वहीदा रहमान के तम्बू में ठाकुर साहब का पदार्पण होता है और उनका स्वागत करने के बाद वह उनको पान पेश करती है. जवाब में ठाकुर साहब उससे फ़रमाते हैं – अपने हाथ से पान खाना मुझको नहीं सुहाता. अपनी नरम-नाज़ुक-नाज़नीन उंगलियों तुम खुद अगर पान का बीड़ा मेरे मुंह में रख सको, तो तुम्हारा यह दावतनामा मुझे बाखुशी कुबूल हो सकता है.

संवादकार नवेन्दु घोश ने उस सीन के लिये कुछ ऐसे ही डॉयलाग लिखे थे. वहीदा रहमान जैसी टॉप-क्लास हीरोइन के हाथों पान खाने को मिले, इससे ज्यादा खुशी की बात हो भी क्या सकती थी ठाकुर नारायणसिंह के लिये? मगनमस्त होटों से उन्होंने अपने डॉयलाग को दुहराया और वहीदा अपनी उंगलियों में पान की गिलौरी को थामे हुए उनके होठों तक ले गयी. शॉट पूरी तरह ओ.के. हो रहा था, फलतः निर्देशक बासु भट्टाचार्य ने छायाकार सुव्रत मित्र को आदेश दिये — कट. कट के अर्थ होते हैं शॉट समाप्त हुआ, कैमरे को बन्द करो.

लेकिन ठाकुर साहब कट को सुन कर समझे कि वह निर्देश स्वयं उनको संबोधित किया गया है, और पान के साथ अपने मुंह के अन्दर पहुंची वहीदा की उंगलियों को उन्होंने अपने दांतों से तत्काल ही काट लिया. सेट पर उपस्थित हम जैसे लोग ही नहीं स्वयं वहीदा रहमान भी उनकी इस अनोखी हरकत से लोटपोट हो गयी थी. लेकिन ठाकुर साहब का कहना था कि उन्होंने निर्देशक के आदेशों का ही पालन किया है. वहीदा की उंगली काटने के लिये जब स्वयं बासु भट्टाचार्य ने उनको निर्देशित किया था, तब इतनी हायतोबा आखिर क्यों?

इस कट का परिणाम अन्ततः यह हुआ कि ठाकुर साहब का वह किरदार पूरी तरह फ़िल्म से काट दिया गया और फिर अभिनेता इफ्तिखार ने वह भूमिका अभिनीत की – स्वयं ठाकुर साहब द्वारा लाये गये उस बेशकीमती कुरते को पहन कर जिसे वह खासतौर पर अपने साथ झांसी से लाये थे. तब तक फ़िल्म में वह ठाकुर साहब के नौकर का काम कर रहे थे और स्थल पर मौजूद थे. बाद में ठाकुर साहब को नौकर की वेशभूषा पहना कर उनसे इफ्तिखार का किरदार करवाने की कोशिश की गयी. लेकिन उसमें भी वह सफल नहीं रह पाये और आखीर में उन्हें इस आश्वासन के साथ झांसी वापस कर दिया गया कि ज़रूरत होने पर उनको फिर बुलवा लिया जायेगा. मुझे याद है, झांसी लौटने के बाद एक पत्र में उन्होंने मुझको लिखा था — फ़िल्म की शूटिंग में मेरी धोती को बहुत ऊंचा करके दिखाया गया है. उसे देख कर झांसी के लोग चूंकि बहुत हंसेंगे, इससे एडीटिंग के वक्त उसे थोड़ा नीचा करवा देना.

बेचारे भोलेभाले और सीधेसादे ठाकुर साहब !

 

तो नये साल की उस नयी सुबह सबसे पहली जो खबर हमें मिली वह यह थी कि बिमलदा ने अपने टेलिफ़ोन की लाइन कटवा दी है, और बासु-रिंकी के मध्य रहा-सहा सम्पर्क भी अब पूरी तरह टूट कर रह गया है. उसके तत्काल बाद यह खबर भी मिली कि रिंकी उसी दिन अपने सगेसंबंधियों के पास कलकत्ते पहुंचने वाली है और वहां हफ़्ते भर के अन्दर ही किसी धनीमानी, अभिजातकुलीन नवयुवक के साथ उसका गठबंधन करा दिया जायेगा. तीसरा समाचार था कि आनन्दकुंज और बापू निवास – जहां बासु की एक छोटी सी कोठरी थी – दोनों को बिमलदा के आदमियों ने घेर रक्खा है, और अब हम लोगों की कोई गतिविधि उनसे अछूती नहीं रह पायेगी.

इन परिस्थितियों की आशंका हमें न हो, ऐसी बात नहीं. लेकिन इतनी जल्दी वह सब कुछ हो जायेगा इसका अन्दाज़ा हमें सचमुच नहीं था. बासु तो जैसे सर्वथा पंखहीन होकर रह गया हो. ज़ाहिर है कि उस स्थिति में उसके मनमस्तिष्क की अवस्था ऐसी नहीं रह गयी थी कि शूटिंग का कुछ भी काम वह चालू रख सके, और शूटिंग स्थगित करने के मतलब थे लाखों रूपये का नुकसान. शैलेन्द्र बासु से भी ज्यादा बेजान लगा. उसकी आखें फटी-फटी रह गयी थीं और ज़बान बिलकुल निस्वर. महीनों इन्तज़ार के बाद राज कपूर और वहीदा रहमान से हफ़्ते भर की तारीखें मिली थीं, और अगली तारीखें पाने के लिये फिर महीनों की प्रतीक्षा करनी पड़ती. बिमलदा का यह जवाबी हमला, निश्चित ही, शैलेन्द्र को बहुत मंहगा पड़ा था. लेकिन सवाल अब उससे मुकाबला करने का नहीं, उससे अपने को बचाने का था.

बासु सुबह ही घर से निकल गया था. अपने से अधिक चिन्ता उसे रिंकी की थी, और उस चिन्ता को अस्वाभाविक भी नहीं कहा जा सकता था. परिस्थितियों की जिस भंवर में अचानक ही वह फंस गया था उस क्षण वह किसी का भी मानसिक सन्तुलन अस्थिर करने के लिये पर्याप्त थी. निश्चित ही बिमलदा से वह खुल कर लड़ाई मोल लेना नहीं चाहता था, लेकिन साथ ही उसकी यह कोशिश भी थी कि बगैर किसी तूलतवालत वह झगड़ा खतम हो जाये. अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिये कोई बड़ा बावेला खड़ा करना उस परिस्थिति में न उसके लिये संभव था, और न ही उचित.

उसी दोपहर बारह या एक बजे के आसपास मुझे एक टेलिफ़ोन मिला. टेलिफ़ोन किया था उस ज़माने में ब्लिट्ज़ के कार्टूनिस्ट और आज के प्रख्यात फ़िल्म निर्देशक बासु चटजीं ने. एक अजीब, रहस्यमय आवाज़ में उसने मुझसे कहा था – ठीक चार बजे यूसुफ़ के घर, पाली हिल पहुंच जाओ. और जब तक मैं पूछूं-पूछूं कि आखिर क्यों और किस काम के लिये, उसने एकाएक टेलिफ़ोन ऑफ़ कर दिया था.

यूसुफ़ यानी दिलीपकुमार के साथ निश्चित ही मेरी थोड़ी-बहुत राहरस्म थी, लेकिन उनके घर मेरा कभी ज्यादा आना जाना नहीं हुआ. इसी से चटर्जी के उस सन्देश से मुझे अचंभा भी हुआ और अचरज भी. यूसुफ़भाई को अगर सचमुच मुझसे कोई काम था तो वह स्वयं मुझे टेलिफ़ोन कर सकते थे, चटर्जी के माध्यम से मुझे बुलाने की क्या ज़रूरत थी उनको आखिर? वैसे उस दिन पल भर के लिये भी घर से बाहर निकलना मेरे लिये संभव नहीं था. किसी भी क्षण किसी का भी टेलिफ़ोन आ सकता था वहां, और उसको सुनने वाला था मैं अकेला. इसी ज़रूरत को ध्यान में रखते हुए मैं सुबह बासु के साथ भी नहीं निकला था, हालांकि जो स्थिति थी उसकी उसमें उसका कहीं भी अकेले जाना न समुचित था और न सुरक्षित.

ब्लिट्ज़ कार्यालय मैंने टेलिफ़ोन किया तो मालूम हुआ कि चटर्जी लम्बी छुट्टी पर गया हुआ है और सप्ताह भर के पहले उसके वापस लौटने की कोई उम्मीद नहीं है. शैलेन्द्र के घर तब तक टेलिफ़ोन लाइन नहीं आ पायी थी, इससे उससे कुछ पूंछताछ कर पाने का सवाल ही नहीं पैदा होता था. बासु की भी कोई खबर सुबह उसके घर से निकलने के बाद कुछ नहीं मिल पायी थी – हालांकि उसने कहा था कि हर पन्द्रह-बीस मिनट पर वह मुझसे सम्पर्क स्थापित करता रहेगा. इस सबके अतिरिक्त मैं स्वयं उस समय जिन ज्ञात-अज्ञात आशंकाओं से घिरा हुआ था उसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है. सब तरफ़ से हारने के बाद आखिर में मुझे यूसुफ़ के यहां टेलिफ़ोन करने के अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं दिखायी दे पाया.

टेलिफ़ोन पर सयीदा मिली थी – यूसुफ़ की छोटी बहन. मैंने पूंछा – शाम चार बजे तुम्हारे यहां कोई फ़ंक्शन है क्या?

— आपको कैसे मालूम हुआ? — वह अचम्भे से बोली थी.

जब मैंने पूरा किस्सा उसे बताया तो उसने कहा था — हां, आपा सुबह बिमलदा के यहां गयी थीं. उनके कहने पर रिंकी को किसी तरह यहां तक आने की इजाज़त बिमलदा ने दे दी है. भाईजान को तो वह अपना ही आदमी समझते हैं न? तीन-चार बजे के आसपास उसके यहां आने की उम्मीद है. बासु भी उस समय यहीं होगा. हो सकता है, किसी छोटे-मोटे जलसे को करने की ज़रूरत पड़ ही जाये ….

और इतना कहते कहते वह इस तरह से मुस्करा दी थी जैसे कोई बहुत रहस्यपूर्ण बात निकल गयी हो उसकी ज़बान से.

मैंने उससे फिर कुछ ज्यादा पूंछताछ नहीं की. आशा का जो संकेत उसकी इस ज़रा सी सूचना में निहित था वह एकबयक ही मेरे दिल-दिमाग़ को फूल जैसा हलका कर गया. मुझे लगा जैसे कठिनाइयों की वह दीवार जो सुबह सुबह अचानक ही हमारे सामने पहाड़ बन कर खड़ी हो गयी थी उसमें दरारें पड़ना शुरू हो गयी हैं, और उसकी सूराखों से नये साल का नया सूरज हमारी अगवानी करने के लिये तत्पर है.

लेकिन वह भी एक भ्रम ही था हमारा — एक बहुत बड़ा भ्रम !

चार बजे के आसपास जब मैं यूसुफ़ के घर पहुंचा तो वहां हमेशा की तरह सन्नाटा था. बाहर मुझे सिर्फ सयीदा दिखलायी थी, बेहद परेशान और दुखी. आंसू जैसे उसकी आंख की पलकों में बरफ़ बन कर जम गये हों. काफ़ी रूक रूक कर, रूंधे हुए गले से उसने जो कुछ मुझे बताया उसका सार यह था कि दोपहर उसने जो कुछ मुझसे टेलिफ़ोन पर कहा-सुना था उसकी खबर बिमलदा को हर्फ-बहर्फ़ मिल गयी थी, और तीन बजे के बोइंग से रिंकी को उन्होंने कलकत्ते भिजवा दिया है. जहां तक बासु का सवाल है, वह न तो वहां आया ही और न उसकी कोई खबर है.

इस जानकारी के बाद एक क्षण के लिये भी मेरा वहां रूकना मुमकिन नहीं था. टैक्सी लेकर मैं सीधे शैलेन्द्र के घर पहुंचा. बेहद उनींदी अवस्था में उसने अपना दरवाज़ा खोला था. उसे देखने से मालूम होता था जैसे जीवन के हर पहलू से हार मान चुका है वह. मेरी बातों को सुनने की न उत्सुकता ही दिखी उसके चेहरे पर, न कोई व्यग्रता – और जिस बेइन्तहा बेकरारी के साथ उसे मैंने सारा घटनाक्रम सुनाने की कोशिश की उतने ही इतमीनान और उदासीनता के साथ उसने उस सब को ग्रहण किया.

कुछ देर रूकने के बाद उसने मुझसे कहा था – इन बेकार के पचड़ों में पड़ने से अब कोई फ़ायदा नहीं है, रामकृष्ण. हम-तुम चाह कर भी बासु की कोई मदद नहीं कर सकते. जो कुछ उसने किया है उसका फल उसे खुद भुगतने दो.

और इतना कहने के बाद वह फिर चुप हो गया था.

शैलेन्द्र के इस अप्रत्याशित उत्तर ने मुझे अचानक ही स्तब्घ कर डाला था. मुझे लगा जैसे वह बासु का दोस्त शैलेन्द्र नहीं, फ़िल्मों का संवेदनशील गीतकार शैलेन्द्र भी नहीं, बल्कि तीसरी कसम नामक निर्माणाधीन फ़िल्म का निर्माता शैलेन्द्र बोल रहा है.

मैंने कहा — लेकिन बासु का पता लगाना तो ज़रूरी है. सुबह उसकी हालत क्या हो गयी थी, यह तुमने अपनी आंखों देखा है. ऊपर से बिमलदा के आदमी उसके पीछे लगे हैं. उसे अगर कहीं कुछ हो गया ….

मेरी बात पूरी होने के पहले ही शैलेन्द्र बोल उठा था — उस सब की फ़िक्र करने की कोई ज़रूरत नहीं है, रामकृष्ण. बासु दूध-पीता बच्चा नहीं है जो कोई उसे गोद में लेकर आसमान में उड़ जायेगा. अपनी देखभाल खुद करने की ताक़त उसमें है.

— लेकिन इस वक्त है वह आखिर कहां, यह तो बतलाओ. सुबह वह तुम्हारे साथ ही मेरे घर से निकला था, और तुम्हें ज़रूर इस बात का पता होगा कि वह कहां गया हुआ है. — मैंने उससे फिर पूंछने की कोशिश की थी.

उत्तर में काफ़ी हलके से वह बोला था — यकीन मानो, मुझे इस बात का कुछ भी पता नहीं कि वह कहां है, क्या कर रहा है या आगे क्या कुछ करने का इरादा है उसका? — शैलेन्द्र की आवाज़ में पहले जैसी ही निस्पृहता थी और पहले ही जैसा इतमीनान. कुछ ही देर बाद उसने बात आगे बढ़ायी थी — यों परेशान होने की कोई बात नहीं. जैसे ही मुझे उसकी कोई खबर मिली उसकी इत्तला मैं तुम तक पहुंचा दूंगा.

रात में शैलेन्द्र स्वयं मेरे घर पर आया और ढाई-तीन घन्टे हम लोग साथ ही रहे. तब तक, बकौल खुद उसके, बासु का पता उसे नहीं लग पाया था – हालांकि तब भी उसके चेहरे पर चिन्ता या परेशानी की कोई रेखा मुझे नहीं दिखायी दे पायी. दूसरा दिन भी इस अनिश्चय की स्थिति में ही बीत गया, और शायद तीसरा दिन भी. शैलेन्द्र के साथ इस बीच हालांकि हर दिन मेरी भेंट होती रही थी, लेकिन हर बार वह यही दुहराता रह गया था कि बासु के संबंध में उसे तब तक भी कुछ नहीं मालूम हो पाया है.

चौथे दिन शायद सुबह की बात है. मैं सोकर उठा भी नहीं था कि संगीतकार अनिल विश्वास मेरे घर पर आ पहुंचे. बासु के अचानक ग़ायब होने की खबर से उन्हें जो परेशानी थी वह तो अपनी जगह थी ही, सबसे ज्यादा दुःख उन्हें इस बात से था कि बिमलदा और बासु दोनों ही उन्हें एक-दूसरे का आदमी समझते थे और इससे दोनों का ही उन पर अविश्वास था. — मुझे समझ में नहीं आता कि क्या करूं इस ग़लतफ़हमी को मिटाने के लिये? – बेहद दुःख भरे स्वरों में उन्होंने मुझसे कहा था — बिमलदा के यहां इस बीच कई बार मैं गया. रिंकी निश्चित ही बम्बई में नहीं है, लेकिन बासु कहां ग़ायब हो गया आखिर इसके बारे में वहां भी किसी को कुछ नहीं मालूम.

तभी अनिलदा बोले – मीना कह रही थी कि पहली तारीख की शाम को उसने बासु को मोहन राकेश के साथ चर्चगेट के आसपास देखा था. राकेश से मेरी तो कोई जानपहचान नहीं, तुमसे अगर परिचय हो तो उनसे निश्चित ही कुछ पता लग सकता है.

मुझे यह बात तो मालूम थी कि राकेश बासु के मित्रों में हैं, लेकिन रिंकी-काण्ड को लेकर बासु ने कभी उनकी चर्चा चूंकि नहीं की थी इससे मैं यह नहीं समझता था कि उन्हें बासु के इस पलायन के बारे में कोई जानकारी होगी. राकेश उन दिनों सारिका का सम्पादन कर रहे थे और रहते थे चर्चगेट-स्थित चैट्यू विन्डसर में. अनिलदा के कहने पर तत्काल ही मैंने उन्हें टेलिफ़ोन किया. जवाब में उन्होंने जो कुछ बताया उससे ध्वनित होता था कि बासु के संबंध में उनको काफ़ी कुछ जानकारी है.

और उस शाम राकेश से जब मेरी मुलाकात हुई तब पता चला कि बासु तो उसी रात, जिस दिन रिंकी यहां से रवाना हुई थी, कलकत्ते पहुंच चुका है, और शैलेन्द्र भी उस तथ्य से नावाकिफ़ नहीं. राकेश के अनुसार बासु ने मुझे भी टेलिफ़ोन पर पाने की कोशिश की थी, लेकिन उसमें वह नाकामयाब रहा. मेरे यहां से कोई प्रत्युत्तर उसे नहीं मिल पाया था.

राकेश के यहां से जब मैं वापस लौटा तो मेरे दिमाग़ में निश्चित ही बेहद हलकापन आ चुका था. बासु मज़े में है, किसी संभावित दुर्घटना का शिकार वह नहीं हुआ, उसकी गतिविधियां पूर्णतः अज्ञात नहीं, यह सभी तथ्य उस बोझ को पूरी तरह चाक करने के लिये पर्याप्त थे जो गत चार दिनों से मेरे दिल पर छाया हुआ था. लेकिन इसके साथ ही जिस नयी मानसिक उथल-पुथल ने मेरे दिमाग़ की नसों पर छापा मार कर अचानक ही उसे अपनी गिरफ़्त में ले लिया था उसने मुझे चिन्तित भी कर दिया और किंचित भ्रमित भी. मुझे समझ में नहीं आ पा रहा था कि बासु के बारे में पूरी जानकारी रखते हुए भी शैलेन्द्र इतने दिनों तक मुझसे आखिर झूठ क्यों बोलता रह गया?

शैलेन्द्र से फिर लगातार काफ़ी दिनों तक मेरी मुलाक़ात नहीं हुई. अपनी ओर से उसके घर जाकर उससे मिलने, बात करने की उत्सुकता मुझमें बाकी नहीं बची थी, और शायद वह स्वयं भी मेरे यहां आने से किंचित कतरा रहा था. यों इस बात की जानकारी उसे मिल गयी थी कि बासु की गतिविधियों का मुझे ज्ञान है और उस दिशा में मुझे अंधकार में रखने की उसकी चेष्टा विफल हो चुकी है.

हो सकता है महीनों-बरसों इस तरह बीत जाते और शैलेन्द्र के साथ मेरी मुलाकात न हो पाती. अनचाहे ही उसकी ओर से मेरा मन बिलकुल उचाट हो गया था. यह उदासीनता नितान्त तात्कालिक थी या पूर्वाग्रहयुक्त यह मुझे पता नहीं, लेकिन इतना मैं ज़रूर कह सकता हूं कि एक परिपक्व मैत्री के लिये जिस गहन विवेक की अपेक्षा होती है उसका सर्वथा अभाव मुझे शैलेन्द्र में मिला था. मुझे लगता था, यह आदमी किसी का भी दोस्त नहीं बन सकता – शायद खुद अपना भी नहीं.

मुझे ठीक से स्मरण नहीं कि बासु का कलकत्ते से कोई ट्रंककॉल आया था या फिर शैलेन्द्र को स्वयं ही उससे बात करने की ज़रूरत आ पड़ी थी, लेकिन इसी तरह की किसी टेलिफ़ोन-वार्त्ता के सन्दर्भ में एक दिन शैलेन्द्र से अपने ही घर पर पुनः मेरी मुठभेड़ हो गयी. बासु से बात करने के बाद भी करीब पन्द्रह-बीस मिनट वह मेरे साथ रहा. पिछले घटनाक्रम का कोई ज़िक्र न मैंने स्वयं उससे किया, और न उसी ने उसकी कोई चर्चा की. उन बातों को मैं बिलकुल भूल जाना चाहता था.

तभी उसने मुझसे पूंछा था — यह बन्दिनी का रिव्यू तुमने लिखा है स्क्रीन में?

— मैं तो यही समझता हूं. — मैंने जवाब दिया था — स्क्रीन ही क्यों, दस बारह और अखबारों में भी वह सिंडिकेट होकर छपा है. लेकिन क्यों?

— उसमें तुमने लिखा है कि गुलज़ार मुझसे ज्यादा क़ाबिल लिरिक-राइटर है, कि उसके सिर्फ एक गाने ने मेरे आधा दर्ज़न गीतों को मात दे दी है, कि उसका फ़्यूचर बेहद ब्राइट है और मेरा पूरी तरह डार्क?

— बिलकुल ग़लत कहते हो तुम. — मैंने किंचित रोश में जवाब दिया था — यकीनन मैंने यह लिखा है कि गुलज़ार का भविष्य अत्यधिक उज्ज्वल है, लेकिन इसके मायने यह तो नहीं हो गये कि तुमको मैंने अंधेरे में ढकेल दिया? तुम्हारी क़लम पर तो मैंने कोई ख़ास कमेन्ट भी नहीं किया है उसमें. हां, गुलज़ार की लाइने मुझे बहुत पसन्द आयी थीं, इससे उनकी तारीफ़ ज़रूर की है मैंने.

— और कमेन्ट करने के लिये बचा ही क्या था तुम्हारे पास? क्या यह लिखते कि शैलेन्द्र फूहड़ है, उसे क़लम पकड़ने की तमीज़ नहीं, वह नक्काल है, वह दूसरों के बल पर जीता है, वह शंकर-जयकिशन का पैरासाइट है? — करीब एक ही सांस में बोल गया था वह.

— समझने की कोशिश करो, शैलेन्द्र. — मैंने कुछ शांतचित्त होते हुए उससे कहा था — किसी दूसरे आदमी की लिखी लाइनों को दाद देने के अर्थ यह तो नहीं हैं कि मैं तुम्हारा दुश्मन हूं. मैं अब भी समझता हूं कि गुलज़ार ने उस फ़िल्म में जो गीत दिया है वह बेहद प्यारा है और उसकी तारीफ़ करनी ही चाहिए – सिर्फ मुझे ही नहीं, तुम्हें भी. फिर वह एक नया गीतकार है, उसे प्रशंसा और प्रोत्साहन देने की ज़रूरत है, उपेक्षा की नहीं.

लेकिन शैलेन्द्र ने जैसे मेरी सारी बात सुनी अनसुनी कर दी हो. अपनी ही रौ में वह बोलता रह गया था – सब बेकार की बातें हैं, रामकृष्ण. मुझे मालूम है कि तुम मुझे गिराने पर तुले हो.

शैलेन्द्र को मैंने कोई जवाब नहीं दिया था. जवाब देने की न कोई ज़रूरत बच रही थी और न कोई इच्छा. मैं चाहता था कि जल्दी से जल्दी वह मेरे यहां से दफ़ा हो जाये और फिर कभी वहां अपने क़दम न रक्खे. उसके नैकट्य या सान्निध्य से ही नहीं, उसकी छाया तक से मुझे चिढ़ हो गयी थी. भावनात्मक स्तर पर उसके साथ मेरे जो भी संबंध पिछले कुछ बरसों में बने थे वह एकबयक जैसे उस ताश के महल की तरह गिर कर छिन्नभिन्न हो गये जिनकी न कोई नींव होती है और न स्थायित्व और जिनके अस्तित्व पर सिर्फ बच्चे ही पूरी तरह विश्वास कर तुष्ट-तृप्त हो सकते हैं, पक्व-परिपक्व बुद्धि का कोई वयस्क नहीं.

और इसी से शैलेन्द्र जब वहां से उठा तो मैंने उसकी ओर देखा तक नहीं. एक झटके के साथ अपनी गाड़ी स्टार्ट करते हुए वह मेरे कम्पाउन्ड से बाहर चला गया.

वैसे अपनी आलोचना के प्रति शैलेन्द्र इतना अधिक सम्वेदनशील है यह बात मेरे लिये अज्ञात नहीं थी. बम्बई के अनेक छोटेमोटे फ़िल्म-प्रचारक और पत्रकार हर महीने उसके पास आते रहते थे और सौ-दो सौ रूपयों में ही इस बात का सौदा कर जाते थे कि आसन्न अवधि में उनकी पत्र-पत्रिकाओं में शैलेन्द्र के खिलाफ़ कोई टिप्पणी नहीं छपेगी. पक्ष में राय देने-दिलवाने का रेट शायद इससे ज्यादा था. उस सस्ती के ज़माने में भी कुल मिला कर ढाई-तीन हज़ार रूपये हर महीने शैलेन्द्र उस दानखाते में देता था, और यह सोच कर प्रसन्न रहता था कि उस अवधि में उसके विरूद्ध कोई बात किसी पत्र ने नहीं छापी.

इस दिशा में एक घटना का उल्लेख अप्रासंगिक नहीं होगा. शैलेन्द्र के साथ मेरा मनमुटाव किस सीमा तक पहुंच चुका था इसकी तो मुझे ठीक से याद नहीं, लेकिन इतना निश्चय है कि तब तक हम लोगों के संबंधों में खासी दरार पड़ चुकी थी और हम दोनों ही एक-दूसरे को शक की नज़रों से देखने लगे थे. उन्हीं दिनों बन्नेभाई – स्वर्गत सज्जाद ज़हीर – बम्बई आये तो बासु, रेणु और अपने कुछ अन्य मित्रों-परिचितों के साथ शैलेन्द्र ने मुझे भी उनके स्वागत में आयोजित एक खान-पान गोष्ठी में आमंत्रित किया, और चूंकि बन्नेभाई के साथ लखनऊ के ज़माने से ही मेरा घरोपा था इससे मैं उसमें सम्मिलित भी हुआ. शाम सात बजे से दस-ग्यारह बजे रात तक हम लोग खातेपीते ही रहे थे, और उसका अच्छा खासा रंग भी हम लोगो पर चढ़ गया था. बीच में एक बार जब मैं बाथरूम जाने के लिये कमरे से बाहर निकला तो देखा कि शैलेन्द्र भी उसी ओर आ रहा है. अपनी लघुशंका से निवृत्त होने के बाद जब मैं बैठकखाने की ओर मुड़ा तो शैलेन्द्र ने रास्ते में ही रोकते हुए सौ-सौ रूपयों की एक छोटी सी गड्डी मेरे हाथों में थमाने की कोशिश की. बोला – तुम्हारे यह रूपये शायद यहां गिर गये थे. मुझे मालूम था कि उस वक्त मेरी जेब में चार-छः रूपयों से अधिक की राशि नहीं थी. मैंने उससे साफ़ कह दिया कि न ही वह रूपये मेरे हैं और न उनको लेना मेरे लिये मुमकिन है. यह सुन कर बहुत अनमने भाव से उस गड्डी को उसने अपने कुरते की जेब में डाल लिया था.

सवाल यह है कि वह रूपये अगर सच ही शैलेन्द्र को गिरे मिले थे तो उसकी गड्डी अपनी जेब के हवाले करने के पहले उसके संबंध में वह अपने उन दूसरे मेहमानों से पूंछताछ कर सकता था जो उस समय वहां मौजूद थे और मेरे पहले कई बार बाहर आ-जा चुके थे. लेकिन चूंकि वैसा कुछ उसने नहीं किया, इससे इस सन्देह की एक हलकी सी झलक मेरे दिमाग़ में रह गयी कि वह रूपये शायद उसी रूप में वह मुझे देना चाहता था जिस रूप में कथित पत्रकारों को वह दिया करता था. यों काफ़ी अरसे बाद जब उससे मेरी खुल कर ठन गयी तब एकाधिक बार मुझे यह सोच कर अफ़सोस भी हुआ था कि घर आयी लक्ष्मी को उस समय मैंने ठुकरा क्यों दिया. सच में एक-एक पैसे की तंगी उस समय मुझे थी, और अपने निरर्थक आदर्शवाद और सच्चाई को ताक पर रख कर यदि वह रूपये मैंने उससे ले लिये होते तो महीनों मेरा अच्छा-खासा काम चल सकता था.

खैर, यह तो बात की बात हुई जिसका उल्लेख एक खास प्रसंग के सन्दर्भ में मुझे करना पड़ा. वैसे कुछ ही दिनों बाद यह राज़ भी मेरे सामने खुल गया कि बम्बई के फ़िल्म संसार में पैसे फंेक कर न केवल अपनी तारीफ़ छपवायी जा सकती है बल्कि उसके बल पर दूसरों को गालियां भी दिलवायी जा सकती हैं. जैसा पहले ही बता चुका हूं, उन्हीं दिनों उत्तरप्रदेश फ़िल्म पत्रकार संघ द्वारा फ़िल्मनिर्माण की विभिन्न विधाओं में उल्लेखनीय योगदान करने के निमित्त समीक्षकों की जिस पुरस्कार सूची की घोशणा की गयी उसमें वर्ष के सर्वश्रेष्ठ गीतकार के रूप में हसरत का नाम था. हालांकि उस घटना में भी परोक्षरूप से शैलेन्द्र का ही हाथ था लेकिन प्रत्यक्षतः वह सबसे यही कहता रहा कि उसके स्थान पर हसरत को जानबूझ कर मैंने पुरस्कृत करवाया है, और ऐसा करके एक बार फिर मैंने उसकी साख को नीचे गिराने की चेष्टा की है. राज कपूर, देव आनन्द और साहिर लुधियानवी जैसे लोगों से भी उसने इस तरह की शिकायतें कीं, लेकिन मैं उन सब वार्त्ताओं के प्रति उदासीन ही बना रहा.

पहले वाले दिन होते तो इन सब चक्करों में पड़ कर शायद मैं पागल हो गया होता. लेकिन इतने दिनों बम्बई में रहने के बाद मेरे दिल की परत खासी मोटी हो चुकी थी और इसी से उन घटनाओं को मैंने सामान्य से ज्यादा महत्व नहीं दिया. वह मेरे दिमाग़ के घेरे में ही रह कर बुझ गयीं, दिल के कोनों तक नहीं पहुंच पायीं. मुझे लगा, जीवन संघर्ष में मैं उतरा हूं तो इस तरह के षडयंत्रों का सामना मुझे करना ही पड़ेगा – फिर चाहे उसे खुशी से करूं चाहे चार आंसू बहा कर. और मैंने पहला वाला पर्याय ही स्वीकार किया. और जब मैंने यह निर्णय लिया तब एकाएक अपने को काफ़ी हलका महसूस करने लगा था मैं. मेरे विरूद्ध क्या कुछ षड्यंत्र कोई कर रहा है इसकी जानकारी भी पूर्णतः निस्पृह ढंग से ही मैं लेता-देता रहा. शैलेन्द्र से मिलना जुलना मैंने बिलकुल ही बंद कर दिया था. मुझे लगता था उसके साथ मेरे संबंध पूरी तरह टूट चुके हैं और चाहने पर भी हम लोग अब उसे किसी तरह नवीकृत नहीं कर सकते. लेकिन प्रकृति शायद इतनी जल्दी हम लोगों का विछोह सहन नहीं कर सकती थी, और इसी से उसने एक बार फिर हम लोगों को एक दूसरे के सामने खड़ा कर दिया.

सन् 1964. ठीक होली का दिन. होली में रंग सामान्यतः मैं कभी नहीं खेलता, और उससे पूरी तरह अपने को बचा कर रख सकूं इससे उस दिन अपने को मैं घर की चहारदीवारी के अन्दर ही बन्द रखता हूं. उस दिन की होली का प्रारंभ भी मैंने ऐसे ही किया था. होली की पूर्व-संध्या मैं चलती का नाम गाड़ी ख्यातिप्राप्त निर्माता अनूप शर्मा के यहां अच्छी तरह खा-पीकर मना चुका था, और होली के दिन तीसरे पहर तक लेट कर सोने के अतिरिक्त मेरा कुछ भी कार्यक्रम नहीं था. मेरी आंखों में भी अच्छी-खासी खुमारी बसी हुई थी और उस खुमारी से अपने को मुक्त करने की न मुझे ज़रूरत थी, न इच्छा.

तभी मुझे एक साल पहले, अर्थात 1963 की होली याद आने लगी. क्या शानदार होलिकोत्सव मनाया था हम लोगों ने 9 आनन्दकुंज में उस अवसर पर. बम्बई में उन दिनों मद्यनिपेध का कार्यक्रम इस तेज़ी से लागू था कि भंग भी कहीं नहीं मिल पाती थी. उसका इन्तज़ाम करने के लिये मैं खासतौर पर लखनऊ गया और वहां से अपने साथ लाया भंग की पत्तियों के साथ ढेर सारे मेवे — पिस्ता, बादाम, काजू, अखरोट, मुनक्के, किशमिश, मगज़कद्दू, गुलाब की पंखड़ियां और न जाने कितनी दूसरी चीज़ें. बम्बई वापस लौटते ही भंग का एक पूरा पैकेट मैंने सौंप दिया था बनारसी मिप्ठान्न भण्डार के मोती बाबू के हाथों बरफ़ी बनाने के लिये. उत्सव मे शरीक होने के लिये मैंने जिन लोगों को आमंत्रित किया था उनमें लेखक भी थे और पत्रकार भी, अभिनेता भी थे और गीतकार भी, मित्र भी थे और सामान्य परिचित भी, ऐसे लोग भी थे जिनसे मैं पहले कभी मिला नहीं था, और वैसे भी जिनके यहां मेरा मेरा रोज़ का आना जाना था. घर्मेन्द्र, भारतभूपण, शैलेंद्र, धर्मवीर भारती, कृशनचन्दर, मोहन राकेश, राजेन्द्रसिंह बेदी, सुदर्षन, नरेन्द्र शर्मा, व्रजेन्द्र गौड़, कन्हैयालाल नन्दन, राजेन्द्र अवस्थी, फणीष्वरनाथ रेणु, ओंकार श्रीवास्तव और पता नहीं कितने दूसरे बंधुबांधव उसमें उल्लासबहुलता के साथ सम्मिलित हुए थे. बम्बई में वैसे भी होली के अवसर पर कोई खास समारोह नहीं मनाया जाता, मात्र अपने नज़दीकी लोगों के गले मिलकर लोग उत्सव की पूर्णाहुति कर देते हैं. इसी से उस दिन जो मजमा मेरे फ़्लैट में उपस्थित हुआ था उसे निष्चित ही अभूतपूर्व कहा जायेगा.

उस दिन सुबह से ही मैंने अपनी बिलडिंग के पहाड़ी चौकीदार को भंग पीसने के काम में लगा दिया था, और अपने दो सहयोगियों के साथ दत्तचित्त होकर वह उस काम में लगा हुआ था. तीन बजे के आसपास बनारसी मिप्ठान्न भण्डार जाकर मैं भंग से बनी बर्फ़ी के थाल भी ले आया. पांच बजे के आसपास मैंने लोगों को अपने यहां आमंत्रित किया था. बर्फ़ी के थालों के साथ जब मैं घर वापस लौटा तब तक भंग तैयार हो चुकी थी. चौकीदार ने मुझसे आग्रह किया कि उसे चख कर उसकी खामियां मैं उसे बता दूं जिससे उसमें अगर कोई कमी रह गयी हो उसे ठीक किया जा सके. भंग सचमुच बहुत अच्छी बनी हुई थी, उसके दो-तीन गिलास मैंने एक साथ पी डाले. पिस्ता-बादाम और दूसरे मेवाज़ात उसके अन्दर से खुल कर बोल रहे थे. इस बीच मैंने सोचा कि एक बार बर्फियों का ज़ायका भी क्यों न ले लिया जाये, और फिर लगातार आठ-दस बर्फियां मैं उदरस्थ कर गया. इन सब कृत्यों का परिणाम यह हुआ कि अतिथि आते गये औरं उनका स्वागत करने की अवस्था में भी मैं नहीं रह पाया. जैसा बाद में मालमू हुआ, आगत सज्जनों ने भी भंग और भंगमिश्रित मिठाइयों का पूरा रसास्वादन किया, और फिर हम सभी गुट बना कर जुहू बीच के लिये निकल पड़े. वहां फैली बालुका पर लेट कर हम लोगों ने क्या कुछ गुल खिलाये, इसकी किसी को भी कोई याद नहीं रह पायी. पता चला कि रात दस-ग्यारह बजे तक लोग वहीं पड़े रहे थे, और नषे में कुछ कमी आने के बाद ही हमारा अपने घर वापस लौटना संभव हो पाया था.

खैर, वह था 1963 का होलिकोत्सव, और बात चल रही है 1964 की होली की. उनींदा-उनींदा सा मैं अपने कमरे में अधसोया ही पड़ा हुआ था कि खिड़की के बाहर मैंने अच्छा-खासा शोर सुना. होली की वजह से कुछ न कुछ शोरशराबा तो उस दिन सुबह से ही हो रहा था, लेकिन इस शोर में मुझे अपने नाम की प्रतिध्वनि भी सुनायी दी. लगा, नाम लेकर कोई मुझे पुकार रहा है. खिड़की खोल कर मैंने बाहर झांका तो देखा कि आठ-दस परिचित-अपरिचित चेहरों के साथ, हाथों में रंग की बालटी लिये हुए, शैलेन्द्र मुझे आवाज़ दे रहा है — यार, होली के दिन तो सात जनम के दुश्मन भी एक दूसरे की तरफ़ दोस्ती का हाथ बढ़ा देते हैं, हम लोगों का मनमुटाव तो अभी साल भर का भी नहीं हो पाया है — वह मुझसे कह रहा था. मेरे लिये इंकार का कोई प्रश्न ही नहीं था. मैंने दरवाज़े खोल दिये और वह सबके सब अन्दर घुस आयेे. खैर, रंग से तो भीगना ही था, और उससे मैं पूरी तरह सराबोर भी हुआ. फिर, जैसा कि होली के हुड़दंगों का दस्तूर है, मैं स्वयं भी उस दल के साथ आगे बढ़ने के लिये तैयार हो गया, और हम लोग शैलेन्द्र की गाड़ी में बैठ कर किसी दूसरे साथी को भिगोने के लिये रवाना हो गये.

मुझे पता नहीं, वहां से जिस जगह हम लोग गये वह कहां पर थी – शायद विलेपार्ले रहा होगा, क्योंकि पांचेक मिनट के अन्दर ही हम लोग वहां पहुंच गये थे. जिस व्यक्तिविशेश के घर के सामने हम लोगों ने अपनी गाड़ी रोकी वह मेरा सर्वथा अपरिचित था – फ़िल्मी दुनिया से तो शायद उसका कुछ भी ताल्लुक नहीं था. बाद में पता चला कि वह उस इलाके के प्रमुख दादाओं में है, स्मगलिंग का धन्घा करता है, शैलेन्द्र और उस जैसे दूसरे लोग उसी के माध्यम से स्कॉच की बोतलें पाते हैं, अपनी काली कमाई से वह एक शानदार होटल का भी निर्माण कर रहा है, लेकिन साथ ही चूंकि पुलिस के लिये वह मुखबिरी का काम भी करता है इससे क़ानून-व्यवस्था उसके प्रति सदा सदय रही है. लम्बा-चौड़ा डीलडौल, दूर से ही पहलवान जैसा लगने वाला. उसके साथ चार-छः और लोग भी थे, उसके ही जैसी सजधज में.

उन लोगों को शैलेन्द्र ने कुछ इस तरह मेरा परिचय दिया जैसे मैं ही उस दल का नेता हूं. — यही हैं हमारे श्री रामकृष्णजी, जिनके बारे में आप लोगों को बहुत कुछ बता चुका हूं. हसरत और गुलज़ार के आशिकों में हैं यह, और इनके खयाल में मुझे क़लम पकड़ने का भी शऊर नहीं है. — उसने कहा, और फिर अपनी बायीं आंख दबा कर हलके से हंस दिया.

मारधाड़, रहस्य-रोमांच की फ़िल्में देखी हैं न आपने? उसमें एक विलेन होता है, विलेन का एक तहखाना होता है, तहखाने में उसके आठ-दस गुर्गे होते हैं, और उनकी आंखों से इस तरह की लपटें निकलती हैं कि उन्हें देखते ही सामान्य आदमी गश खाकर धराशायी हो जाये. अपनी जिन तीखी नज़रों से अपलक वह लोग उस समय ऊपर से नीचे तक मेरी पैमाइश कर रहे थे उससे मुझे लगा जैसे मैं भी बेहोश होकर गिरने वाला हूं. लेकिन मैं सचमुच बेहोश होता उसके पहले ही मैंने शैलेन्द्र को यह कहते हुए सुना – आप लोग अभी हमारे साथ ही चलिए. इनके प्रोग्राम को बाद में तय किया जायेगा.

उस समय मेरी मनस्थिति क्या थी, इसकी तस्वीर अब तक मेरी आंखों में ज्यों की त्यों बसी हुई है. यह तो नहीं कहूंगा कि डर नहीं लग रहा था, लेकिन साथ ही इस बात को जानने की उत्सुकता भी थी कि आखिर वह लोग अब करते क्या हैं? उस वक्त तो मैं चाहता तब भी उनके चंगुल से निकलना मेरे लिये पूरी तरह नामुमकिन था. इससे पूरी तरह अपने को भाग्य के हवाले कर देना ही मैंने ज्यादा उचित समझा.

शैलेन्द्र के घर तक पहुंचने के पहले ही उन लोगों ने मेरा चश्मा अपने कब्ज़े में कर लिया था. फिर किसी ने इस तरह उछाल कर उसे गाड़ी के बाहर फेंक दिया जैसे वह किसी छोटे बच्चे की गेंद हो. रिमझिम पहुंचने के बाद सब लोग एक बार फिर रंग से सराबोर किये गये. फिर हम घर के पीछे वाले उस कमरे में ले जाये गये जो आमतौर पर शैलेन्द्र के रिहर्सलरूम की तरह इस्तेमाल किया जाता था. वहां पीने का भी इन्तज़ाम था, और खाने का भी. मुझे याद पड़ता है, शुरू में मैंनें कुछ भी खानेपीने से इंकार कर दिया था. बाद में लोगों के बहुत ज़ोर देने पर एक-दो काजू मैंने अपने मुंह में डाले, लेकिन वह मुझे नीम से भी ज्यादा कड़वे और बदज़ायका लगे थे. शैलेन्द्र हर मिनट-दो मिनट बाद मुझे याद दिलाता रहा था – रामकृष्ण, यह सामने जो लोग बैठे हुए हैं वह शेर को भी हाथ से उठाकर उछाल देते हैं, तुम्हारे जैसे लोगों की तो बिसात ही क्या? उसकी इन सब बातों को प्रत्यक्षतः मैं बहुत ही हलकेपन के साथ ग्रहण करने का प्रदर्शन करता रहा, हालांकि मेरे अन्तर में जिस भय, आक्रोश और घृणा का समन्वय हो रहा था उसकी कल्पना ही की जा सकती है.

किस्सा-कोताह यह कि शाम के चार-पांच बजे के आसपास खा-पीकर हम लोग रूख्सत होने के लिये जब रिमझिम के बाहर निकले तो शेरों को उछाल कर फेंकने वाले शैलेन्द्र के दोस्तों ने बेइन्तहा इस बात की कोशिश की कि किसी तरह मैं उनकी गाड़ी में बैठ लूं. उन्होंने मेरा रास्ता भी रोका, हाथ से पकड़ कर साथ ले चलने की चेष्टा भी की. लेकिन संयोगवश या कुछ इस वजह से कि उस समय स्वयं वही लोग इस क़दर मदमस्त थे कि उनके खुद के अपने पैर भी सही जगह पर नहीं पड़ पा रहे थे उनके चंगुल से निकल कर अपने फ़्लैट तक वापस पहुंचने में मैं समर्थ हो सका.

 

 

उस रात ठीक तरह मुझे नींद भी नहीं आ पायी थी. दिन भर की घटनाएं एक कटु दुस्वप्न की तरह मेरे मन-मस्तिष्क में घूमती रही थीं और मैं सोचता रहा था कि कोई भी सभ्य, सुसंस्कृत व्यक्ति इस सीमा के कमीनेपन तक आखिर कैसे उतर सकता है – खासतौर पर शैलेन्द्र जैसा व्यक्ति जिसका मैंने कभी बुरा नहीं चाहा, जिसको हर तरह की मदद देने की हरदम मैंने कोशिश की, और जो फ़िल्मी दुनिया में बेहद शिष्ट, बेहद मधुर व्यक्तित्व का स्वामी समझा जाता था.

मुझे स्मरण है, दूसरी सुबह उठने तक अपने मन में इस बात का मैंने पूरी तरह निश्चय कर लिया था कि अब मुझे क्या करना है. महाराष्ट्र की राज्यपाल उन दिनों श्रीमती विजयलक्ष्मी पण्डित थीं. अनेक व्यक्तिगत कारणों से हालांकि बम्बई में रहते हुए मैं एक बार भी उनसे मिलने नहीं गया था, तब भी इस अवसर पर उनकी सहायता प्राप्त करना मैंने ज़रूरी समझा. राजभवन टेलिफ़ोन करने पर उनके सचिव सियाराम सिंह से मेरी भेंट हुई. उन्होंने बताया कि श्रीमती पण्डित बाहर गयी हुई हैं और उस महीने के अन्त तक उनके वापस लौटने की कोई संभावना नहीं है.

सियाराम सिंह से मैं बम्बई के पूर्व राज्यपाल श्री श्रीप्रकाश के ज़माने से परिचित था. उनसे जब मैंने पूरा किस्सा बताया तो उन्होंने बगैर मेरे किसी आग्रह या अनुरोध स्वयं ही मुझसे कहा कि स्थानीय पुलिस कमिश्नर को वह तत्काल तत्संबंध में टेलिफ़ोन कर रहे हैं – स्वयं अपनी ओर से भी मैं सान्ताक्रुज़ थाने में अपेक्षित रपट दर्ज़ कर दूं तो अच्छा रहेगा – और फिर निर्भय होकर मैं अपने घर में बैठूं.

उसी दिन शाम के तीन-चार बजे का समय होगा. मैं घर पर ही बैठा था, एक दो संगीसाथी भी शायद मेरे साथ थे. घन्टी बजने पर जब मैंने दरवाज़ा खोला तो देखा कि दो पुलिस अधिकारियों के साथ शैलेन्द्र वहां पर खड़ा हुआ है, उसी लुंगी और कुरते में सज्जित जिसमें इसके पहले भी सैकड़ों बार वह वहां आ चुका था. पहुंचते ही इस तरह वह मेरे गले से चिपट गया जैसे बरसों बाद दो भाइयों में मिलन हो रहा हो. — यह क्या कर डाला तुमने, रामकृष्ण? — बेहद रूंआसे स्वरों में वह कह रहा था — वह सब तो होली का मज़ाक था, दोस्त, जिसे तुमने इस क़दर सीरियसली ले लिया.

उसके इस अप्रत्याशित आलिंगन से किसी तरह जब मुझे मुक्ति मिली तो हम लोग अन्दर आकर ड्राइंगरूम में बैठ गये. शैलेन्द्र के आंसू तब भी ज़ारी थे. मुझे पता नहीं कि वह आंसू असली थे, या नकली? हो सकता है, वह सच ही उसके दिल की गहराइयों से निकले हों और उसे वस्तुतः अपनी उन सब कारगुज़ारियों पर पश्चात्ताप हो रहा हो जिन्हें उसने बीते दिन किया था. यह भी हो सकता है कि पुलिसकर्मियों के बीच में पड़ने से वह दिग्भ्रमित, भयग्रस्त हो गया हो, और प्यार या पश्चात्ताप नहीं बल्कि कोरे डर के कारण वह मेरी ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाना चाहता हो. इस बात की आशंका भी थी कि इस समय जो कुछ वह कह रहा है वह सब पहले की ही तरह झूठ और मक्कारी से भरा हुआ हो, और मौका मिलते ही वह फिर मुझ पर वार करने की कोशिश करें.

मुझे याद है, शैलेन्द्र से उस वक्त मैंने कहा था — अगर तुमने मज़ाक किया था, बंधु, तो यह सब भी मज़ाक से ज्यादा कुछ नहीं. इतने मामूली-मामूली खेलतमाशे में ही तुम्हारे आंसू निकल आते हैं, तो आगे क्या करोगे?

— बस, बस — मेरे मुंह पर हाथ रखते हुए वह बोला था — आगे की बात न करो, आगे कुछ नहीं होगा, कुच्छ नहीं ….

हम लोगों में करीब पन्द्रह-बीस मिनट तक यह सब वार्त्तालाप होता रहा था. पुलिस अधिकारी दर्शकमात्र थे. लगता था जैसे हम लोगों के बीच वह मात्र मध्यस्थ बन कर आये हों, उससे ज्यादा उनकी कोई भूमिका न हो. कुछ देर बाद हम लोगों की बातचीत जब कुछ रूकी तो उनमें से एक बोला था – चलिए, आप लोगों का मनमुटाव खतम हो गया, यह अच्छी ही बात हुई. अब इसी खुशी में आज रात आपके यहां हम लोगों की एक दावत हो जाये, क्यों शैलेन्द्रजी?

शैलेन्द्र में यह सुन कर जैसे कुछ आत्मविश्वास जग गया हो. — हां, हां ज़रूर. लेकिन बराए-मेहरबानी अपने इस यूनिफ़ॉर्म में उस समय नहीं आइएगा. — अपने होठों पर किंचित मुस्कान लाने की चेष्टा करता हुआ वह बोला था — और रामकृष्ण, तुम्हें भी उसमें शरीक होना है, तुम्हारे बगैर उसमें मज़ा नहीं आयेगा. — मेरे कंधों को हिलाते हुए उसने आगे कहा था.

मैंने हामी भर ली थी. उस समय इसके अतिरिक्त मैं कुछ कर भी नहीं सकता था.

घन्टे-डेढ़ घन्टे बाद ही वह लोग रवाना हो गये थे. मैंने सोच लिया था, मुझे अब शैलेन्द्र के दरवाज़े हरगिज़ नहीं जाना है. कुछ ही देर बाद अपने पुराने मित्र अभिनेता भारतभूशण के यहां मैं चला गया, और वहीं से शैलेन्द्र को मैंने इस बात की सूचना दे दी कि किन्हीं अपरिहार्य कारणों से उस रात मेरा उसके यहां आना संभव नहीं हो पायेगा.

दूसरी सुबह दो टेलिफ़ोन लगभग एक साथ मुझे मिले. पहला टेलिफ़ोन शैलेन्द्र का था. रात को मेरे न आने के लिये बहुत शिकवा-गिला उसने की, बताया कि खुद तीन-चार बार मेरे घर वह मुझे लेने के लिये आया लेकिन हर बार मेरे दरवाज़े उसे बन्द मिले. उसने बताया कि पुलिस अधिकारी भी किसी वजह से उसके यहां नहीं पहुंच पाये थे, और वह शाम पूरी तरह फीकी गयी थी.

दूसरा टेलिफ़ोन मेरे एक मित्र का था. बहुत दिनों बाद वह बम्बई आया था, और ज़ाहिर है कि इधर की घटनाओं की उसे कोई जानकारी नहीं थी. बीती रात वह शैलेन्द्र के यहां गया था. उस समय कुछ अन्य व्यक्ति भी वहां मौजूद थे जिनमें से एक-दो मेरे भी परिचित थे. वहां की जो रपट उसने मुझे दी उससे मेरे कान चौकन्ने हो गये. मित्र ने बताया कि उपस्थित लोगों को उस पूरी अवधि शैलेन्द्र सिर्फ यह बतलाता रहा था कि कैसे मेरे यहां उसने पुलिस भिजवायी, कैसे मुझे पकड़ कर रिमझिम लाया गया, कैसे मैंने उसके चरण छूछूकर अपने किये की क्षमायाचनाएं कीं, और कैसे मैंने अपने कान पकड़ कर इस बात के वायदे किये कि आगे कभी अपनी उन ग़लतियों को मैं नहीं दुहराऊंगा. मित्र को यह सब सुन कर बेहद आश्चर्य हुआ था और वह जानना चाहता था कि उसमें कितना कुछ सच है. उसी ने यह भी बताया कि अधिकांश लोग सारे समय शैलेन्द्र की जीहुज़ूरी करते रहे थे और उसके दुखदर्द से अभिभूत होते हुए स्वयं भी सहानुभूति और समवेदना के घड़ियाली आंसू बहाते रहे थे.

शैलेन्द्र से इस तरह की किसी बात की आशंका मुझे न हो, ऐसी बात नहीं थी. उसको लेकर तब तक जो भी अनुभव मैंने संचित किये थे उन्हें देखते हुए यह अचरज की ही बात होती अगर वह यह सब नहीं करता. तब भी मित्र के कथोपथन पर आंख मूंद कर विश्वास करने के बजाये शैलेन्द्र से सीधे-सीधे उसकी पुष्टि करना मैंने अधिक उचित समझा.

टेलिफ़ोन पर शैलेन्द्र स्वयं मिला. मित्र से जो कुछ मैंने सुना था उसे ज्यों का त्यों मैंने उसे बता दिया. एक डेढ़ मिनट तो वह बिलकुल बोला ही नहीं – उसे शायद इसका अचरज हो रहा था कि वह सब बातें कैसे और किस तरह मुझ तक पहुंच सकी.

फिर, अपनी आवाज़ में बेहद अपनापन लाते हुए उसने कहा था — यार, नशे की हालत में मुंह से कुछ ग़लत-सलत निकल गया हो तो मैं नहीं कह सकता, अपनी याद में मैंने ऐसा कुछ नहीं कहा.

उसके लहज़े से साफ़ लग रहा था कि अपनी करनी का उसे पूरा ज्ञान है, और इस समय वह सिर्फ़ लीपापोती की बातें कर रहा है.

मैंने जवाब दिया था — शैलेन्द्र, आदमी नशे की हालत में जो कुछ कहता है वही उसके चिरंतन मनोभाव होते हैं – क्योंकि उस समय कोई झिझक, कोई भय, कोई संकोच उसके रास्ते में बाधक नहीं बनता. अच्छी हालत में वह झूठ बोल सकता है, धोखा दे सकता है, लेकिन नशे की अवस्था में उसके अन्तर की सारी बातें पूरी तरह बेपरदा होकर निकल पड़ती हैं. उन्हीं से उसके असली मंतव्य का पता चलता है.

शैलेन्द्र इतना सब सुन कर भी चुप रह गया था. फिर कुछ देर बाद, बहुत ही सधे हुए लहज़े में उसने अपनी बात आगे बढ़ायी थी – रामकृष्ण, लगता है उर्वशी की सुर्खियों और होली के रिहर्सल से तुमने अब तक कोई सबक नहीं सीखा. अगर अब भी तुम्हारे दिमाग़ में फ़ितूर भरा हुआ हो तो एक बार फिर तुम्हारी रही-सही इज्ज़त के गुब्बारे की हवा को निकाल दूं – बोलो.

उसकी इन बातों को सुन कर मुझे कोई झटका नहीं लगा था. देर-सबेर कभी न कभी तो अपने सही रूप में उसे मेरे सम्मुख अनावृत्त होना ही था. इसी से मैंने जवाब दिया था — अब अपने असली रूप में आये तुम, दोस्त. तुम्हारी चुनौती मुझे मंज़ूर है. लेकिन याद रक्खो, वार करना मुझे भी आता है ….

मुझे स्मरण नहीं कि टेलिफ़ोन को पहले मैंने ऑफ़ किया था या उसने, लेकिन इतना ज़रूर याद है कि हम लोगों की बातचीत बीच में ही कट कर रह गयी थी, और अपनी पूरी बात न मैं कह पाया था न वह.

उसके बाद कई महीनों शैलेन्द्र से मेरी कोई ऐसी राहरस्म नहीं रही जिसका उल्लेख किया जा सके. यों तब भी वह हर तीसरे-चौथे दिन मेरे घर आता रहा था – लेकिन मुझसे नहीं, बाबा नागार्जुन से मिलने. नागार्जुन उन दिनों मेरे ही साथ रह रहे थे. अपने स्वभावानुसार शैलेन्द्र के किसी कविता संग्रह के सम्पादन-प्रकाशन की योजना शायद उन्हों ने बनायी थी और उसी सिलसिले में उनसे बातचीत करने वह वहां आया-जाया करता था. मुहूर्त्ताें, फ़िल्मी पार्टियों में भी कई बार हम लोगों का आमना-सामना हुआ, लेकिन औपचारिक वन्दन-अभिवादन के अतिरिक्त हम लोग एक दूसरे से सर्वथा अपरिचित ही बने रहे. बाद में तो उसने घर के बाहर निकलना ही बन्द कर दिया, और उसके परिणामस्वरूप अपरिचय की वह हलकी सी श्रृंखला भी पूरी तरह टूट कर रह गयी.

नागार्जुन असल में बम्बई इस उद्देश्य से आये थे कि जिस तरह रेणु की तीसरी कसम का फ़िल्मांकन हो रहा है उसी तरह उनके बलचनमा नामक उपन्यास को भी कोई निर्माता चित्रपट का रूप दे दे. नागार्जुन रेणु की अपेक्षा वरिष्ठ साहित्यकार थे और उनकी मान्यता थी कि अगर रेणु की किसी कहानी पर फ़िल्म बन सकती है तो उनकी कहानियों को उस सुयोग से किंचित वंचित नहीं होना चाहिए. बलचनमा के साथ मैंने राज कपूर और चेतन आनन्द जैसे कतिपय फ़िल्म निर्माताओं से उनकी भेंट भी करायी, लेकिन कहीं कोई काम नहीं बन सका. हां, शैलेन्द्र ने उनको ज़रूर आश्वस्त किया कि तीसरी कसम के बाद वह निश्चित ही उनके उस उपन्यास के फ़िल्मीकरण का प्रयत्न करेंगे, और उस आश्वासन के सहारे नागार्जुन ने न केवल बम्बई से विदा लेने का अपना कार्यक्रम रद्द कर दिया बल्कि शैलेन्द्र के कविता-संग्रह की तैयारी में भी वह पूरी तरह जुट गये. पिछले दिनों का घटनाक्रम भी चूंकि मेरे मन-मस्तिष्क को सर्वथा बोझिल बना चुका था, इससे मैंने भी अपने दोनों हाथों को फैला कर नागार्जुन का स्वागत किया, और वह स्थायीरूप से मेरे यहां स्थानान्तरित हो गये.

मुझे पता था कि न शैलेन्द्र बलचनमा को फ़िल्माने के अपने आश्वासन के प्रति गंभीर हैं, और न स्वयं नागार्जुन शैलेन्द्र के प्रस्तावित कविता-संग्रह के प्रकाशन के प्रति. हो सकता है वह खुद भी ऐसा कुछ समझते रहे हों, लेकिन खुल कर अपना मंतव्य कोई भी नहीं प्रकट कर पा रहा था. दोनों इस बात के लिये सतत प्रयत्नशील रहते थे कि छद्मरूप से ही सही, दोनों की ही आकांक्षाओं-अभिलाषाओं को अपेक्षित हवा मिलती रहे जिससे अगर किसी तरह का कोई फ़ायदा उठाने का अवसर कभी उपस्थित हो तो उसे लपक कर वह अपने हाथों में थाम लें. उनकी पारस्परिक प्रशंसा के आधार में यही मूल बात थी.

अपने इसी अभियान के सिलसिले में नागार्जुन ने शैलेन्द्र का जन्म-दिवस मनाने की योजना बनायी. शैलेन्द्र को अपना जन्मदिन मनाने का बहुत शौक था, और स्वयं मेरे आनन्दकुंज में पिछले कई बरसों से उसका आयोजन किया जाता रहा था. नागार्जुन ने मुझसे जब इस बात का अनुरोध किया कि एक बार फिर मैं उस समारोह को अपने फ़्लैट में आयोजित करने की स्वीकृति उन्हें देदूं तो मैं इनकार नहीं कर पाया था. उसी अवधि में अपने किसी काम से चूंकि मुझे दिल्ली, और फिर लखनऊ, जाना था, इससे स्वयमेव उस समारोह में शामिल होने का कोई प्रश्न ही मेरे सम्मुख नहीं उठता था. नागार्जुन को मैंने इस बात की खुली छूट दे दी कि मेरी अनुपस्थिति में वह जैसे चाहें मेरे घर का उपयोग करें. शैलेन्द्र को भी वहां आने में क़तई कोई ऐतराज़ नहीं था.

दिल्ली के एक समारोह में अचानक मेरी भेंट तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता बाबू जगजीवन राम से हो गयी. मुझे मालूम था कि जगजीवन बाबू शैलेन्द्र के प्रशंसकों में थे. कुछ समय पहले बम्बई में सम्पन्न एक फ़िल्म पुरस्कार समारोह में उन्होंने शैलेन्द्र की भूरिभूरि अनुशंसा भी की थी. मुझे मालूम था कि नाम से वह भले ही मुझे न जानते हों लेकिन शकल से ज़रूर पहचानते थे, और उनको यह बात भी मालूम है कि मै शैलेंद्र के परिचितों में हूं. इसी से मिलने पर उन्होंने जब शैलेन्द्र के बारे में रस्मी पूंछतांछ की और मैंने उनको बताया कि अगले ही सप्ताह बम्बई में शैलेन्द्र की जयन्ती मनायी जा रही है तो वह स्वभावतः बहुत प्रसन्न हुए. उन्होंने कहा कि सन्त रविदास के बाद वह शैलेन्द्र को ही हिन्दी का सबसे बड़ा कवि मानते हैं, और इसका उन्हें गर्व भी है.

उनकी इस बात को सुन कर मैं चौंक उठा था. मुझे समझ में नहीं आ पाया कि सन्त रविदास और शैलेन्द्र में आखिर समानता की बात क्या है. तब भी मैंने उनसे अनुरोध किया था कि उस अवसर के लिये शुभकामनाओं का अपना कोई सन्देश अगर वह दे सकें तो उस समारोह में चार चांद लग जायेंगे. जब उन्होंने पूंछा कि सन्देश किसके नाम और किस पते पर भेजना है तो नागार्जुन के स्थान पर अचानक मैं बदरी कांचवाला का नाम बता बैठा. बदरी कांचवाला उन दिनों मराठी और गुजराती के अनेक पत्रों के साथ हिन्दी में भी रस नटराज के नाम से एक फ़िल्म साप्ताहिक निकाल रहे थे और उसकी प्रसार संख्या उर्वशी के मुकाबले कम से कम दोगुनी थी. बाबूजी ने अपने परिसहायक को यह बात नोट करा दी और आश्वस्त किया कि दूसरे ही दिन अपने सन्देश को वह बम्बई भिजवा देंगे.

दिल्ली रहते हुए ही मैंने बदरी कांचवाला को इस बात से अवगत कर दिया था. उनसे मैंने कहा था कि मेरे या शैलेन्द्र के घर टेलिफ़ोन कर वह यह पता लगा लें कि जयन्ती समारोह कब और किस समय है, और जगजीवन बाबू का सन्देश अगर उन्हें समय से प्राप्त हो जाये तो उसे साथ लेकर वह न केवल उस समारोह में सम्मिलित हों बल्कि अपने पत्र में समारोह का पूरा कवरेज देने की व्यवस्था भी वह करें. मैंने उनसे कहा था कि मेरे या शैलेन्द्र के मध्य भले ही कुछ मनमुटाव हो गया हो, लेकिन चूंकि हिन्दी फ़िल्मों के गीत-लेखन का वह एक सशक्त हस्ताक्षर है इससे उसकी अभ्यर्थना होनी ही चाहिए.

लखनऊ पहुचने के एक दो दिन बाद जब मैंने रस नटराज का ताज़ा अंक देखा तो उसके प्रथम पृष्ठ पर समारोह की विस्तृत रपट के साथ ही जगजीवन बाबू की शुभकामनाएं भी छपी हुई थीं. अपने सन्देश में उन्होंने अपना वही पुराना अभिमत दुहराया था — सन्त रविदास के बाद शैलेन्द्र हिन्दी के सर्वाधिक लोकप्रिय हरिजन कवि हैं, और उनके जन्मदिवस के अवसर पर मैं उनका शतशत अभिनन्दन करता हूं.

सुनते हैं, इसके बाद शैलेन्द्र ने अपने घर से बाहर निकलना पूरी तरह बंद कर दिया था और उसके सार्वजनिक जीवन पर अचानक जैसे एक लगाम सी लग गयी थी.

शैलेन्द्र के अवसान का समाचार जब मुझे लखनऊ में मिला तो उसे सुन कर मुझे अन्दरूनी तकलीफ़ हुई थी. सच कहूं तो मुझे अब भी शैलेन्द्र की बहुत याद आती है. मुझे लगता है कि स्वयं बहुत नेकदिल और अच्छा इंसान होने के बावजूद आदमी को पहचानने की कला में वह नितान्त अनाड़ी था, और अपनी इसी कमज़ोरी की वजह से वह आजीवन दुखी और त्रस्त रहा. अपने जो भी साथी और सहयोगी उसने चुने उनमें एक भी निहित स्वार्थ से मुक्त नहीं था. खुशामद और चापलूसी को वह प्रशंसा समझता रहा, और किसी ने निःस्वार्थ भाव से यदि उसे कुछ समझाने की कोशिश की तो वह हमेशा उसकी उपेक्षा और उदासीनता का शिकार बना. उसके जीवन-दर्शन की यही त्रासदी उसे पूरी तरह ले डूबी. अन्यथा चवालीस बरस की उम्र किसी के मरने की नहीं होती.

2 COMMENTS

  1. श्रद्धेय राम कृष्ण जी ने मेरी टिप्पणी पर व्यक्ति गत रूपसे इमेल भेज कर कुछ तथ्यों से अवगत कराया था,जिसमे एक तथ्य यहभी था कि स्वर्गीय शैलेन्द्र के जीवन काल में यह लेख लिखा गया थाऔर स्वयं शैलेन्द्र को इस लेख की बाबत ज्ञान था.लेख बड़ा है,अतः मैंने पहली टिप्पणी के समय इसको पूरा पढ़ा नहीं था,जिस पर श्री राम कृष्ण जी ने एतराज भी जताया था कि बिना पूरा लेख पढ़े मुझे टिप्पणी नहीं करना चाहिए .था.आज मैं पूरा लेख पढ़ गया हूँ,पर पूरे लेख को पढने के बाद मेरी दुविधा और बढ़ गयी है.श्री रामकृष्ण जी ने इस लेख में एक जगह लिखा है कि
    “आज तो न केवल बम्बई बल्कि स्वयं जुहू के आसपास मंहगे से मंहगे पंचतारा होटलों की भरमार हो चुकी है, लेकिन उन दिनों धुर-दक्षिण के व्यावसायिक इलाके में अवस्थित ताजमहल होटल के अतिरिक्त सन एन‘ सैन्ड ऐसा अकेला होटल था जिसमें खाना-पीना रहना-ठहरना लोग स्टेटस सिम्बल मानते थे”
    इस कथन से तो यह साफ़ निष्कर्ष निकलता है कि यह लेख स्वर्गीय शैलेन्द्र के स्वर्ग वासी होने के बहुत बाद लिखा गया है.इसमे एक जगह सन एंड सैंड के दो दिन के किराए काभी जिक्र है.मैं पहली बार १९६८ में बंबई गया था.उस समय सन एंड सैंड में एक दिन का किराया महज ६० रूपये था.मेरी औकात उस होटल में ठहरने की नहीं थी.मैं तो वहां केवल तफरीह के लिए गया था.ठहरा तो था मैं होटल औटरम में जो विक्टोरिया टर्मिनस स्टेशन के समीप सिद्धार्थ कालेज के ऊपर वाले हिस्से में था .वहां कमरे का किराया सबेरे के नाश्ते के साथ उस समय महज बारह रूपये प्रति दिन था.उन्ही दिनों मनोज कुमार की .पहचान फिल्म आयी थी.,उसमे होटल अम्बेसडर के कमरे का किराया ६० रूपये बताया गया था.
    इन सब बातों से तो यही निष्कर्ष निकलता है कि यह लेख स्वर्गीय शैलेन्द्र के स्वर्ग वासी होने के बाद लिखा गया है,पर श्री राम कृष्ण जी जैसे वुज्रुर्ग और वरिष्ठ लेखक और पत्रकार के विरुद्ध कुछ लिखना भी ठीक नहीं लगता.ऐसे पचासी वर्ष की उम्र सीमा पार कर चुकने पर भी वे इतने सक्रिय हैं यह हम सभी के लिए बड़े गर्व की बात है .

  2. रामकृष्ण जी आपने गड़े मुर्दे उखाड़ने के लिए इतना लम्बा लेख लिखा कि मेरे जैसा आदमी भी उसको पूरा नहीं पढ़ सका.आपको पता नहीं यह क्यों नही ज्ञात है किसी के भी मरणोपरांत कुछ झूठी कुछ सच्ची ऐसी बातें लोगो के सामने रखना जिसको आप प्रमाणित न कर सके किसी भी सभ्यता के विरुद्ध है.हमारे संस्कारों में तो यह भी मान्य है कि किसी भी मृत व्यक्ति के सम्बन्ध में ऐसा सच भी कहना गलत है.जो उसके चरित्र पर दाग लगाता हो.मैं स्वयं हसरत और शैलेन्द्र के गीतों का प्रशंसक रहा हूँ.मुझे यह कतई अच्छा नही लगेगा कि उन दोनों के विरुद्ध निराधार वक्तव्य दिए जाएँ या उन की निराधार छिछालेदारी की जाए.ऐसे इसके पहले आपने एक लेख में कुंडल लाल सहगल का भी समकालीन होने का दावा किया है.क्या वह केवल आपकी कल्पना थी कि वाकई आज आपकी उम्र बयासी को पार कर चुकी है?

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