हिन्दी का सामर्थ्य , यह बाजार की भाषा है

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डॉ. मयंक चतुर्वेदी
बाजार में हर चीज बिकती है, यहाँ तक कि हवा, पानी, मिट्टि से लेकर हर वह चीज जिसे किसी न किसी रूप में बेचा जा सके, और जो बिकने लायक न भी हो, लेकिन बाजारवादी सिद्धांत कहता है कि उसकी भी कुछ न कुछ कीमत अवश्य होती है, ऐसे में जो उस चीज को भी बेचने में माहरत हासिल करले या पहले से रखता हो, बाजार उसे ही अपना नेता चुन लेता है। इग्लैण्ड और अमेरिका, चीन, जापान ने इस बात को समझ लिया और देखते ही देखते यह दुनिया पर छा गए।
बाजार का आशय यहाँ उन सिद्धान्तों से है, जो यह तय करते है कि प्रत्येक वस्तु, व्यक्ति या पदार्थ की कीमत आखिर क्या होगी। इन दिनों दुनियाभर में बाजारवादी शक्तियों के बीच अधिनायकत्व को लेकर जंग छिड़ी हुई है। गहराई से देखा जाए तो यह लड़ाई आज की उपज नहीं है, दुनिया में जब से अर्थ और अर्थ केन्द्रित व्यवस्था का आरंभ हुआ है, तभी से हमें आर्थिक शक्ति केंद्रों के बीच परस्पर संघर्ष नजर आता है। यहां बताना होगा कि यह संघर्ष धर्म का विस्तार, संस्कृति और भाषा के स्तर पर सबसे अधिक दिखाई देता है। कभी इंग्लैण्ड को भी फैंच के सामने लगता था कि उनकी भाषा का विस्तार होगा भी कि नहीं , क्यों कि ब्रिट्रेन का अधिनायक वर्ग अंग्रेजी को दोयम दर्जे की समझते हुए तेजी से फैंच भाषा सीखने और बोलने के लिए प्रवृत्त हुआ था। उस समय हमारी भाषा हिन्दी की तरह ही अपनी भाषा के स्वाभिमान और विस्तार के लिए निज भाषा उन्नति को मूल सिद्धांत से प्रेरित होकर इंग्लैण्ड में भी आंदोलन खड़ा होकर सफल हुआ था। इसके बाद वैश्विक परिदृश्य में आज अंग्रेजी की क्या स्थिति है, यह किसी को बताने की जरूरत नहीं है।
अंग्रेजी में भी भेद हो गए है, जब से अमेरिका विश्व पटल पर छाया है और आर्थिक महाशक्ति बना है तभी से एक नए किस्म की अंग्रेजी ने दुनियाभर में अपना साम्राज्य स्थापित करना आरंभ किया है जिसे हम बोलचान की भाषा में अमेरिकन इंग्लिश कहते हैं। वर्तमान में ब्रिटिश और अमेरिकन किसी भी इंग्लिश को ले लीजिए कमियां अभी भी इस भाषा के साथ पूर्वत ही हैं। चहुंओर अंग्रेजी बोलने और लिखने के अलग-अलग तरीके हैं, जिसे कि कम्प्युटर भी सहजभाषा के रूप में स्वीकार नहीं कर पाता है, किंतु इसके बावजूद भी सभी ओर बोलबाला अंग्रेजी का दिखाई देता है। लेकिन यह स्थिति आगे भी यूंही बनी रहेंगी, यह तो जरूरी नहीं। क्यों कि अब वैश्विक परिदृश्य में परिस्थितियाँ बदल रही हैं। उपभोगताओं का युग है, बाजार में जिस भाषा का जितना अधिक उपभोक्ता होगा, बाजार उसी भाषा में बात करता हुआ दिखाई देता है।
थोड़ी देर के लिए दो भाषाओं का तुलनात्मक अध्ययन करें, भले ही संस्कृत कम्प्युटर की पसंदिदा भाषा हो सकती है लेकिन बाजार की भाषा में कहें तो उसका उपभोक्ता नहीं है, इसीलिए वह श्रेष्ठ भाषा होने के बाद भी दुनिया के परिदृश्य में एक सीमित, संकुचित और मृत हो चुकी,अपने को पुनर्जीवित कर रही भाषा है, किंतु क्या यह बात हिन्दी के संदर्भ में कही जा सकती है, बिल्कुल नहीं। हिन्दी के संदर्भ में ऐसा कदापि नहीं कहा जा सकता। हिन्दी भाषा संस्कृत की ही बेटी है लेकिन आज बेटी की धाक दुनिया में माँ से ज्यादा है, वह भारत जैसे विशाल देश की सबसे अधिक पसंद और बोली जाने वाली ही भाषा नहीं है, दुनिया के कई देशों में सहज स्वीकार्य भाषा है। हिन्दी आज बाजार की भाषा बन चुकी है, जिसके बाजार की कल्पना भी की जाए तो वह भी आज कल्पना के बाहर का विषय हो गया है। इतने हजार करोड़ का बाजार हिन्दी अपना अब तक बना चुकी है। इसीलिए हिन्दी की अपनी सामथ्र्य है, सुगंध है, और बाजार की भाषा में कहें तो करोड़ों उपभोक्ताओं की ताकत वह अपने में समेटे हुए है। बाजार लाभ की भाषा जानता है, और आज मनोरंजन की दुनिया में हिंदी सबसे अधिक मुनाफा देने वाली भाषा के रूप में स्वयं को स्थापित करने में सफल रही है । हमारा भारत भले ही बहुभाषिक देश हो, किंतु यहां बाजार की भाषा में बात करें तो कुल विज्ञापनों का लगभग 75 प्रतिशत भाग हिंदी में तैयार किया जाता है।
हिंदी आज न केवल विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की भाषा है बल्कि दुनिया के तमाम देशों में भी हिन्दी की लोकप्रियता अन्य भाषाओं की तुलना में सबसे अधिक है। भारत में राजनीतिकरण से यदि हिन्दी को थोड़ी देर के लिए मुक्त करके देख लिया जाए तो यहां भी उसकी सर्वव्यापकता सहजता से समझी जा सकती है। हिन्दी के राजभाषा, राष्ट्रभाषा के प्रश्न पर भले ही अनेक राजनेता अपनी रोटियां सेंकते और ताल ठोंकते दिखाई देते हों, लेकिन लोकप्रियता इससे अलग है। इस भाषा का भौगोलिक विस्तार काफी दूर-दूर तक फैला है, जिस दक्षिण के राज्यों में इसका विरोध होता है वहां भी सबसे ज्यादा विरोध करने वाले ही हिन्दी के भक्त है, यह भक्ति आपको भाषा के स्तर पर सीधे तौर पर तो नजर नहीं आती है लेकिन सिनामाई दृष्टि से हिन्दी की फिल्में और उनमें बोले जाने वाले प्रभावी संवाद वहां हिन्दी भाषी क्षेत्र की ही तरह सबसे अधिक प्रसिद्ध होते हैं। वास्तव में यही है इस हिन्दी भाषा की ताकत कि जो उससे दूर रहने और नफरत रखने का प्रत्यक्ष राजनीतिक दिखावा करते हैं वह भी उसके आकर्षण से स्वयं को मुक्त नहीं रख पाते हैं।
यही हिन्दी की पहचान है जो न केवल नफरत करने वालो के हृदयों में प्रेम के बीज भर देती है, वरन भारत के बाहर नेपाल, त्रिनिदाद, सूरीनाम, फिजी, मॉरीशस, अमेरिका, ब्रिटेन, मलेशिया, सिंगापुर हॉगकॉग, चीन, जर्मनी, जापान, अफगानिस्तान, दक्षिण अफ्रीका, घाना, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, रूस, आदि कई देशों में भी स्वयं को बोलने के लिए आमजन को प्रेरित करती है। अन्तराष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी का परचम इस कदर लहरा रहा है कि विश्व हिन्दी सम्मेलन में भाग लेने वाले विद्वानों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है। वस्तुत: रूस की विज्ञान अकादमी के तहत प्राच्यविद्या संस्थान के भारत अनुसंधान केंद्र की नेता तत्याना शाउम्यान हिन्दी को लेकर सही कहती हैं कि दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों में रहनेवाले भारतीय प्रवासी आपस में हिन्दी में ही बातें करते हैं और हिन्दी साहित्य आज नेट पर सुलभ हो जाने के कारण अधिक से अधिक पढ़ते हैं। ब्रिटेन में रहनेवाले भारतीय प्रवासियों का संगठन दुनिया में सबसे प्रभावशाली है तथा अमरीका में रहनेवाले भारतीय मूल के लोगों की संख्या सबसे बड़ी है। इस वजह से दुनिया में हिंदी भाषा की भूमिका काफी बढ़ गई है। हमें संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा किए उस जनसांख्यिकीय शोध पर भी नजर डाल लेनी चाहिए जो यह बताता है कि 15 सालों में भारत चीन को पीछे छोडक़र जनसंख्या की दृष्टि से दुनिया में पहले स्थान पर पहुंच जायेगा और एक भाषा के स्तर पर भी वह चीन को पछाड़ देगा।
हिन्दी की दीवानगी को लेकर एक अन्य मास्को में भूविज्ञान से जुड़े विद्वान रुस्लान दिमीत्रियेव भी यही मानते हैं कि भविष्य में हिन्दी बोलनेवालों की संख्या इस हद तक बढ़ जाएगी कि यही दुनिया की एक सबसे लोकप्रिय भाषा होगी। वह आंकड़ों के साथ अपनी बात रखते हुए बताते हैं कि इस समय दुनिया में करीब एक अरब लोग हिन्दी बोलते हैं, यह अनुमान लगाया जा सकता है कि दस सालों में हिन्दी बोलनेवालों की संख्या 1,5 अरब तक बढ़ेगी। तब हिन्दी वर्तमान में सबसे लोकप्रिय भाषाओं चीनी और स्पेनी भाषाओं को पीछे छोड़ देगी। अब भारत में भले ही अंग्रेजी परस्त यह न माने लेकिन हिन्दी की यह वह ताकत है जिसे आज दुनिया मान रही है। त्रिनिदाद, सूरीनाम, फिजी, दक्षिण अफ्रीका एवं मॉरीशस में हिन्दी की जड़े गहरी हुई हैं, तो रूस, जापान ,अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, इटली, कोरिया, चीन आदि देशों ने हिन्दी की शक्ति को जाना और स्वीकारा है।
इतना ही नहीं तो हिन्दी की सामथ्र्य का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि सबसे पहले यदि हिंदी भाषा के इतिहास पर किसी ने प्रकाश डाला तो वह कोई भारतीय नहीं वरन ग्रासिन द तैसी, एक फ्रांसीसी लेखक थे। वहीं हिंदी और दूसरी भाषाओं पर पहला विस्तृत सर्वेक्षण सर जॉर्ज अब्राहम ग्रीयर्सन (जो कि एक अंग्रेज थे) ने किया। इतना ही नहीं तो हिंदी भाषा पर पहला शोध कार्य ‘द थिओलॉजी ऑफ तुलसीदास’ को लंदन विश्वविद्यालय में पहली बार एक अग्रेज विद्वान जे.आर.कार्पेंटर ने प्रस्तुत किया था। यानि हिन्दी भाषा की चिंता शुरू से ही सिर्फ भारतियों का विषय नहीं रहा है, विदेशी भी हिन्दी की उन्नति, विकास और विस्तार के लिए सदैव तत्पर रहे हैं।
पिछले सालों में हिन्दी की लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि दुनियाभर के देशों में लगातार हिन्दी सीखने की ललक अन्य भाषाओं की तुलना में 50 प्रतिशत अधिक बढ़ी है। कई देशों में विधिवत शासकीय स्तर पर हिन्दी भाषा में प्रकाशन शुरू किया है, निजि स्तर पर तो सैकड़ों पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित हो ही रही हैं। यूरोप और अमरीका में हिन्दीभाषी विद्यालय स्थापित किये गये हैं। यहाँ हिन्दीभाषी रेडियो स्टेशन, टीवी चेनल और वेब साइटें काम करती हैं। हिन्दी फिल्मों की लाखों डीवीडी जारी की जाती हैं जो हाथों हाथ बिकती हैं। न केवल एशिया, यूरोप के तमाम देशों और इजराइल के विश्वविद्यालयों में कई वर्ष पूर्व से हिन्दी पढ़ाया जारी है। हिंदी सोसाइटी सिंगापुर द्वारा आज कई हिंदी प्रशिक्षण केंद्र चलाये जा रहे हें जिसमें बच्चों से लेकर वयस्कों तक को हिंदी प्रशिक्षण प्रदान किया जाता है। ऑस्ट्रेलिया के विक्टोरिया प्रांत की सरकार ने देश की केंद्र सरकार से हिंदी को राष्ट्रीय पाठ्यक्रम में शामिल करने की गुजारिश की है। ब्रिटिश सरकार ने अपने यहां की पाठ्यक्रम तय करने वाली समिति से जाना कि क्यों हिंदी को देश के पाठ्यक्रम में 11 भाषाओं के साथ शामिल किया जाना चाहिए। रूसी विश्वविद्यालयों में भी हिन्दी के विशेषज्ञ शिक्षा पा रहे हैं। हिन्दी के प्रति दुनिया की बढ़ती चाहत का एक नमूना यही है कि आज विश्व के लगभग डेढ़ सौ विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ी और पढ़ाई जा रही है। विभिन्न देशों के 91 विश्वविद्यालयों में ‘हिन्दी चेयर’ है। इसे देखते हुए हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाने के लिए सरकार की ओर से प्रयास किए जा रहे हैं। वैसे यूनेस्को की सात भाषाओं में हिन्दी पहले से ही शामिल है। हिन्दी बोलनेवालों तथा हिन्दी भाषा और हिन्दी साहित्य का प्रचार करनेवालों के बीच संपर्कों के विकास के लिए दुनिया के विभिन्न देशों में नियमित रूप से विश्व हिन्दी सम्मेलनों का आरंभ भारत के विदेश विभाग के सहयोग से चल ही रहा है।
यहां यह बात ध्यान दिलाना उचित होगा कि पिछले कई दशकों से दुनिया में भाषाई संघर्ष चल रहा है, आने वाले वर्ष सन् 2050 तक किन भाषाओं का अस्तिव रहेगा और कौन विस्तार पाएगा यह आज के बाजारवाद को देखते हुए सरलता से अंदाज लगाया जा सकता है। भाषाई अनुमान के अनुसार विश्व में कुल छह हजार आठ सौ नौ भाषाएँ बोली जा रही हैं, जिसमें से 905 भाषाओं को बोलनेवालों की संख्या एक लाख से कम है। इन सभी भाषाओं में हिंदी को सीधे चुनौती देनेवाली भाषा चीन में बोली जानवाली मैंड्रीन भाषा है, किंतु जिस तरह से दुनिया का आकर्षण भारत और हिन्दी के प्रति बढ़ रहा है, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि हिंदी को अब अपने अस्तित्व के लिए विदेशियों के बीच संघर्ष करने की जरूरत नहीं बची है। हिन्दी का यह सामर्थ्य ही है कि वैश्विक स्तर पर हिन्दी आज पूरी तरह बाजार की भाषा बन चुकी है। दुनिया में भाषायी स्तर पर हिन्दी ने अपनी स्वीकार्यता के सहज झंडे गाड़ दिए हैं। हाँ, भारत में राजनीतिक स्तर पर कहना होगा उसे अभी अपनी संघर्ष यात्रा अनवरत जारी रखने की आवश्यकता है। आशा की जाए कि वह दिन भी जल्द आएगा जब राजनीतिक स्तर पर यह सर्वसम्मति से देश की पहली भाषा के रूप में स्वीकार्य कर ली जाए और राजभाषा के शब्दकोश से मुक्त होते हुए राष्ट्रभाषा के रूप में अपनी स्वीकार्यता बना ले।

 

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मयंक चतुर्वेदी
मयंक चतुर्वेदी मूलत: ग्वालियर, म.प्र. में जन्में ओर वहीं से इन्होंने पत्रकारिता की विधिवत शुरूआत दैनिक जागरण से की। 11 वर्षों से पत्रकारिता में सक्रिय मयंक चतुर्वेदी ने जीवाजी विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के साथ हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर, एम.फिल तथा पी-एच.डी. तक अध्ययन किया है। कुछ समय शासकीय महाविद्यालय में हिन्दी विषय के सहायक प्राध्यापक भी रहे, साथ ही सिविल सेवा की तैयारी करने वाले विद्यार्थियों को भी मार्गदर्शन प्रदान किया। राष्ट्रवादी सोच रखने वाले मयंक चतुर्वेदी पांचजन्य जैसे राष्ट्रीय साप्ताहिक, दैनिक स्वदेश से भी जुड़े हुए हैं। राष्ट्रीय मुद्दों पर लिखना ही इनकी फितरत है। सम्प्रति : मयंक चतुर्वेदी हिन्दुस्थान समाचार, बहुभाषी न्यूज एजेंसी के मध्यप्रदेश ब्यूरो प्रमुख हैं।

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  1. मयंक जी,

    तथ्यों और आँकड़ों को आपने बहुत सुंदर ढंग से पेश किया है. लेकिन क्या विश्व सम्मेलन में संकल्प लेने मात्र से हिंदी का दर्जा ऊँचा हो जाएगा. अभी भी हिंदी को अँग्रेजी के समकक्ष लाने के लिए बहुत मेहनत करनी होगी. उसके लिए कोई तैयार नहीं है. यदि वैसी शब्दावली व उपयोगिता हिंदी की बना दी जाए तो हर व्यक्ति स्वतः ही हिंदी अपनाएगा . किसी को आग्रह करने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी. हममें सलाहकार बनने की इच्छा है लेकिन उन्ही मशविरों को क्रियान्वित करने में न जाने क्यों हम पीछे हट जाते हैं. ऐसे में हिंदी सर्वोच्च स्थान पर कैसे पहुँचेगी?

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