सुबह लाठी, शाम चपाती …!!


तारकेश कुमार ओझा
न्यूज चैनलों पर चलने वाले खबरों के ज्वार – भाटे से अक्सर ऐसी – ऐसी जानकारी ज्ञान के मोती की तरह किनारे लगते रहती हैं जिससे कम समझ वालों का नॉलेज बैंक लगातार मजबूत होता जाता है। अभी हाल में एक महत्वपूर्ण सूचना से अवगत होने का अवसर मिला कि देश के एक बड़े राजनेता का केस लड़ रहे वकील ने उन्हें मात्र चार करोड़ रुपए की फीस का बिल भेजा है। इस बिल पर हंगामा ही खड़ा हो गया। इसलिए नहीं कि बिल बहुत ज्यादा है, बल्कि इसलिए कि बिल का पेमेंट राजनेता करें या वह सरकार जिसके वे मुख्यमंत्री हैं। विवाद जारी रहने के दौरान ही एक और राजनेता ने बयान दिया कि वकील साहब एक जमाने में उनका केस भी लड़ चुके हैं। वे काफी दयालू प्रवृत्ति के हैं। क्लाइंट गरीब हो तो वे केस लड़ने की अपनी फीस नहीं लेते। अब काफी बुजुर्ग हो चुके इन वकील साहब की चर्चा मैं छात्र जीवन से सुनता आ रहा हूं।वे पहले भी अमूमन हर चर्चित मामले में ये किसी न किसी तरह कूद ही पड़ते थे। साल में दो – चार केस तो ऐसे होते ही थे जिसकी मीडिया में खूब चर्चा होती। वाद – वितंडा भी होता। विवाद के चरम पर पहुंचते ही मैंं अनुमान लगा लेता था कि अब मामले में जरूर उन वकील साहब की इंट्री होगी। बिल्कुल बचपन में देखी गई उन फिल्मों की तरह कि जब मार – कुटाई की औपचारिकता पूरी हो जाए और हीरो पक्ष के लोग एक – दूसरे के गले मिल रहे होते तभी सायरन बजाती पुलिस की जीप वहां पहुंचती। अक्सर ऐसा होताा भी था। कभी किसी के पीछे हाथ धो कर पड़ जाते और जब बेचारा शिकार की तरह आरोपी बुरी तरह फंस जाता तो खुद ही वकील बन कर उसे बचाने भी पहुंच जाते। पहले मैं समझता था कि यह उनके प्रतिवादी स्वभाव की बानगी है जो उन्हें चैन से नहीं बैठने देती। जिसके पीछे पड़ते हैं फिर उसे बचाने में भी जुट जाते हैं। तब तक मोटी फीस का मसला अपनी समझ में नहीं आया था। मुझे तो यही लगता था कि स्वनाम धन्य ये वकील साहब प्रतिवादी होने के साथ ही दयालू प्रवृत्ति के भी होंगे। तभी तो पहले जिसे लपेटते हैं उसकी हालत पर तरस खाकर उसे बचाने के जतन भी खुद ही करते हैं। लेकिन चार करोड़ी फीस मामले ने धारणाओं को बिल्कुल उलट – पलट कर रख दिया। मेरे शहर में भी अनेक ऐसे प्रतिवादी रहे हैं जो पहले तो बात – बेबात किसी के पीछे पड़ते रहे हैं। सुबह जिसके साथ लाठियां बजाई, शाम को उसी के साथ बैठ कर चपाती खाते नजर आ जाते और कल जिसके साथ रोटियां तोड़ रहे थे, आज उसी के साथ लट्ठलठ में जुटे हैं। जनाब इसे अपने प्रतिवादी स्वभाव की विशेषता बताते हुए बखान करते कि यह संस्कार उन्हें रक्त में मिला है। वे अन्याय बर्दाश्त नहीं कर सकते। उनके सामने कोई मामला आएगा तो वे चुप नहीं बैठेंगे। कड़ा प्रतिकार होगा… वगैरह – वगैरह। फिर एक दिन अचानक बिल्कुल विपरीत मोड में नजर आएंगे। आश्चर्य मिश्रित स्वर में यह पूछते ही कि … अरे आप तो … फिर… रहस्यमय मुस्कान में जवाब मिलेगा … समझा करो … विरोध – प्रतिवाद अपनी जगह है। लेकिन धंधा – पेशा या वाणिज्य भी तो कोई चीज है। मेरे चेहरे पर उभर रहे भावों को समझते हुए फिर बोलेंगे … समझा करो यार… बी प्रैक्टिकल… एक डॉक्टर के पास यदि किसी डाकू का केस जाएगा तो क्या डॉक्टर उसे नहीं देखेगा। कहेगा कि यह गलत आदमी है, इसलिए मैं इसका उपचार नहीं करुंगा…। यही बात मेरे साथ भी लागू होती है। व्यक्तिगत तौर पर तो मैं उस आदमी का अब भी विरोधी हूं। लेकिन बात पेशे की है। मुझे पहले अंदाजा नहीं था कि शून्य से शिखर तक ऐसे रहस्यमयी चरित्र बिखरे पड़े हैं। अब कुछ – कुछ समझने लगा हूं।

Previous articleगौरक्षा एवं भक्ति हिंसक क्यों?
Next articleसच्चाई को समझें भारतीय मुसलमान
तारकेश कुमार ओझा
पश्चिम बंगाल के वरिष्ठ हिंदी पत्रकारों में तारकेश कुमार ओझा का जन्म 25.09.1968 को उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में हुआ था। हालांकि पहले नाना और बाद में पिता की रेलवे की नौकरी के सिलसिले में शुरू से वे पश्चिम बंगाल के खड़गपुर शहर मे स्थायी रूप से बसे रहे। साप्ताहिक संडे मेल समेत अन्य समाचार पत्रों में शौकिया लेखन के बाद 1995 में उन्होंने दैनिक विश्वमित्र से पेशेवर पत्रकारिता की शुरूआत की। कोलकाता से प्रकाशित सांध्य हिंदी दैनिक महानगर तथा जमशदेपुर से प्रकाशित चमकता अाईना व प्रभात खबर को अपनी सेवाएं देने के बाद ओझा पिछले 9 सालों से दैनिक जागरण में उप संपादक के तौर पर कार्य कर रहे हैं।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here