रिजर्व बैंक की लाख कोशिशों के बावजूद देश में खाद्य महंगाई दर दहाई के
अंक पर बनी हुई है। बढ़ती महंगाई से आम आदमी परेशान है। इस महंगाई डायन
ने गरीबों की थाली से सब्जी को छू-मंतर कर दिया है। लेकिन, इन सबसे
बेपरवाह रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के गवर्नर डी. सुब्बाराव को गरीबों की
बढ़ी हुई आय और उनके खान-पान में आए बदलाव महंगाई का मुख्य कारण नजर आ
रहा है।
यूपीए सरकार के इस शासनकाल में यह कोई पहला मौका नहीं है, जब किसी
जिम्मेदार व्यक्ति ने इस तरह का गैर-जिम्मेदाराना बयान देने की हिमाकत की
है। इससे पहले 100 दिन में महंगाई को छू-मंतर कर देने का वादा कर
प्रधानमंत्री बनने वाले मनमोहन सिंह भी इसी तरह का बयान देकर विवादों को
जन्म दे चुके हैं
एक तरफ योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया सुप्रीम कोर्ट
में हलफनामा देकर कहते हैं कि 32 रुपए रोज कमाने वाला गरीब नहीं है।
दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित कहती है कि एक परिवार के राशन के लिए
600 रुपए काफी हैं। यानी जो 600 रुपए कमाते हैं उनके लिए किसी तरह की
सरकारी मदद की जरूरत नहीं है। इन आकड़ों के बीच एक बड़ा सवाल यह कि जिस
देश में गरीबों के लिए इतनी रकम पर्याप्त हो, वहां भला गरीब कैसे महंगाई
बढ़ा सकते हैं। लेकिन, इन दयनीय आकड़ों से बेखबर रिजर्व बैंक के गवर्नर
सुब्बाराव कहते हैं कि खाद्य महंगाई में वृद्धि के लिए गांव में रहने
वाले गरीब जिम्मेदार है। उनके मुताबिक पहले के मुकाबले ग्रामीणों की आय
में वृद्धि हुई है और वे खाने पर ज्यादा खर्च करने लगे हैं। इसलिए महंगाई
कम नहीं हो रही है। सुब्बाराव यहीं नहीं रुके। उन्होंने महंगाई के लिए
गरीबों को जिम्मेदार ठहराने के लिए आकड़े भी पेश किए और कहा कि आय बढऩे
के कारण ग्रामीणों ने प्रोटीन के लिए दाल की जगह ज्यादा दूध, मांस, अंडा
और फल खाना शुरू कर दिया है और इसी वजह से खाने की चीजों की कीमतें बढ़
रही हैं। सुब्बाराव ने दावा भी किया कि हमारे पास इस बात के प्रमाण हैं
कि पिछले पांच वर्षो में ग्रामीणों की आय में प्रति वर्ष 20 फीसदी की दर
से वृद्धि हो रही है और यही वजह है कि वे खाने पर ज्यादा खर्च करने लगे
हैं। यानी एक तरफ अपर्याप्त रकम को सरकार में जिम्मेदार पदों पर बेठे
अफसर और नेता पर्याप्त बता रहे हैं। वहीं, दूसरी और सुब्बाराव ज्यादा
खाने और महंगाई बढ़ाने का ठीकरा भी गरीबों पर ही फोड़ रहे हैं।
दरअसल आरबीआई के मौजूदा गवर्नर डी. सुब्बाराव का बयान अपनी नाकामी को
छुपाने की नाकाम कोशिश है। महंगाई पर लगाम लगाने में डी. सुब्बाराव पूरी
तरह विफल साबित हुए हैं। पिछले दो वित्त वर्ष में 11 बार रेपो रेट और
रिजर्व रेपो रेट में बढ़ोतरी की, लेकिन महंगाई को कंट्रोल नहीं कर पाए।
लगता है कि अपनी इसी नाकामी को छुपाने के लिए बौखलाहट में सुब्बाराव इस
तरह का गैरजिम्मेदार बयान दे रहे हैं। सुब्बाराव का ये बयान न सिर्फ
विकास और गरीब विरोधी है, बल्कि महंगाई की मार झेल रहे गरीबों के जख्म पर
नमक छिड़कने का काम भी किया है।
यूं तो चुनावों में कांग्रेस पार्टी का नारा होता है ‘कांग्रेस का हाथ आम
आदमी के साथ’। लेकिन, इस सरकार के कर्ता-धर्ता के बयानों को देखकर तो कम
से कम ऐसा नहीं लगता है कि ये सरकार गरीबों के प्रति हमदर्दी भी रखती है।
अब जरा सोचिए कि अगर वास्तव में गरीबों के जीवन स्तर में सुधार हुआ होता
तो यह सरकार अपनी इतनी बड़ी उपलब्धि पर भला चुप रहती। शायद जवाब होगा
हरगिज नहीं।
सच्चाई तो यह है कि गांधी, गांव और गरीबों के इस देश में अंग्रेजों की
पॉलिसी अब भी कायम है, जो देश की अर्थव्यलस्था का जनाजा निकाल रही है और
इसे आगे बढ़ाने में अहम भूमिका निभा रहे हैं ऑक्सफर्ड और कैम्ब्रिज से
अंग्रेजियत को जिंदा रखने की दीक्षा प्राप्त कर सरकार और आरबीआई में बैठे
दिग्गज अर्थशास्त्री। इन्हें महंगाई जैसी सुरसा को कंट्रोल करने का मात्र
एक ही इलाज समझ में आता है और वह है ब्याज दरों में वृद्धि। यानी ब्याज
की दर बढ़ा दो, ताकि उद्योगों का विकास रुक जाए। लोगों का रोजगार छिन जाए
और लोग भूखे मरने या आत्म हत्या करने पर मजबूर हो जाए। ताकि न रहेगी मांग
और न बढ़ेगी महंगाई।ॉ
देश के दिग्गज अर्थशास्त्रियों की इस सोच के पीछे विकसित देशों के
मुताबिक डिजन की गई मौद्रिक नीति है। विकसित देशों में अमीरों की संख्या
ज्यादा होती है। ऐसे में अर्थव्यवस्था में भी उनकी भूमिका अहम होती है।
वहां के नागरिकों की लाइफ स्टाइल ब्रांडेड कंपनियों पर आधारित होती है।
वहीं, लोग अपनी जरूरत को पूरी कर चुके होते हैं और वे विलासितापूर्ण जीवन
जी रहे होते हैं। ऐसी स्थिति में महंगाई बढऩे पर ब्याज दरों में वृद्धि
करने से लोग अपने विलासिता पर खर्च कम कर देते हैं। इस प्रकार मांग घटने
से महंगाई पर लगाम लग जाती है। जबकि, विकासशील और गरीब देशों की स्थिति
ठीक इससे उलट होती है। यहां पर अमीरों की तुलना में गरीबों की तादाद
ज्यादा होती है। लोगों की जीवनशैली निम्न स्तर के कुटीर व लघु उद्योगों
पर आधारित होती है।
ज्यादातर लोग अपनी जरूरत को पूरा करने में ही अपनी पूरी जिंदगी फना कर
देते हैं। ऐसे में अगर महंगाई बढ़ जाए तो खाद्य पदार्थो की मांग को कम कर
महंगाई कम करने के सारे प्रयास विफल साबित होते हैं, क्योंकि विकासशील और
गरीब देशों में ज्यादातर लोग अपनी जरूरत को ही पूरा कर रहे होते हैं।
चूकि, जरूरत को पूरा करना जीवनरक्षा का सवाल है। इसलिए इसे कम करना संभव
नहीं होता है। लिहाजा, ऐसी स्थिति में खाद्य महंगाई को कम करने के लिए
सप्लाई बढ़ाना ही एक मात्र विकल्प बचता है। लेकिन, महंगाई से जूझ रही
जनता को राहत देने के लिए इस सरकार ने सप्लाई बढ़ाने के तरफ कभी ध्यान
नहीं दिया। जरूरी वस्तुओं का आयात करना तो दूर, सरकारी गोदामों में पड़ा
अनाज सड़ रहा हैं।
सड़े हुए अनाजों को शराब माफिया को देने या समुद्र में डालने की बात तो
होती है। लेकिन, इन गोदामों का मुंह आम आदमी के लिए नहीं खोला जा रहा है।
जिसके कारण इस सरकार की इमेज जनता के बीच एक जनविरोधी सरकार की बनती जा
रही है। अगर सरकार में बेठे आला ओहदेदारों का रवैया ऐसा ही बना रहा तो
कभी भी जनता का गुस्सा सड़कों पर फूट सकता है। जिससे बचने के लिए ऐसे
बयानों से दूरी बनाने के साथ ही सरकार को जल्द से जल्द पूर्ति पक्ष की ओर
ध्यान देना चाहिए। क्योंकि भारत जैसे विकासशील देश में बिना पूर्ति को
बढ़ाए महंगाई कम करना संभव ही नहीं है।