इन दिनों देश में बढ़ती धार्मिक असहिष्णुता एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हो रहे हमले के खिलाफ विरोधस्वरूप साहित्यकारों द्वारा पुरस्कार वापसी का दौर सा चल पड़ा है। हालांकि जिस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और असहिष्णुता की साहित्यकार दुहाई दे रहे हैं; उसमें एक ख़ास विचारधारा वाली पार्टी के खिलाफ षड़यंत्र की बू आती है। जनसामान्य के मन में साहित्यकारों का यह आचरण देखकर यह प्रश्न उठ रहा है कि इससे पूर्व भी धार्मिक असहिष्णुता की घटनाएं देश में होती रही हैं। दंगे-फसाद की संख्या में भी पूर्व की तुलना में कोई ख़ास बढ़ोत्तरी नहीं हुई है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन पूर्व में भी किया जाता रहा है। गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार 2012, 2013 और 2014 में सांप्रदायिक हिंसा की क्रमशः 668 ,823 और 644 घटनाएं हुईं , जिनमें क्रमशः 39, 77 और 26 लोगों की जाने गईं। तब तो इन साहित्यकारों का मन आहत नहीं हुआ। 1984 के सिख दंगो में 3000 सिखों का दिल्ली में कत्ल हुआ पर साहित्यकार का मन तब भी आहत नहीं हुआ। कश्मीर की सरजमीं से कश्मीरी पंडितों को भागने पर मजबूर कर दिया गया पर कथित साहित्यकार का मन तब भी आहत नहीं हुआ। फिर ऐसा क्या है कि अचानक ही साहित्यकारों का वर्तमान स्थितियों के प्रति इतना आशंकित हो गया कि उन्होंने साहित्य अकादमी; जो स्वयं स्वतंत्र निकाय है, द्वारा प्रदत पुरस्कार लौटा दिया? दरअसल साहित्यकारों द्वारा पुरस्कार वापसी से सरकार को कटघरे में खड़ा करने की कोशिशें की जा रही हैं। साहित्यकार राजनेताओं जैसा आचरण कर रहे हैं और अन्य लेखकों/साहित्यकारों पर दबाव बनाया जा रहा है कि वे भी विरोधस्वरूप अपने पुरस्कार वापस करें अन्यथा असहिष्णुता के पक्ष में उनकी सहमति को जमकर कोसा जाएगा। देखा जाए तो साहित्य अकादमी का भारत सरकार से कोई सीधा लेना-देना नहीं। वह स्वायत्तशासी संस्था है किन्तु साहित्यकारों द्वारा यह अनुभूति कराई जा रही है कि यह अकादमी मोदी सरकार का हिस्सा है। साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने वाले दादरी की घटना के साथ-साथ नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पनसारे और एमएम कलबुर्गी की हत्या का दोष भी सरकार पर मढ़ने की कोशिश कर रहे हैं। उनके इस कृत्य से समाज दो टुकड़ों में बंटता दिख रहा है। यहां यह भी समझना होगा कि साहित्यकार क्या पुरस्कार वापसी का फैसला सोच-समझकर ले रहे हैं? शायद नहीं। ये सभी साहित्यकार भेड़चाल का शिकार दिख रहे हैं। यदि साहित्यकार सरकार के किसी आचरण से दुखी हैं तो सीधे सरकार से बात करें, साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने का क्या औचित्य?
इन सबके बीच मुझे प्रख्यात उर्दू शायर मुनव्वर राणा ने खासा दुखी किया है। अव्वल तो लाइव न्यूज़ चैनल पर अपना पुरस्कार वापस करना और फिर पुरस्कार के रूप में प्राप्त राशि को ब्लेंक चेक के रूप में यह कहकर लौटना कि इसमें पुरस्कार में प्राप्त राशि की रकम भरकर किसी जरूरतमंद को दे देना, निहायत ही घटिया मानसिकता का परिचायक है। आखिर मुनव्वर राणा को पुरस्कार और राशि; उनके उर्दू शायरी में दिए गए योगदान को देखकर दी गई थी। यदि उन्हें पुरस्कार की राशि वापस ही करना थी तो अकादमी को करते, जरूरतमंदों के नाम पर खुद वाह-वाही लूटने की क्या जरूरत थी? फिर, यदि उन्हें सरकार की कार्यप्रणाली से भी इतना ही दुःख पहुंच रहा था तो वे सीधे प्रधानमंत्री से बात करते, लाइव न्यूज़ चैनल पर इतने प्रोपगेंडा की क्या आवश्यकता थी? वैसे भी अभी तक जितने भी साहित्यकारों ने साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाया है, उनमें मुनव्वर राणा इकलौते व्यक्ति थे जिन्हें मोदी सरकार बनने के बाद साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया था। उनकी सत्ता के गलियारों से नजदीकी भी जग-जाहिर थी। चले जाते मोदी के पास और कर लेते विरोध प्रदर्शन। मुनव्वर राणा भी उसी भेड़चाल का हिस्सा बन गए जो सरकार को झुकाना चाहती है। मुनव्वर राणा, जब इन साहित्यकारों के पक्ष ने नहीं बोल रहे थे तब भी मुस्लिम समुदाय और कुछेक साहित्यकारों द्वारा सोशल मीडिया पर बाकायदा उनके खिलाफ अभियान चलाया जा रहा था, जिससे हो सकता है वे दबाव में हों किन्तु उनके प्रोपगेंडा ने उनकी भद पिटवा दी। अब जबकि ऐसी सूचना है कि मुनव्वर राणा को प्रधानमंत्री से मिलने का बुलावा आया है और उनका कहना है कि यदि मोदी कहेंगे तो वे पुरस्कार वापस ले लेंगे, उनकी छवि को और दागदार करेगा। कुछ साहित्यकार देश के लिए नहीं लिखते। जो सच है उसे नहीं लिखते बल्कि जो सुविधाजनक है उसे लिखते है। मेरा मानना है यदि वो सच लिखने लगें तो उन्हें जनता का आदर और सम्मान; दोनों ही प्राप्त होगें। हां यह जरूर है कि ऐसे लोगों को साहित्य सम्मान शायद ही मिले? जिन साहित्यकारों ने पुरस्कार का अपमान किया है, उनका लेखन सच के नजदीक तो हो ही नहीं सकता। देश की जनता सब जान रही है, उनका छुपा एजेंडा कभी कामयाब नहीं होगा।
सिद्धार्थ शंकर गौतम