सुदर्शन-सादिक़ की मुलाकात से क्यों डर रहे हैं वे?

इक़बाल हिंदुस्तानी

आर एस एस के पूर्व सर संघचालक के सी सुदर्शन और शिया विद्वान एवं ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के उपाध्यक्ष मौलाना कल्बे सादिक की लखनऊ में हुयी मुलाक़ात में दोनों ने जो कुछ कहा वह देशहित और जनहितमें था लेकिन मात्र इतनी सी बात मे कौम और मज़हब के ठेकेदारों को बेचैनी होनी शुरू हो गयी। गर्मजोशी भरे माहौल में दोनों ने जो कुछ कहा उसका लब्बो लुआब यह था कि मज़हबी और जातीय दीवारों से ऊपर उठकर देशहित में ईमानदारी से काम किया जाना चाहिये और वर्तमान चुनवी तौर तरीकों में बदलाव होना चाहिये। कश्मीर पर भी उन दोनों की एक ही राय सामने आई और दुनिया की नज़र में सभी हिंदू और मुस्लिम हिंदी या हिंदवी कहलाते हैं यह भी एक साझा सोच थी।

गांधी जी कहा करते थे कि अपराधी से नहीं अपराध से घृणा करनी चाहिये। हो सकता है मौलाना, सुदर्शन जी की और सुदर्शन जी, मौलाना की सभी बातों से सहमत न हों लेकिन चुनाव में वोट जाति और धर्म से ऊपर उठकर दिये जाने चाहिये इसमें किसी को क्या एतराज़ हो सकता है। इस देश में जब भी दो विपरीत ध्रुव मिलने की कोशिश करते हैं तो संकीर्णता की राजनीति करने वालों को अपच होने लगता है। वे ख़तरे को मुलाकात होते ही भांप लेते हैं। उनकी सियासी नज़र गिध्द जैसी है जो बहुत ऊँचाई से ही अपना शिकार तलाश लेता है। अगर आरएसएस हिंदुत्व पर मौलाना को राज़ी करने की कोशिश करे तो बात एतराज़ के लायक हो सकती है लेकिन एक भारतीय नागरिक के रूप में जो हमारी कॉमन प्राब्लम हैं अगर किसी साझे मंच से उनका समाधान तलाश करने का प्रयास किया जाता है तो क्यों उसपर हायतौबा मचाई जाती है। अगर एक क्षण के लिये यह न देखा जाये कि कौन कह रहा है, बस यह नोट किया जाये कि क्या कह रहा है तभी तो सही और गलत तय किया जा सकता है। मिसाल के तौर पर जिस दिन सुदर्शन जी और सादिक साहब ने ये बातें कहीं उससे अगले दिन ही दारूलउलूम देवबंद के मोहतमिम मौलाना अब्दुल कासिम नौमानी ने यह बात दोहराई कि मुसलमान मज़हब के आधार पर मतदान न करें। उनका साफ कहना था कि मुसलमान चुनाव मे वोट देते समय यह न देखें कि प्रत्याशी किस बिरादरी या मज़हब का है बल्कि यह देखें कि वह क्षेत्र का विकास करा सकता है या नहीं? देवबंद की इस अपील से यह बदलाव आ सकता है कि मुस्लिम बहुल सीटों पर अगर ऐसे मुसलमान को टिकट दिया जाता है जो हिंदू प्रत्याशी की बनिस्बत तरक्की नहीं करा सकता तो वोट बैंक का मिथक टूट सकता है। इससे पहले भी दारूलउलूम यह अपील जारी कर चुका है कि मुसलमान मज़हब की बजाये देशहित मे वोट दें।

यह अजीब बात है कि अगर गुजरात के सीएम नरेंद्र मोदी अपनी कट्टर हिंदूवादी छवि को बदलने के लिये एकता और सद्भाव के लिये उपवास शुरू करते हैं तो शिवसेना प्रमुख उनको मुसलमानों को रिझाने का कसूरवार ठहराने लगते हैं और अगर सुदर्शन जी और मौलाना सादिक साहब साझा समस्याओं पर कोई सार्थक पहल करते हैं तो सपा के फायरब्रांड नेता रहे आज़म खां ज़बरदस्त एतराज़ दर्ज कराने लगते हैं। अगर इस तरह की पहल होने पर साम्प्रदायिक और उग्र सोच के लोग विरोध करना शुरू करदेंगे तो यह दरार और खाई पटेगी कैसे? अगर विरोध करने वाले यह चाहते हों कि पहले अब तक किये से ये लोग तौबा करें तो उनको यह भी सोचना चाहिये कि सार्वजनिक जीवन में बदलाव की शुरूआत ऐसे ही की जाती है। धीरे धीरे जब मुलाक़ाते बढ़ती है। नई नई बातें होती हैं। एक दूसरे की समस्याओं को पास बैठकर धैर्यपूर्वक सुना और समझा जाता है तो फिर एक दूसरे की भावनाओं का सम्मान भी किया जाता है।

दरअसल हमारी इस दकियानूसी सोच को बदलने का समय आ गया है कि अगर किसी की कोई खास बात हमे पसंद नहीं है तो अब उसकी कोई भी बात नहीं सुनेगें। कुछ लोग आपसी रिश्तों में भी किसी एक बात से असहमत या आहत होकर व्यक्ति विशेष का पूरी तरह बहिष्कार शुरू कर देते हैं जिससे समस्या हल न हो कर स्थायी हो जाती है। मुस्लिम समाज को लेकर कुछ लोगों ने यह राय बना रखी है कि यह एक बंद सोच का समाज है जिसे भावनाओं में बहाकर वोट लिये जा सकते हैं। हिंदू समाज को भी कुछ समय तक इस तरीके से वोटों की राजनीति के लिये इस्तेमाल किया गया लेकिन वह जल्दी ही इस चक्रव्यूह से बाहर निकल आया जिससे वोटों के सौदागरों का वोटबैंक का खेल वहां अधिक नहीं चल पाया लेकिन कुछ दल और नेता मुसलमानों की समस्याओं को हल करने की बजाये उनको भड़का कर वोट तो ले लेते हैं लेकिन उनको मात्र बातों से खुश रखना चाहते हैं।

सच बात तो यह है कि हिंदू और मुस्लिम दोनों ही वर्गों को नेताओं के इस सियासी खेल को समझना होगा कि वे उनको नागरिक और भारतीय न समझकर वोटबैंक मानकर चलते हैं। एक दूसरे को इस बात पर भड़काया जाता है कि मानो सारी समस्या की जड़ वे खुद ही हों। हकीकत यह है कि नेताओं की नालायकी और काहिली से आज तक बुनियादी बिजली, पानी, रोज़गार और शिक्षा व चिकित्सा की समस्यायें भी हल नहीं हो सकीं हैं लेकिन वे इसके लिये असली मुद्दों से ध्यान हटाने को साम्प्रदायिक और जातिवादी मामले लगातार चुनावी मुद्दे बनाने में कामयाब हो जाते हैं। मंदिर, मस्जिद और दलित पार्क बनाने से देश का भला होने वाला नहीं है लेकिन इन लोगों ने हम लोगों की नादानी और मूर्खता की वजह से अपने भ्रष्टाचार से आंखे चुराकर धर्म, जाति, भाषा और क्षेत्र को सबसे बड़ा मुद्दा बना रखा है। उनसे यह पूछा जाना चाहिये कि जब देश तरक्की करेगा ही नहीं तो चाहे हिंदू हो या मुस्लिम किसी को भी क्या मिलेगा? भाषणों से पेट भरने का समय अब जा चुका है। भावनाओं से खिलवाड़ करके कुछ समय के लिये तो सबको बेवकूफ बनाया जा सकता है और कुछ मुद्दों को सदा कुछ लोगों के लिये सबसे बड़ी उपलब्धि बनाया जा सकता है लेकिन हमेशा के लिये सभी लोगों को इन फालतू की बातों में उलझाकर नहीं रखा जा सकता।

उर्दू, मुस्लिम यूनिवर्सिटी, मुस्लिम पर्सनल लॉ, शरीयत, बाबरी मस्जिद, भाजपा, तसलीमा नसरीन और सलमान रूशदी कुछ ऐसे भावुक मुद्दे नेताओं ने मुसलमानों को हमेशा उलझाने के लिये बना रखे हैं जिनसे बाहर निकलने की कोई कोशिश परवान चढ़ाने की कोई कोशिश कोई करता है तो उन लोगों को अपनी राजनीति ख़तरे में नज़र आने लगती है। बिरादरी और धर्म से ऊपर उठकर वोट करने से जो विकास होगा स्वाभाविक रूप से उसका लाभ मुस्लिमों को भी मिलेगा। सड़क, स्कूल, अस्पताल और कारखाने अगर किसी राज्य में लगते हैं तो उस विकास का लाभ अपने आप ही मुस्लिम आबादी को भी मिलना तय है।

दरअसल इस बात को संजीदगी से समझने की ज़रूरत है कि कोई भी पार्टी या नेता अगर किसी भी वर्ग या जाति को यह सपना दिखाता है कि वह ही उसका एकमात्र मसीहा है तो वह सरासर झूठा और मक्कार होता है। अगर कोई विकास होगा ही नहीं तो चंद लोगों को छोड़कर एक बिरादरी या धर्म के लोगों को भी क्या लाभ हो सकता है? जिस प्रकार बसपा की सरकार में मायावती ने यह भ्रम फैलाया है कि वह दलितों की एकमात्र मसीहा हैं उनके कामों से यह साबित नहीं किया जा सकता कि उन्होंने दलितों की भलाई के लिये कोई ठोस काम किये हैं। हां दलित विद्वानों और महापुरूषों के नाम पर उन्होंने पार्क, योजनाएं और ज़िले बनाकर दलितों को मानसिक रूप यह सम्मान और आभास ज़रूर कराया है कि वे भी सत्ता में आकर अपना सर गर्व से ऊँचा कर सकते हैं। ऐसे ही यूपी के कई बार सीएम रहे मुलायम सिंह यादव यह खास ध्यान रखते हैं कि ऐसे कौन से बयान हैं जो देकर मुसलमानों को खुश किया जा सकता है। भाजपा और शिवसेना भी यही काम हिंदुओं के द्वारा करने की कोशिश करके फेल हो चुकी हैं। अब सबका विकास ही एकमात्र रास्ता बचा है।

मेरे बच्चे तुम्हारे लफ्ज़ को रोटी समझते हैं,

ज़रा तक़रीर कर दीजिये कि इनका पेट भर जाये।

 

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इक़बाल हिंदुस्तानी
लेखक 13 वर्षों से हिंदी पाक्षिक पब्लिक ऑब्ज़र्वर का संपादन और प्रकाशन कर रहे हैं। दैनिक बिजनौर टाइम्स ग्रुप में तीन साल संपादन कर चुके हैं। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में अब तक 1000 से अधिक रचनाओं का प्रकाशन हो चुका है। आकाशवाणी नजीबाबाद पर एक दशक से अधिक अस्थायी कम्पेयर और एनाउंसर रह चुके हैं। रेडियो जर्मनी की हिंदी सेवा में इराक युद्ध पर भारत के युवा पत्रकार के रूप में 15 मिनट के विशेष कार्यक्रम में शामिल हो चुके हैं। प्रदेश के सर्वश्रेष्ठ लेखक के रूप में जानेमाने हिंदी साहित्यकार जैनेन्द्र कुमार जी द्वारा सम्मानित हो चुके हैं। हिंदी ग़ज़लकार के रूप में दुष्यंत त्यागी एवार्ड से सम्मानित किये जा चुके हैं। स्थानीय नगरपालिका और विधानसभा चुनाव में 1991 से मतगणना पूर्व चुनावी सर्वे और संभावित परिणाम सटीक साबित होते रहे हैं। साम्प्रदायिक सद्भाव और एकता के लिये होली मिलन और ईद मिलन का 1992 से संयोजन और सफल संचालन कर रहे हैं। मोबाइल न. 09412117990

4 COMMENTS

  1. विचारोत्तेजक लेख| ऐसे लेख ध्यान (मेडिटेशन) लगाकर जो निरपेक्षता झलकती है, उसी अवस्था में लिखे जा सकते हैं, जहां केवल सच्चाई ही दिखाई देती है|

  2. दुनिया में बड़े बदलाव आ रहे हैं. आने वाले दस वर्ष दुनिया के भूराजनीतिक परिद्रश्य को पूरी तरह से बदला हुआ देखने के लिए तैयार रहना चाहिए. इस बदलाव से हिंदुस्तान प्रायद्वीप (भारतीय उपमहाद्वीप) में भी भरी परिवर्तन होगा. और इसका असर भारत के हिन्दू मुस्लिम रिश्तों पर भी पड़ेगा. उम्मीद की जानी चाहिए की ये परिवर्तन पोजिटिव होगा और हिन्दू और मुसलमान दोनों ही अपने साझे अतीत और साझी संस्कृति को स्वीकार करके एक नए भारत के साथ एक नए भारत केन्द्रित विश्व के निर्माण के लिए कमर कस लें.आखिर ये एक सच्चाई है की इस देश के और पाकिस्तान और बंगलादेश के भी, सभी लोगों का डी एन ऐ एक ही है अर्थात हम सब एक ही बाप की औलाद हैं. हमारे इबादत के तरीके जुदा जुदा हो सकते हैं लेकिन हम सबका खून एक ही है.

  3. इक़बाल जी सही समय पर सही विचार व्यक्त करने के लिए कोटि कोटि साधुवाद .

    अब समय की जरूरत के अनुसार आपके सुविचारो को जनमानस द्वारा मूर्त रूप देने का उचित समय आ गया है जहा जात पांत धर्म से परे अपने विकाश का द्वार स्वयं मिल जुल कर खोलना चाहिए न की जातिवाद धर्मवाद में पड़ कर भेड़ बकरी बनना जाय .
    अन्यथा केवल कल्पना की जा सकती है की आने वाले वर्षो में हमारा और आपका भविष्य क्या होगा .

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