–पंकज चतुर्वेदी
भारत अपने विकास के पथ पर तो बढ़ता जा रहा है लेकिन साथ-साथ देश में अमीर-गरीब के बीच की दूरियां भी लगातार बढती ही जा रही हैं। देश के कई भू-भागों में आज भी प्राकृतिक संसाधनों पर स्वामित्व का संघर्ष अपने चरम पर हैं, जहाँ एक ओर अपने जीवन यापन के लिए जंगल और प्रकृति पर निर्भर आदिवासी समुदाय है, तो उनके सामने सर्वाधिकार युक्त एवं सशक्त उद्योगपति हैं। इस संघर्ष में जीत किसी होगी ये एक बड़ा सवाल होता हैं। भय और उद्योगिकआतंक के साए में जी रहें उड़ीसा के कालाहांडी जिले के नियमगिरि पहाड़ों के आसपास निवास करने वाले आदिवासी समुदाय के लोग अब निस्संदेह चैन की साँस ले सकते है।
केंद्र सरकार के पर्यावरण मंत्रालय ने ब्रिटिश कंपनी वेदांता को इस क्षेत्र में बाक्साइट खनन की अनुमति देने से इंकार कर दिया है। स्थानीय आदिवासी समुदाय इस मांग को लेकर लंबे समय से संघर्षरत था। अभी तो ऐसा लगता है कि ये उनकी जीत है पर ये जीत स्थाई है या तात्कालिक राहत देने वाली? इसका उत्तर मिलने में अभी समय है।यहाँ निवास रत डोंगरिया कंध और कुटिया कंध प्रजाति के आदिवासी वेदांता से अपनी जमीन और जंगल बचने के लिए पूरी ताकत से संघर्ष कर रहे थे। इस संघर्ष में उन्हें पर्यावरण-कार्यकर्ताओं का भी सहयोग मिला और इस कारण से ये मामला देश की शीर्ष न्याय –संस्था तक भी पहुंचा।
आमतौर पर कारोबारियों और उद्योगपतियो का समर्थन करने वाले भारत के पर्यावरण मंत्रालय के कथित आकाओं को शायद इस बार जय राम रमेश ने रोक लिया और उनके मंत्रालय ने ये खुले तौर पर स्वीकार किया की वेदांता की नियत में खोट है, इस कारण से नियमगिरि पहाड़ को नियम विरुद्ध खोदने की अनुमति नहीं दी जा सकती, साथ ही उड़ीसा राज्य सरकार द्वारा प्रदान की गयी प्राथमिक अनुमति की पूरी प्रक्रिया पर सवाल उठते हुए माना की इस सारे घटनाक्रम में अब तक हुआ सब कुछ संदेह के घेरे में हैं। उड़ीसा सरकार ने इस मामले को हलके में लेते हुए तमाम गलतियाँ की है ,जो पर्यावरण की दृष्टि से बहुत घातक हो सकती है साथ ही भारत के वन आधिकार कानून २००६ की भी धज्जियाँ उडाई गयी है।
इस परियोजना की खनन प्रक्रिया के लिए वेदांता ने उड़ीसा सरकार के खान निगम के साथ अपनी सहयोगी स्टारलाइट इंडिया की साझेदारी से एक नवीन कंपनी गठित की और सन २००४ में सूबे के मालिक नवीन पटनायक ने इस परियोजन का शिलान्यास भी कर दिए,वो चुनावों का दौर था और पटनायक जी को सिर्फ अपनी कुर्सी नजर आ रही थी। वह यह भूल गए थे की उनकी दम पर वेदांता की सहयोगी स्टारलाइट इंडिया राज्य सरकार से खनन की प्राथमिक अनुमति तो लेगी पर आगे क्या होगा?
नियमगिरि पहाड को देवता स्वरुप पूजने वाले स्थानीय कुटिया और डोंगरिया आदिवासियों ने सबसे गुहार लगाई की, इस खनन अनुमति से इन दोनों आदिवासी समुदायों की सामाजिक और सांस्कृतिक विरासत तो मटिया-मेट होगी ही, साथ ही साथ उनकी आर्थिक सेहत और भी खराब ही जायेगी।क्योकिं इस क्षेत्र के जंगल और जमीन ही इन दोनों समुदाय के अन्नदाता और भाग्य विधाता है। वर्तमान परिस्थितियों में वैसे भी पूरे देश में आदिवासी शोषित, पीड़ित और उपेक्षित है।
भला हो जयराम रमेश का की उनके विभाग के मातहत वन सलाहकार समिति ने वन अधिकार कानून २००६ के प्रावधानों को ध्यान रखते हुए यह पाया की, वेदांता और उड़ीसा खान निगम का संयुक्त उपक्रम इस कानून के अनुरूप नहीं है। ना हीं सम्बन्धित ग्राम सभा की सहमति और अनुमति है और वहाँ की ग्राम सभा ने प्रस्ताव पारित कर अपने सामुदायिक अधिकारों के हनन की आशंका भी जतई। यह भी सिद्ध पाया गया की ये दोनों आदिवासी जनजातीय आदि–काल से ही यहाँ निवास रत है। जबकि उड़ीसा सरकार ने यह दावा किया की उक्त दोनों आदिवासी समुदाय भारत के वन अधिकार कानून २००६ के तहत किसी भी हक के पात्र नहीं है, क्यों की ये दोनों पुरातन कालीन स्थाई निवासी नहीं है,जो की पूर्णत गलत था। डोंगरिया और कुटिया दोनों ही पुरातन काल से निवास के अतिरिक्त सरकारी रूप से भी अनुसूचित घोषित है। इन दोनों स्थितियो में सरकारों को इनके भूमि एवं आजीविका के अधिकारों का संरक्षण करना कानूनन अनिवार्य है। जो सम्भवतः उड़ीसा सरकार नहीं करने का मन बना चुकी थी।
डोंगरिया आदिवासियों के लगभग २५-३० प्रतिशत आबादी ही उन गावों में या इर्द-गिर्द निवास रत है, जहाँ खनन प्रस्तावित था। पर्यावरण विशेषज्ञों का ऐसा अनुमान है ,की यदि यह खनन कार्य शुरू हो जाता तो इस खदान के आसपास की लगभग पचास लाख वर्ग किलोमीटर की वन संपदा सीधे तौर पर प्रभावित होती।इस समिति ने नियमगिरि के अतिरिक्त उड़ीसा सरकार द्वारा लांजीगढ़ में वेदांता द्वारा अपनी रिफायनरी की क्षमता बढ़ाने के लिए अपनाए जा रहें तरीकों पर ये कहते हुए आपत्ति उठाई है, के जिन खदानों से वेदांता बाक्साइट ले रहा उनमें से लगभग अस्सी प्रतिशत खदाने पर्यावरण के प्रावधानों के अनुरूप नहीं हैं।ऐसे में ये लगातार दूसरा ऐसा मामला है ,जहाँ उड़ीसा सरकार की मंशाओं पर सवाल खड़ा हो रहा है।
इस सारे घटना-क्रम ने एक बार फिर राजनेताओं–नौकरशाहों व बड़े उद्योगपतियों के बीच के संबंधो को उजागर किया है। सरकारी विभाग इन आदिवासियों के लिए तो जग गया पर अभी भी देश में ऐसे छोटे-बड़े अनेक स्थान है जहाँ खनन के नाम पर लूट मची है और जिसका जैसा कद वैसा अवैध भुगतान भी हो रहा है। ये सब इस लिए शोषित हो रहें है के वो आदिवासी न होकर सामान्य शहर या गांव है। स्वस्थ पर्यावरण और सशक्त प्रकृति पर तो हर भारत वासी का अधिकार और हक है। न जाने राज्यों और केंद्र के सम्बन्धित विभाग कब नींद से जागेंगे और पूरे देश में वो दिन आयेगा कि जब कोई धन्ना सेठ हमारी प्रकृति और धरती माँ को बल-पूर्वक हम से छीन नहीं पायेगा। ये सब हम और आप पर ही निर्भर है, कि हम इस दिशा में कैसा रुख अपनाते है, क्योंकी अभी तक तो हम सब बस सरकारों पर ही आश्रित रहते आये है और हमारी इसी मानसिकता का लाभ उठाकर पूंजीपति हमारे संसाधनों और हम पर स्वामित्व का स्वप्न देखते है और अधिकांशतः सफल भी हो होते है। पर अब दौर बदलेगा ऐसी आशा और विश्वास है।
आँखे खोलने वाला आलेख ……….
अस्तु…….. आभार
बहुत ही गंभीर विषय पर लिखे गए सूचनापरक आलेख की तस्दीक करते हुए इसमें सन्निहित प्रश्नों के निदान की बहरहाल कोई आशा नहीं करता .
दोनों तरफ के वर्गीय अंतर्द्वंद सामने आ चुके हैं .शाशकवर्ग में न केवल केंद्र राज्य स्तरीय अंतर्विरोध है अपितु शातिशाली भू खनन माफिया और सत्तापक्ष के बीच भी सिर्फ दिखावे के नहीं बल्कि हितग्राही अंतर्विरिध जग जाहिर हैं .एक और आश्चर्य जनक अंतर्संबंद उजागर हुआ है की आदिवाशियों या उग्र वामपंथ की हिंसक टोलियों ने भी इसी सिस्टम में सुधार की राह पकड ली है और वे अपने परंपरागत वर्ग मित्रों की कतार से फिलहाल दूर छिटकते जा रहे हैं .