ऐट्रोसिटी कानून के दुरूपयोग पर सुप्रीम कोर्ट की मुहर

संजीव खुदशाह

विगत दिनों सुप्रीम कोर्ट ने एक आदेश पारित किया जिसमें इस बात का जिक्र किया गया कि भारत में एट्रोसिटी कानून का दुरुपयोग बड़ी मात्रा में किया जा रहा है। इसलिए अब लोक सेवकों पर सीधे FIR नहीं किया जा सकता ना ही गिरफ्तारी हो सकेगी। ध्यान रखिए यह बंदिश केवल लोक सेवकों पर है, आम जनता पर नहीं। न्यायालय ने कहा कि एससी/ एसटी कानून के तहत दर्ज मामलों में किसी भी लोक सेवक की गिरफ्तारी से पहले न्यूनतम पुलिस उपाधीक्षक रैंक के अधिकारी द्वारा प्राथमिक जांच जरूर करायी जानी चाहिए।

न्यायमूर्ति आदर्श गोयल और न्यायमूर्ति यू. यू. ललित की पीठ ने कहा कि लोक सेवकों के खिलाफ एससी/ एसटी कानून के तहत दर्ज मामलों में अग्रिम जमानत देने पर कोई पूर्ण प्रतिबंध नहीं है। पीठ ने यह भी कहा कि एससी/ एसटी कानून के तहत दर्ज मामलों में सक्षम प्राधिकार की अनुमति के बाद ही किसी लोक सेवक को गिरफ्तार किया जा सकता है। इस फैसले के आने के बाद एट्रोसिटी कानून जिसे अनुसूचित जाति जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम कहा जाता है एक बार फिर चर्चा में आ गया।

सुप्रीम कोर्ट में जिस कारण ऐसे फैसले देने का आधार बताया गया है, दरअसल उसका कोई डाटा या सरकारी दस्‍तावेज मौजूद नहीं है की दलितों आदिवासियों के द्वारा अनुसूचित जाति जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम का दुरूपयोग किया जा रहा है। आमतौर पर सवर्णों के बीच इस कानून की चर्चा होती रही है कि दलितों आदिवासियों द्वारा ऐसे कानून का दुरुपयोग किया जाता है।

अब मैं आपको बता दूं कि इस कानून को बनाने की क्यों जरूरत पड़ी। दरअसल अनुसूचित जाति और जनजाति जिसे आमतौर पर दलित और आदिवासी संबोधित किया जाता है। के साथ सामाजिक, राजनैतिक एवं आर्थिक उत्पीड़न होता रहा है। उन्हें थप्‍पड़ मार देना, बलात्कार करना, अपमानित करना, भारत की जातिगत व्यवस्था में एक सर्व स्वीकृत रीति रिवाज में शामिल है। इसे धार्मिक मान्यता भी प्राप्त है1 इस कारण दलितों और आदिवासियों का चौतरफा शोषण होता रहा है1 केरल हाईकोर्ट में एक मानहानि के मुकदमे में याचिकाकर्ता दलित को यह कह कर उसकी याचिका खारिज कर दिया गया कि किसी दलित का अपमान सार्वजनिक स्‍थल में होने के बावजूद वह अनुपस्थित था, तो फिर मानहानि का दावा कैसा। इस फैसले से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि दलित आदिवासियों के अत्याचार की जड़े कहां तक फैली हुई है। दरअसल यह फैसला उसी अत्याचार की एक कड़ी मात्र है। इसी प्रकार एक और मामला है उत्‍तर प्रदेश के गाजीपर जेल में जब भी कोई राजनीतिक पार्टी जेल भरो आंदोलन करती है तो वहां के जेल अधिक्षक जीप भरकर पुलिस वालों को भेजता है और मुसहर नामक दलित जाति के लोगो को झूठे केस में गिरफतार कर जेल में बंद कर देता है और पूरे जेल की साफ सफाई कराई जाति है बाद में उन्‍हे छोड़ दिया जाता है।

लोक सेवक आमतौर पर ऐसे अधिनियम का दुरूपयोग करते देखे जाते रहे हैं जैसे जबरदस्ती मानव शव को उठाने के लिए प्रेरित करना। जातिगत नाम से जलील करना। मानव मल उठाने के लिए दबाव देना। जातिगत आधार पर अपने सबऑर्डिनेट को मलाईदार प्रभार देना दलित आदिवासियों को दूर रखना। प्रमोशन मे अड़ंगे खड़ा करना आदि आदि। आज जितने भी विचाराधीन कैदी जेलों में बंद है उनमे अधिकतर दलित आदिवासी और पिछड़े है वे इसलिए कैद है क्‍योकि उनके पास 100 रूपय तक की जमानत अदा करने के लिए पैसे नही है। भाड़े में वकिल करना, केस लड़ना तो एक स्‍वप्‍न है।

एक कलेक्टर ऑफिस में मेरा जाना हुआ वहां के चपरासी आपस में चर्चा कर रहे थे की गोड़ीन आई की नही आई, बाद में पूछताछ करने पर पता चला की उनकी महिला कलेक्टर जोकि गोड़ जाति से संबंधित है। उन्हें इस प्रकार जलील करते हुए संबोधित किया जा रहा था। यानी कि अब इस कानून के आने के बाद खुसुर पुसुर जलील करने के बजाय लोक सेवकों को यह सारे काम करने की खुली छूट मिल जाएगी।

वहीं दूसरी ओर आप देख सकते हैं की तमाम इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से लेकर सोशल मीडिया समाचार पत्रों तक दलितों और आदिवासियों के ऊपर शोषण और अत्याचार की खबरें आती रहती हैं।

लेकिन सुप्रीम कोर्ट द्वारा ऐसे आदेश पारित करने का उद्देश्य अस्पष्ट है क्योंकि विगत वर्षों में अनुसूचित जाति जनजाति पर अत्याचारों के मामले सरकारी आंकड़ों के अनुसार बढ़े हैं। झज्जर चकवाडा खैरलांजी ऊना के अत्याचार की घटना आज भी ताजा है। और रोज समाचार पत्रों में ऐसे अत्याचारों की खबर सुर्खियों में बनी रहती है। ऐसी स्थिति में इस अधिनियम को यह कहकर कि इसका दुरुपयोग किया जा रहा है, शिथिल कर देना एक दुर्भाग्यपूर्ण फैसला है। क्योंकि भारत में ऐसा कोई अधिनियम नहीं है जिसका दुरुपयोग नहीं किया जा रहा है। चाहे भूमि के मामले में सीलिंग एक्ट हो, चाहे इनकम टैक्स का मामला हो, दहेज उत्‍पीड़न कानून हो या किसी भी प्रकार के प्रतिरोधी आदेश जैसे ड्राई लेटरिंग पर बना अधिनियम। इन सभी का दुरुपयोग कुछ पर्सेंट होता है। तो इसका मतलब यह नहीं है कि भारत के सारे अधिनियम को यह कहकर खारिज कर दिया जाए कि उसका दुरुपयोग किया जा रहा है। यह एक गलत निर्णय होगा कम से कम सरकार द्वारा जारी किए गए आंकड़े यही बताते हैं कि अनुसूचित जाति जनजाति समुदाय के लोगों के साथ उत्पीड़न की घटनाएं बढ़ी हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्णय किन प्रकरणों की सुनवाई करते हुए लिया है यह तो उस आदेश के विस्तृत अध्ययन के बाद ही बताया जा सकता है। लेकिन जिस प्रकार से इस आदेश की चौतरफा निंदा प्रशंसा हो रही है। उसे देखकर लगता है कि इस मुद्दे पर माननीय सुप्रीम कोर्ट को कम से कम एक बार तो पुनर्विचार करना चाहिए। बल्कि इस कानून में दलित आदिवासी के साथ पिछड़ा वर्ग की जातियों को भी इसमें शामिल करना चाहिए क्‍योकि उन्‍हे भी जाति गत जलालत का सामना करना पड़ता है। अन्यथा भारत के तमाम अधिनियम इसी प्रकार शिथिल होते जाएंगे यह तो इसकी शुरुआत मात्र है जो आगे के अधिनियमों के लिए मार्ग प्रशस्त करेगी।

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  1. अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के बड़े पैमाने पर दुरूपयोग किये जाने की शिकायत उपरान्त सर्वोच्च न्यायलय द्वारा जारी हुए नए दिशा-निर्देश प्रशंसनीय हैं| लेखक और प्रवक्ता.कॉम के लिए मेरा सुझाव है कि वर्तमान राष्ट्रवादी प्रशासन द्वारा जनहित उन्नतिशील प्रयासों को भारतीय जनता तक पहुँचाने में उन्हें सावधानी बरतनी होगी| विशेषकर, जबकि अंग्रेजी में लिखे कानूनों में रूचि अथवा ठीक से जानकारी न होते विषय पर अनिश्चित अथवा अविश्वसनीय ढंग से लिखे प्रस्तुत लेख प्रायः लोगों में केवल संशय और भय उत्पन्न करते हैं|

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