धर्मनिरपेक्ष शब्द को हटाने की मांग को लेकर सर्वोच्च न्यायालय की शरण

अशोक प्रवृद्ध

भारत विभाजन के पश्चात आज तक के काल में केंद्र की सता में सतासीन सरकारों के आचरण के अवलोकन से यह सिद्ध होता है कि भारत की सरकारें धर्मनिरपेक्षता का सिर्फ ढिंढोरा ही पीटती है, और धर्म निरपेक्षता के नाम पर बहुसंख्यक हिंदुओं के हितों की बलि देकर मुसलमानों और ईसाईयों के हितों को अधिक हवा दे अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की नीति को बढ़ावा दे रही है। सरकारें सच्चे अर्थों में धर्मनिरपेक्षता का पालन न करके पार्टी भक्ति और कुर्सी भक्ति के कारण हिंदुओं के हितों को तिलांजली दे रही है। धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है कि सरकार किसी धर्म विशेष का प्रचार नही करेगी और न ही उसे विशेष संरक्षण देगी, जबकि भारत विभाजन के पूर्व की विदेशी शासक व बाद की सरकारें ऐसा ही कर रही है, और बहुसंख्यक हिंदू जाति के हितों पर कुठाराघात करके मुसलमानों व ईसाईयों को प्रोत्साहित करने हेतु राष्ट्रविरोधी तत्वों को बढ़ावा दे रही है। यह राष्ट्रीय नेताओं के दोहरे मानदण्ड और दोहरे आचरण का द्योत्तक है। 

उल्लेखनीय है कि हमारे देश में धर्मनिरपेक्षता के अर्थ और इसे सरकारी नीतियों में किस सीमा तक लागू किया जाना अपेक्षित है, इस विषय पर लम्बे समय से बहस होती रही है, लेकिन इसका समुचित उत्तर व समाधान अब तक निकाला नहीं जा सका है। इसके विरोधियों का मानना है कि धर्मनिरपेक्ष शब्द अपने आप में ही बहुत गलत है, धर्म से निरपेक्ष कोई नहीं हो सकता। सरकार के परिप्रेक्ष्य में इसे देखा जाए तो वह व्यक्ति के आत्मिक और जागतिक कल्याण के लिए जितने भी उपाय कर सकती है, वह सारे उपाय धर्म की श्रेणी व परिभाषा में आते हैं। इस दृष्टि से देखा जाए तो कोई भी सरकार अपने आप में धर्मनिरपेक्ष नहीं हो सकती। इसके विपरीत धर्म को व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला मानने वालों की भी कमी नहीं है। समय -समय पर इसे हटाने की मांग को लेकर विभिन्न मंचों से आवाजें उठती रही हैं, लेकिन इस पर कोई स्पष्ट निर्णय लेने से सभी कतराते रहे हैं। भाजपा की स्पष्ट बहुमत की मोदी सरकार आने के बाद भारत के बहुसंख्यकों में यह आश बंधी थी कि इस पर निर्णय लेने का अब उचित समय आ गया है, लेकिन मोदी सरकार के द्वारा भी इस पर  सकारात्मक कदम उठाने के कोई संकेत अब तक नहीं मिल सके हैं, जिससे बहुसंख्यक जनता नाउम्मीद होती जा रही है। ऐसी तंग तबाह परिस्थितियों में भारत की बहुसंख्यक जनता की ओर से पेशे से अधिवक्ता दो बन्धुओं, बलराम सिंह और करुणेश कुमार शुक्ला ने अपने अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका विगत जुलाई माह में दायर की है, जिसमें संविधान की प्रस्तावना में बाद में जोड़े गए दो शब्द समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष को हटाने की मांग करते हुए कहा है कि सर्वोच्च न्यायालय  यह घोषित करे  संविधान के प्रस्तावना में दिये गये समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा गणतंत्र की प्रकृति बताते हैं, और ये सरकार की संप्रभु शक्तियों और कामकाज तक सीमित हैं, ये आम नागरिकों, राजनैतिक दलों और सामाजिक संगठनों पर लागू नहीं होता। इसके साथ ही याचिका में जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 29ए (5) में दिये गये शब्द समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष को भी रद्द करने की मांग की गई है।

दायर याचिका में कहा गया है कि ये दोनों शब्द मूल संविधान में नहीं थे। इन्हें 42वें संविधान संशोधन के जरिये 3 जनवरी 1977 को जोड़ा गया। जब ये शब्द प्रस्तावना में जोड़े गए उस समय देश में आपातकाल लागू था। इस पर सदन में बहस नहीं हुई थी, ये बिना बहस के पास हो गया था। कहा गया है कि संविधान सभा के सदस्य केटी शाह ने तीन बार धर्मनिरपेक्ष (सेकुलर) शब्द को संविधान में जोड़ने का प्रस्ताव दिया था लेकिन तीनों बार संविधान सभा ने प्रस्ताव खारिज कर दिया था। बीआर अंबेडकर ने भी प्रस्ताव का विरोध किया था। केटी शाह ने पहली बार 15 नबंवर 1948 को सेकुलर शब्द शामिल करने का प्रस्ताव दिया जो कि खारिज हो गया। दूसरी बार 25 नवंबर 1948 और तीसरी बार 3 दिसंबर 1948 को शाह ने प्रस्ताव दिया लेकिन संविधान सभा ने उसे भी खारिज कर दिया। याचिका में कहा गया है कि अनुच्छेद 14,15 और 27 सरकार के धर्मनिरपेक्ष होने की बात करता है यानि सरकार किसी के साथ धर्म, भाषा,जाति, स्थान या वर्ण के आधार पर भेदभाव नहीं करेगी। लेकिन अनुच्छेद 25  इस्लाम और ईसाईयत को मानने वाले नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार देता है जिसमें व्यक्ति को अपने धर्म को सर्वश्रेष्ठ मानने और उसका प्रचार करने की आजादी है। कहा गया है कि लोग धर्मनिरपेक्ष नहीं होते, सरकार धर्मनिरपेक्ष होती है। याचिका में जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 में 15 जून 1989 को संशोधन कर जोड़ी गई धारा 29ए (5) से भी सेकुलर और सोशलिस्ट शब्द हटाने की मांग है। इसके तहत राजनैतिक दलों को पंजीकरण के समय यह घोषणा करनी होती है कि वे धर्मनिरपेक्ष सिद्धांत का पालन करेंगे। कहा गया है कि जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 कहती है कि धर्म के आधार पर वोट नहीं मांगेगे लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि धर्म के आधार पर संगठन नहीं बना सकते। याचिका में 2017 के सुप्रीम कोर्ट के अभिराम सिंह के फैसले में जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ के अल्पमत के फैसले का हवाला दिया गया है जिसमें कहा गया है कि संविधान को यह पता है कि पूर्व में जाति, धर्म, भाषा, आदि के आधार पर भेदभाव और अन्याय हुआ है। इसकी आवाज उठाने के लिए संगठन बना सकते हैं तथा चुनावी राजनीति में इस आधार पर लोगों को संगठित कर सकते हैं। याचिकाकर्ता का कहना है कि वह एक राजनैतिक पार्टी बनाना चाहता है लेकिन वह धारा 29ए(5) के तहत घोषणा नहीं करना चाहता। याचिका में मांग की गई है कि न्यायालय घोषित करे कि सरकार को लोगो को समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष सिद्धांत का पालन करने के लिए बाध्य करने का अधिकार नहीं है। हमारा मानना है कि सरकार को पंथनिरपेक्ष रहकर काम करना चाहिए अर्थात सरकार अपने प्रत्येक निर्णय में यह आभास कराना चाहिए कि उसके सामने कोई हिंदू मुसलमान सिख या ईसाई नहीं है, बल्कि वह जाति , धर्म ,लिंग के पक्षपात से दूर रहकर कार्य करने को अपना धर्म मानती है। ऐसे में सरकार का भी अपना धर्म है और उसे अपना धर्म पहचानते हुए धर्मनिरपेक्ष ना रहकर धर्मसापेक्ष शासन चलाना चाहिए।

उल्लेखनीय है कि भारतवर्ष प्राचीन काल से ही सदा सभी समुदायों के हितचिंतकों में अग्रणी रहा है, यहाँ के शासकों ने किसी के साथ भी बिना कारण कोई अहितकर कार्य कभी नहीं किया। मुसलमानों के शासनकाल में भी भारत के जिन भागों पर मुसलमानों का अधिकार हो गया अथवा एक बार अधिकार हटने पर दोबारा अधिकार हो गया वे सभी मुस्लिम शासक इस्लाम को पोषक रहे और हिंदुओं को भय और लोभ के कारण मुसलमान बनाते रहे। अंग्रेजों का राज्य भी ईसाई मत पोषक राज्य था। भारत के जितने भाग पर अंग्रेजों का अधिकार होता गया,  उतने भाग पर वे ईसाइयत का प्रचार कराते रहे। लेकिन अंग्रेजों ने जिन रियासतों का आंतरिक प्रबंध देशी नरेशों पर छोड़ दिया, वे हिंदू सिख और मुस्लिम शासक भी वैदिक अर्थात हिंदू धर्म, सिख मत और इस्लाम मत के ही पोषक रहे हैं। कहने का आशय यह है कि विदेशी आक्रान्ताओं के शासन के अतिरिक्त भारत के शासक आदिकाल से देश की परतन्त्रता काल और देश के विभाजन तक कभी भी धर्मनिरपेक्ष नहीं रहे, बल्कि वे सदा ही धर्मसापेक्ष रहे हैं, लेकिन भारतवर्ष का यह परम दुर्भाग्य था कि इसी धर्म निरपेक्षता की छद्म नीति पर चलने के परिणामस्वरूप ही आदि सृष्टि से यह आर्यावर्त्त, देश बंटते- बंटते अंततः 1947 में पुनः दो भागों में अर्थात भारत और पाकिस्तान में बंट गया। देश के कुछ नेताओं ने प्रयत्न किया कि देश का बंटवारा न हो, परंतु गांधी व अंग्रेजों की बदनीयती, कांग्रेस की मुस्लिम साम्प्रदायिकता के आगे घुटने टेकने की नीति, जिन्ना और मुस्लिम लीग की आरंभ से ही अनुचित मांगों को मानना और मुहम्मद अली जिन्ना के दुराग्रह के कारण लाखों भारतीयों के बलिदान और करोड़ों लोगों के घर से बेघर होने के बाद भी भारत माता का बंटवारा टल न सका। ध्यातव्य है कि देश का विभाजन तो भारत में दो प्रमुख धर्म हिंदू और इस्लाम के रहने के परिणाम स्वरूप इन दो जातियों के आधार पर अर्थात द्विजातिय सिद्धांत के आधार पर हुआ, लेकिन विभाजन के समय मुस्लिम लीगी नेताओं ने चालाकी दिखलाते हुए कहा कि विभाजन तो हो, परंतु जो भी हिंदू, मुसलमान, सिख व ईसाई जहां रहना चाहें, वे वहां रह सकते हैं । इस चालाकी को गांधी और जवाहरलाल नहीं समझ सके अथवा जान- बूझकर आँख मूँद ली। सरदार बल्लभ भाई पटेल ने इस चालाकी को समझा और इसका विरोध भी किया, परन्तु उनकी एक न चली, और इसी आधार पर मुसलमान यहां बस गये, परंतु मुसलमानों की धर्मान्धता और असहिष्णुता के कारण भारत के मुस्लिम बाहुल्य प्रांतों सीमांत प्रदेश, पंजाब, बलोचिस्तान, सिंध और बंगाल से हिंदू निकाले जाने लगे। मुसलमानों ने पाकिस्तान को इस्लामी राष्ट्र और भारत को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाया। विभाजन के समय भयंकर रक्तपात, नरसंहार व हिन्दुओं के निर्वासन के पश्चात भारत का धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाना कांग्रेस की करोड़ों भूलों के समान एक भयंकर भूल थी, जिसका दुष्परिणाम आज तक हिंदू जाति को भुगतना पड़ रहा है। देश के विभाजन के बाद अपनी लिबड़ी बर्तना अर्थात बोरिया विस्तर समेटकर जा रहे विदेशी इसाई पादरी भी भारत को धर्म निरपेक्ष राष्ट्र घोषित होते देख यहीं रूक गए और भारतीय संविधान के अनुसार सभी धर्मों को अपने विचारों के प्रचार प्रसार करने की आज्ञा होने के कारण इसका अनुचित लाभ उठाने लग गये। लेकिन आज धर्मनिरपेक्षता का प्रयोग हिंदू जाति व भारतीय राष्ट्रीयता के लिए महान संकट का कारण सिद्घ हो रहा है। इस समय भारतवर्ष में अनेकों विदेशी पादरी ईसाइयत के प्रचार में संलग्न है और पश्चिमी देशों से बहुत बड़ी राशि प्रतिवर्ष भारत में आ रही है। जनसेवा के नाम पर आने वाली इस राशि से स्कूलों, कालेजों, अस्पतालों और अन्य जनसेवा कार्यों के नाम पर भोले- भाले वनवासियों को ईसाई बनाने के काम में लाई जाती है। उधर इसी धर्म निरपेक्षता के आड़ में इस्लाम के अनुयायी लव जिहाद, जमीन जिहाद, जनसंख्या जिहाद और न जाने कौन- कौन सी जिहाद चलाकर सनातन धर्मियों को इस्लाम के नूर से पुर करने में लगे हैं। सरकारें भी बहुसंख्यक जनता से प्राप्त कर अर्थात टैक्स से इन्हें अल्पसंख्यक के बहाने वित्तीय, पंथीय, शैक्षणिक, रोजगारीय संरक्षण देती रहती है। अल्पसंख्यकों के नाम पर इन्हें अनेक सुविधाएँ प्राप्त हैं, जो देश के बहुसंख्यकों को प्राप्त नहीं है। इन परिस्थितियों में सर्वोच्च न्यायालय में दायर इस याचिका की ओर देश की बहुसंख्यक जनता की निगाहें गिद्ध की भांति लगी हुई हैं, अब देखना है कि सर्वोच्च न्यायालय इस मामले क्या रुख अपनाती है? 

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