सुषमा की विदेश नीति पर खुली बात

sushmaगनीमत है कि विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने पत्रकार परिषद तो की। पिछले तीन महिने से चल रही इस सरकार के किसी भी मंत्री ने अभी तक प्रेस कांफ्रेंस नहीं की। यों तो प्रधानमंत्री या किसी मंत्री को महिने में एक बार पत्रकार-परिषद जरुर करनी चाहिए और हफ्ते में एक या दो दिन उन्हें जनता के दरबार में भी जाना चाहिए लेकिन आजकल पत्रकारिता की जैसी-दुर्दशा हो गई है, खास तौर टीवी चैनलों की, उसे देखते हुए यह स्वाभाविक है कि नेता अपने आपको पत्रकारों से दूर रखने की कोशिश करें। प्रधानमंत्री ने इस परंपरा को भी तज दिया है कि अपनी विदेश यात्रा में वे पत्रकारों को अपने साथ ले जाएं। टीवी चैनलों ने अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए ऐसे-ऐसे हथकंडे अपनाने शुरु कर दिए हैं कि उनसे सरकार ही नहीं, देश का भी बड़ा नुकसान हो सकता है। इस खतरे के बावजूद सुषमा स्वराज ने पत्रकार-परिषद् संबोधित की, यह सत्साहस की बात है।

सुषमा ने क्या खूब कहा कि पाकिस्तान से बातचीत के विषय में जो कुछ हुआ है, वह अर्ध-विराम या अल्प-विराम है। पूर्ण-विराम नहीं। इसका अर्थ यही कि भारत के दरवाजे खुले हैं। नरेंद्र मोदी ने पाकिस्तानी कश्मीर को राहत भिजवाने की जो पेशकश की थी, उसका कमाल हमने आज देख लिया। मैंने कल ही लिखा था कि जो पाकिस्तानी प्रतिक्रिया आई है, वह किसी अफसर की करतूत है। वह नवाज़ शरीफ की प्रतिक्रिया हो ही नहीं सकती। मीठे आम भेजनेवाले मियां नवाज की प्रतिक्रिया भी मीठी ही आई है। इसी प्रकार मुझे लगता है कि हमारे प्रधानमंत्री कार्यालय ने विदेश-सचिव वार्ता भंग करने का जो बहाना बनाया था, वह भी किसी अति उत्साही अफसर की कृपा से हुआ होगा। नरेंद्र मोदी और सुषमा स्वराज हुर्रियत का बहाना क्यों बनाएंगे? वे अपनी पड़ौसी-नीति पर पानी क्यों फेरेंगे? लेकिन वह छोटा-सा हादसा हो गया तो हो गया! उसे अब भूलना अच्छा! अब आगे बढ़ना जरुरी है।

इसी प्रकार जापान में दिए प्रधानमंत्री के भाषण में ‘सामुद्रिक विस्तारवाद’ (चीनी विस्तारवाद) का उल्लेख भी किसी अति-उत्साही जापान-प्रेमी अफसर की कृपा से ही हुआ होगा। मोदी और सुषमा, दोनों ही चीन से अच्छा संबंध बनाना चाहते हैं। सुषमा ने उस ‘चीन-विरोधी’ टिप्पणी पर अपनी सफाई देकर कांटे को निकाल बाहर किया है। सुषमा स्वराज का यह कहना काफी सही है कि कश्मीर और अरुणाचल को चीन भारत का हिस्सा ही माने, क्योंकि तिब्बत और ताइवान को भारत उसका हिस्सा मानता है। सुषमा को मैं बता दूं कि चीन यह माननेवाला नहीं है। क्या मोदी और सुषमा की इतनी हिम्मत है कि वे भी तिब्बतियों, सिंक्याग के उइगरों और मंचू चीनी नागरिकों को पासपोर्ट की बजाय एक अलग कागज पर वीज़ा देने की नीति बना दें? जैसा चीन हमारे साथ कर रहा है, वैसा हम उसके साथ करें। जैसे को तैसा! अगर चीन कश्मीर और अरुणाचल को भारत का हिस्सा न माने तो हम तिब्बत और सिंक्यांग को चीन का हिस्सा क्यों मानें? दोनों की ऐसी अटपटी मान्यताओं के बावजूद हमारा द्विपक्षीय व्यापार और व्यवहार जस का तस चल सकता है। सितंबर के इस महिने में हमारी विदेश नीति के सामने कई बड़ी चुनौतियां आनेवाली हैं।

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