स्वाध्याययुक्त जीवन ईश्वर व सदाचार से जोड़ता तथा बन्धनों को हटाता है

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मनमोहन कुमार आर्य

स्वाध्याय ‘स्व’ तथा ‘अध्याय’ दो शब्दों से मिलकर बना एक शब्द है। स्व हम स्वयं के लिए प्रयोग करते हैं और उसका अध्ययन व ज्ञान स्वाध्याय कहलाता है। स्वाध्याय में सहायक ऋषियों द्वारा निर्मित सत्साहित्य भी होता है। ऐसा भी साहित्य होता है जो मनुष्य के जीवन को बर्बाद करता है। यह सत्साहित्य नहीं होता। सत्साहित्य वह होता है जो मनुष्यों को अपने जीवन के लक्ष्य का बोध कराने के साथ उसकी प्राप्ति कराने में भी सहायक होता है। सामान्य मनुष्य हानिकारक साहित्य और सत्साहित्य में अन्तर नहीं कर पाते। हानिकारक साहित्य में कुछ आकर्षण व रोचकता हो सकती है क्योंकि उसका आधार पूर्ण सत्य पर आधारित नहीं होता। वहां आपको असत्य व अज्ञान पर आधारित सिद्धान्त मिलते हैं जो मनुष्य को अपनी आत्मा का ज्ञान व ईश्वर व उसकी प्राप्ति के साधनों का ज्ञान कराने के स्थान पर उनसे दूर करते हैं। ऋषियों के ग्रन्थों का अध्ययन करने सत्साहित्य में आता है। अच्छे व बुरे दोनों प्रकार के साहित्य से होने वाले लाभ व हानि का ज्ञान भी अध्येता व पाठक को स्वाध्याय करने से होता है। सत्साहित्य में सबसे शीर्ष स्थान पर चार वेद आते हैं। इसके बाद वेदों के द्रष्टा ऋषियों का वह साहित्य जो वेदानुकुल हो, वह आता है। ऋषियों के वही सिद्धान्त व मान्यतायें उनकी पुस्तकें पढ़कर माननीय होती हैं जो पूर्णतः वेदानुकूल हों। वेद विपरीत व वेद विरुद्ध मान्यतायें माननीय व अनुकरणीय नहीं होतीं। वेद संस्कृत में हैं, अतः वैदिक संस्कृत भाषा का ज्ञान अध्येता व स्वाध्यायकर्ता को होना आवश्यक होता है। संस्कृत का ज्ञान सभी मनुष्यों के लिए प्राप्त करना सरल कार्य नहीं है। यदि होता तो आज संस्कृत के ज्ञानियों से भरा हुआ हमारा देश और समाज होता। यदि नहीं है तो इसके अनेक कारण हो सकते हैं। अंग्रेजी से आजीविका के साधन अधिक प्राप्त होते हैं इसलिये सारा देश आंखे बन्द करके अंग्रेजी जानने में प्रवृत्त होकर भौतिक सुख प्राप्ति में लगा हुआ है और इससे होने वाली अनेकानेक हानियों से पूर्णतः अनभिज्ञ है वा उसने उन्हें भुला दिया है। ऋषि दयानन्द व उनके अनुयायियों की कृपा से आज समस्त वैदिक साहित्य हिन्दी भाषा में उपलब्ध है जिससे कक्षा पांच तक पढ़ा व्यक्ति भी सम्पूर्ण वैदिक वांग्मय का अध्ययन कर सकता है।

स्वाध्याय में हम अपनी आत्मा के यथार्थ स्वरूप का चिन्तन कर उसे जानने का प्रयास करते हैं। उसमें हम कृतकार्य नहीं हो पाते तो हम इसके लिए विद्वानों की सहायता लेते हैं या फिर धार्मिक ग्रन्थों का अध्ययन करते हैं। मनुष्यकृत मतवादी ग्रन्थों में यह सामर्थ्य नहीं है कि वह मानव शरीर के भीतर विद्यमान अत्यन्त सूक्ष्म वे चेतन तत्व जीवात्मा का सन्तोषजनक ज्ञान प्रदान कर सके। यह आत्मा कब कैसे उत्पन्न हुई, शरीर में यह क्यों, कैसे व कहां से तथा किस प्रकार आई, मृत्यु के बाद यह कहां चली जाती है, क्या शरीर की मृत्यु होने पर इसका भी अन्त हो जाता है, यदि नहीं होता तो फिर इसका भावी स्वरूप व गति आदि क्या होती है, यह व ऐसे अनेक प्रश्न हैं जो मतों के धार्मिक ग्रन्थों से उपलब्ध नहीं होते। इनका सत्य वा सही उत्तर वेद और वैदिक ग्रन्थों जिनका संकलन व सम्पादन ऋषियों व आर्य विद्वानों ने किया है, वहीं से प्राप्त होता है। इन प्रश्नों के उत्तर पाकर मनुष्य का जीवन धन्य हो जाता है। उसे इस संसार को बनाने वाली व चलाने वाली सत्ता ‘‘ईश्वर” का ज्ञान भी होता है। वेदों व वैदिक साहित्य में ईश्वर के सत्य स्वरूप का वर्णन है। इसको एक सूत्र में प्रस्तुत करें तो कह सकते हैं कि ‘ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र, सृष्टिकर्ता है एवं सबका उपासनीय, ध्यान, स्तुति व प्रार्थना करने योग्य वही है।’

वेदों से हमें संसार के सभी रहस्यों का पता चलता है। संसार के समस्त धार्मिक साहित्य में केवल वेद व वैदिक साहित्य ही ज्ञान विज्ञान का पोषक है। अन्य धार्मिक ग्रन्थ तो कहानी किस्से व असम्भव बातों सहित विज्ञान विरुद्ध आधी अधूरी बातों से भरे पड़े हैं। अतः सत्य ज्ञान विज्ञान एवं मनुष्य व प्राणियों के जीवन के कारण, उद्देश्य, लक्ष्य व लक्ष्य प्राप्ति के साधन व उसकी विधि जानने के लिये संसार के सभी मनुष्यों को वेद और वैदिक साहित्य की शरण लेनी ही पड़ेगी, नहीं तो उनका यह अमृत मनुष्य जीवन वृथा हो जायेगा। इसके लिए जहां सत्य ज्ञानी विद्वानों के उपदेश आवश्यक हैं वहीं उनसे भी अधिक स्वाध्याय महत्वपूर्ण है। स्वाध्याय से हमें अपनी हर शंका का समाधान मिलने सहित अनेक मूल्यवान व लाभप्रद बातों का ज्ञान होता है जिससे हमारी आत्मा में आनन्द व उत्साह की वृद्धि होती है और निर्भयता सहित आत्मबल की प्राप्ति होती है। एक योगी योग के विभिन्न रहस्यों व ज्ञान को पुस्तक व गुरुओं के उपदेश से प्राप्त करता है। उसके अनुसार अभ्यास करता है और एक दिन ईश्वर का साक्षात्कार कर लेता है। यह आत्मा और ईश्वर का साक्षात्कार ही जीवन का अन्तिम लक्ष्य होता है। संसार में आज इस उद्देश्य व लक्ष्य को प्राप्ति करने वाले लोग अपवाद स्वरूप ही कोई हों? आज के युग के मनुष्यों का लक्ष्य मात्र धन दौलत की प्राप्ति है। इसके लिए कुछ अनुचित भी करना हो तो वह उसे करने से परहेज नहीं करते। इसके परिणाम की भी उन्हें चिन्ता नहीं होती। आज के लोग सच्चाई को महत्व न देकर धनवान लोगों की जी हजूरी को ही पसन्द करते हैं।

स्वाध्याय से मनुष्य को अपनी आत्मा को उन्नत करने की प्रेरणा मिलती है। वह यम व नियम सहित आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि को जानता व समझता है व उसे अभ्यास द्वारा सिद्ध भी करता है। यम व नियम उसे सदाचारी बनाकर सन्तोष प्रदान करते हैं। वह प्रलोभनों में फंसता नहीं है। वह न्यूनतम आवश्यकताओं में, बिना कार, कोठी, अच्छे वस्त्र व बैंक बैलेन्स भी, धनवानों से अधिक सुखी, स्वस्थ, दीर्घजीवी व सन्तुष्ट जीवन व्यतीत करता है। वेदों व इतर ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश आदि का स्वाध्याय करने वाला प्रातः व सायं ईश्वरोपासना करता है, दोनों समय अग्निहोत्र यज्ञ करता है, माता-पिता की यथासम्भव सेवा करता है, अतिथि व विद्वानों का सत्कार करने के साथ पशु-पक्षियों आदि प्राणियों के प्रति दया व सहयोग की भावना रखता है। देश भक्त होता है व देश व समाज के लिए अपनी आहुति देने में भी तत्पर रहता है। स्वामी दयानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, महात्मा हंसराज, पं. रामनाथ वेदालंकार आदि इसके कुछ साक्षात् उदाहरण रहे हैं।

स्वाध्याय से ज्ञात होता है कि आत्मा अनादि, नित्य, अजर व अमर है। यह सत्य, चित्त, एकदेशी, ससीम व अल्पज्ञ है तथा अनादि काल से जन्म व मरण के बन्धनों में फंसी हुई है। अनेक बार इसका मोक्ष भी हुआ है परन्तु मोक्षावधि पर जन्म होने और फिर सत्यासत्य कर्मों को करने के कारण यह जन्म व मरण रूपी बन्धन में फंस गई है। इस जन्म मरण के दुःख रूपी बन्धनों से मुक्त होकर पूर्ण आनन्द की प्राप्ति का मार्ग वेद और सत्यार्थप्रकाश आदि अनेक ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। इसके लिए ही स्वाध्याय व वैदिक दिनचर्या का सेवन आवश्यक है। मनुष्य का धर्म सत्य का आचरण करना और दुरितों वा बुराईयों को छोड़ना है। वेद विहित कर्म ही सत्य व आचरणीय है और वेद की आज्ञा के विपरीत कार्य ही अकरणीय व त्याज्य हैं। ऐसा करने से मनुष्य के जीवन के बन्धन टूटते हैं और वह सत्कर्मों के द्वारा मोक्ष की ओर बढ़ता है व जन्म जन्मान्तरों की साधना के बाद उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है।

इस लेख में हमने वेद व वैदिक ग्रन्थों यथा ब्राह्मण, संस्कृत व्याकरण, निरुक्त, छन्द, गणित ज्योतिष, 11 उपनिषद, 6 दर्शन, मनुस्मृति, रामायण, महाभारत, आयुर्वेद के ग्रन्थ चरक व सुश्रुत आदि सहित सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका तथा ऋषि दयानन्द और आर्य विद्वानों के वेदभाष्यों के स्वाध्याय से होने वाले लाभों की चर्चा की है। यदि कोई मनुष्य अपने जीवन का कल्याण व सुख चाहता है तो उसे इन ग्रन्थों का स्वाध्याय कर अपना कर्तव्य निर्धारण करना होगा। निश्चय ही वह दुःखों से निवृत्ति अर्थात् मोक्ष की ओर अग्रसर होगा और कालान्तर में कभी मोक्ष प्राप्त कर सकता है। आई व्रत लें कि हम स्वाध्याय से कभी प्रमाद नहीं करेंगे। इसके लिए आज ही घर में सत्यार्थप्रकाश व ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका सहित समस्त वैदिक वांग्मय प्राप्त कर इसका स्वाध्याय आरम्भ कर दें। इति ओ३म् शम्।

 

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