स्वामी सर्वदानन्द सरस्वती और उनके आर्यसमाजी बनने की प्रेरणादायक घटना

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मनमोहन कुमार आर्य

स्वामी सर्वदानन्द सरस्वती जी आर्यसमाज के विख्यात संन्यासी हुए हैं। आपने अलीगढ़ में एक गुरुकुल का सचालन भी किया जिसमें पं. ब्रह्मदत्त जिज्ञासु जी संस्कृत व्याकरण आदि पढ़ाते थे। इसी गुरुकुल में हमारे दो प्रमुख विद्वान पं. युधिष्ठिर मीमांसक एवं आचार्य भद्रसेन जी भी पढ़े थे। आर्यसमाजी बनने से पहले स्वामी जी नवीन वेदान्त मत के सन्यासी थे और उससे पूर्व शैवमत के अनुयायी थे। स्वामी जी की मूर्तिपूजा छूटने की कहानी भी मनोरंजक है। स्वामी जी शैवमत के अनुयायी थे और शिवमूर्ति को फूलों से नित्यप्रति सजाया करते थे। एक बार आपने देखा कि एक कुत्ता उस शिव मूर्ति का अपमान कर रहा है। इससे आपको बहुत दुःख हुआ। मन में कई प्रकार के प्रश्न व शंकायें उत्पन्न हुई। इसका परिणाम यह हुआ कि मूर्तिपूजा पर से आपका विश्वास समाप्त हो गया। मूर्ति पूजा छूटने के बाद स्वामी जी का झुकाव नवीन वेदान्त की ओर हो गया। आपको फारसी भाषा का बहुत अच्छा ज्ञान था। स्वामी जी स्वयं भी हिन्दी मिश्रित उर्दू में पद्य रचना भी किया करते थे।

 

स्वामी सर्वदानन्द जी का जन्म सन् 1855 ई. में पंजाब की धरती पर होशियारपुर जिले के बस्सी कलां ग्राम में पिता श्री गंगा बिशन जी के यहां एक ब्राह्मण कुल में हुआ था। माता-पिता ने आपको चन्दूलाल नाम दिया था। आपके कुल में आपके पूर्वज आयुर्वैदिक और यूनानी पद्धति से चिकित्सा किया करते थे। अतः आपको भी अपने पिता व पितामह आदि से इन चिकित्सा पद्धतियों का ज्ञान प्राप्त हुआ। इससे आप एक कुशल वैद्य व हकीम बन गये थे। मूर्तिपूजा छूटने और वेदान्ती बनने पर आपके मन में संन्यासी बनने का विचार आया। अतः आपने 32 वर्ष की आयु में सन् 1887 में एक वेदान्ती साधु से संन्यास की दीक्षा ली और चन्दूलाल से स्वामी सर्वदानन्द बन गये। आपके संन्यासी बनने का कारण यह बताया जाता है कि आपके पिता मृत्यु शय्या पर पड़े थे परन्तु उनके प्राण नहीं निकल रहे थे। आपने अपने पिता से इसका कारण पूछा तो वह बोले कि मेरी इच्छा थी कि मैं अपने जीवन में संन्यासी बन कर ईश्वर का भजन कीर्तन करते हुए ही मृत्यु का वरण करूं। मैं यह काम नहीं कर पाया, इसका मुझे पश्चाताप हो रहा है। इस पर चन्दूलाल वा स्वामी सर्वदानन्द जी ने उन्हें कहा कि आप शान्ति से प्राण त्याग कर दें। आपकी इच्छा को मैं संन्यासी बन कर पूरी करूंगा। 32 वर्ष की आयु में संन्यास ग्रहण करने के पीछे यही प्रमुख कारण था। संन्यास के समय आप विवाहित थे या नहीं, आपकी कोई सन्तान थी या नहीं, इसका विवरण नहीं मिलता।

 

स्वामी जी आर्यसमाजी कैसे बने, इसकी कथा भी जानने योग्य है जिसे सुनकर व स्मरण कर उस समय के आर्यसमाजियों के प्रति हमारा शिर झुक जाता है। इस कथा को हमने आर्यसमाज में अनेकानेक बार अनेक विद्वानों से सुना है और इसे सुनकर हमेशा हमारा हृदय द्रवित होता रहा। प्रा. जिज्ञासु जी ने लिखा है कि ‘श्री स्वामी जी के वैदिक धर्मी बनने की कहानी बहुत प्रसिद्ध है। जब नवीन वेदान्ती थे तो मस्ती में घूमते रहते थे। घुमक्कड़-फक्कड़ प्रकृति के थे ही। भ्रमण करते-करते आप चित्रकूट पहुंचे। सर्दी के दिन थे। यमुनातट पर नंगे पड़े रहते थे। उन्हीं दिनों आपको एक रोग चिपट गया। आपको छाती व कटि में दर्द रहने लगा। यह रोग अन्त तक उन्हें कष्ट देता रहा। स्वामी जी तपस्वी तो थे ही। भोजन मिल गया तो मिल गया, नहीं मिला तो नहीं मिला। 24-24 घण्टे अपने विचार में, ध्यान में मग्न रहते थे। इस अवस्था में आप रुग्ण हो गये।

 

निकट के ग्राम के ठाकुर को जो स्वामी जी का भक्त था, स्वामी जी की रुग्णता की जानकारी मिली। उस क्षेत्र में वह अकेला आर्यसमाजी था। उसने आपकी चिकित्सा व सेवा-शुश्रूषा में कोई कमी न छोड़ी। ठाकुर की सेवा से आप कुछ ही दिन में रोग मुक्त हो गये। अब वहां से चलने का मन बनाया। अपने सेवक को मिलने के लिए बुलवाया। यह सन्देशा पाकर वह आया और एक रेशमी वस्त्र में लपेटकर एक ग्रन्थ भेंट करते हुए उसने कहा, ‘‘महाराज ! यह मेरी एक भेंट है। इसे स्वीकार कीजिये। इसे आदि से अन्त तक एक बार अवश्य पढ़ना।” आपने भक्त को वचन दिया कि इसे अवश्य पढूंगा। वहां से स्वामी जी गोरखपुर की ओर चल पड़ें।

 

मार्ग में विचार आया कि देखें तो सही कि हमारे भक्त ने कौन-सी पुस्तक भेंट की है। वस्त्र को खोला तो देखते हैं कि यह महर्षि दयानन्द कृत सत्यार्थप्रकाश है। स्वामी जी ने इससे पूर्व इसका नाम तो सुन रखा था परन्तु इससे घोर घृणा करते थे। इसे छूना तक पाप मानते थे। अपने सेवक को वचन दे चुके थे कि इसे पढूंगा। वैसे भी विचार आ गया कि देखना तो चाहिये कि इसमें क्या लिखा है। नित्यप्रति इसे पढ़ने लगे। इसकी समाप्ति तक एक दिन भी ऐसा न गया जब इसका स्वाध्याय न किया हो। सत्यार्थप्रकाश का पाठ समाप्त करते-करते स्वामी सर्वदानन्द का जीवन ही बदल गया। अब वह क्या से क्या हो गये, इसे देखकर उनके परिचित लोग भी दंग थे। जो कल तक स्वयं को ब्रह्म समझता था अब वह महात्मा जीव बन गया था। स्वयं को ब्रह्म मानने वाले स्वामी जी अब एक ब्रह्म की उपासना का उपदेश देने लगे। सकल भ्रम संशय दूर हो गये। जैसे पक्के नवीन वेदान्ती थे अब वैसे ही दृढ़ आर्यसमाजी बन गए। महाशय राजपाल जी के इस कथन में कुछ भी अत्युक्ति नहीं है।”

 

स्वामी जी अस्पृश्यता निवारण और दलितोद्धार का भी प्रचार करते थे। जब कभी कहीं व्याख्यान आदि देते थे तो अस्पृश्यता निवारण और दलितोद्धार की चर्चा अवश्य करते थे। स्वामी जी जन्मना जाति-पांति के घोर विरोधी थे। हिन्दू समाज में दलितों के प्रति जो अन्याय, शोषण व दुव्र्यवहार किया जाता रहा है, उस पर आप रक्तरोदन किया करते थे। हमें इस बात का दुःख है कि आर्य विद्वानों व संन्यासियों की इस पीड़ा व इसे दूर करने के उपायों का समाज पर अपेक्षानुकूल प्रभाव नहीं पड़ा और यह सफल नहीं हुआ। स्वामी सर्वदानन्द जी क लेखों का एक संग्रह विश्व प्रसिद्ध कहानीकार सुदर्शन जी ने संकलित व सम्पादत कर प्रकाशित किया था। उसके बाद भी कुछ संग्रह प्रकाशित होने का अनुमान है परन्तु इस समय सभी अप्राप्य है और उनका न तो किसी को ज्ञान है और न ही चिन्ता। स्वामी सर्वदानन्द जी की मृत्यु चैत्र माह के 28 वें दिवस संवंत् 1997 विक्रमी (सन् 1940) में हुई थी।

 

स्वामी जी का लिखा हुआ स्वाध्याय योग्य एक बहुत ही अच्छा ग्रन्थ ‘सन्मार्ग दर्शन’ है। सौभाग्य से यह ग्रन्थ इस समय उपलब्ध है। इस ग्रन्थ की पृष्ठ संख्या 455 है जिसे भव्य रूप में आर्य प्रकाशक ‘श्री घूडमल प्रह्लादकुमार आर्य धर्मार्थ न्यास, हिण्डोन सिटी’ ने अगस्त, 2004 में प्रकाशित किया था। इसके सम्पादक हैं स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती। स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती जी भी आर्यसमाज की एक महान हस्ती थे। आपने अनेक ग्रन्थों का पुनरुद्धार किया। आपने 18 पुराण पढ़े हुए थे। बाल्मीकि रामायण और महाभारत पर भी आपने स्वसम्पादित आर्य मान्यतानुकूल संस्करण प्रकाशित कराये। अनेक ग्रन्थों का उर्दू से हिन्दी में अनुवाद कर उनका प्रकाशन कराया। हमारा सौभाग्य है कि स्वामी जी के जीवन काल में हमें उनका सत्संग करने सहित उनसे वार्तालाप करने के अनेक अवसर भी प्राप्त हुए थे। इसी के साथ हम इस चर्चा को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

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