अविवाहित सहजीवन का विषाद ! विवाह का प्रसाद – हृदयनारायण दीक्षित

सुप्रीम कोर्ट ने अविवाहित सहजीवन को वैध ठहराया है। कोर्ट की अपनी सीमा है। उसने मौलिक अधिकार (अनुच्छेद 21) की ही व्याख्या की है। उसने विवाह नामक संस्था को अवैध नहीं ठहराया लेकिन भारतीय शील, मर्यादा और संस्कृति के विरोधी बम हैं। टिप्पणीकार इसे आधुनिकता की जरूरत बता रहे हैं। लेकिन ऐसे अति आधुनिक (उनकी भाषा में अल्ट्रा मार्डन) लोग भी अपनी पुत्रियों और बहिनों और पुत्रों की अविवाहित मस्ती स्वीकार नहीं करेंगे। क्या वे अपनी पत्नियों और दीगर पुरुष का सहजीवन स्वागत योग्य मानेंगे? आखिरकार कथित आधुनिकता की मांग तो यही है? उनकी नजर में काम-सुख की सामाजिक मर्यादा रूढ़िवाद है और मुक्त यौनसुख ही आधुनिकता। लेकिन विश्व के प्रथम ‘कामसूत्र’ के रचयिता आचार्य वात्स्यायन ने भी परस्त्री सहजीवन को गलत ठहराया है, राजाओं, मंत्रियों, वरिष्ठों को उचित है कि वे परस्त्री गमन जैसे निंदनीय कार्य में प्रवृत्त न हों। (कामसूत्र, पृष्ठ – 575 चौखम्भा प्रकाशन) आगे कहते हैं पराई स्त्रियों से संबंध दोनों लोकों को नष्ट करता है। (वही, 598) बेशक सहजीवन मौलिक अधिकार है। अविवाहित सहजीवन के अपने मजे हैं। दोनों सहजीवी उपभोक्ता माल हैं। जब तक सनसनी है, तब तक साथ-साथ वरना दोनाें आमने-सामने दो-दो हाथ। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। इस बीच बच्चे हो गये तो जिम्मेदारी कौन उठाये? संपत्ति का विभाजन कैसे हो? परिवार भारतीय समाज की प्रीतिपूर्ण इकाई है। प्राचीन भारत में कर्तव्यबोध था, अधिकार शून्यता थी। सारी संपत्ति पर परिवार के अधिकार थे। प्राचीन गणसमाजों में सामूहिक संपत्ति थी फिर निजी संपत्ति का विकास यूनान में हुआ। भारत में यूनान से हजारों बरस पहले परिवार संस्था थी। पिता की संपत्ति ज्ञानी पुत्र को मिलती थी। ऋग्वेद का तीसरा मंडल बहुत प्राचीन है। यहां इंद्र से प्रार्थना है हे इंद्र जिस प्रकार पिता अपने ज्ञानवान पुत्र को अपने धन का भाग देता है उसी प्रकार तू हमें धन दे। भारत में विवाह संस्था पुष्ट थी और परिवार संस्था का केंद्र थी। वेदों में पृथ्वी-आकाश के जोड़े को माता-पिता कहा गया। लेकिन उन्हें संयुक्त रूप में ‘रोदसी’ कहा गया। पति-पत्नी अलग इकाइयां थे लेकिन मिलकर दंपति। प्रसिद्ध मार्क्सवादी लेखक रामशरण शर्मा ने ‘प्राचीन भारत में भौतिक प्रगति एवं सामाजिक संरचनाएं’ (पृष्ठ – 60) में ऋग्वैदिक काल का वर्णन किया है घर के लिए प्रयुक्त शब्द ‘सद्म एवं दम’ प्रकट करते हैं कि इसे संपत्ति के रूप में स्वीकार किया जाता था। पति-पत्नी दोनो ही घर अथवा ‘दम’ के स्वामी थे उन्हें दंपति कहा जाता है।

सारी दुनिया के आदिम समाज स्वच्छंद थे। विवाह, संस्था का विकास बाद में हुआ लेकिन भारत में ऋग्वैदिक काल में ही विवाह संस्था थी। बावजूद इसके प्रख्यात कम्युनिस्ट एस. ए. डांगे ने ‘ओरीजिन ऑफ मैरिज’ में एंग्लेस को आधार बनाकर ऋग्वैदिककाल में विवाहहीनता/अपरिभाषित यौन-संबंध सिद्ध करने का प्रयास किया है। डांगे के अनुसार इनमें रोक लगाने का काम बहुत मंदगति से हुआ – ‘दिस प्राग्रेस वाज मेड मच मोर डिफीकल्ट’। वे इसके लिए ऋग्वेद के यम-यमी सूक्त का उदाहरण देते हैं। डांगे ने ऋग्वेद का यह सूक्त (10.10.1 से 14) पूरा नहीं पढ़ा। यम और यमी भाई – बहन थे। यमी ने यम से प्रेम संबंध की याचना की। यम ने ऐसी मित्रता से साफ इनकार किया – न ते सखा सख्यम् वष्टि एतत् सऽलक्ष्मा यत् विषऽरूपा भवति। (वही मंत्र 2) यम ने डाटते हुए कहा कि ऐसी बकवास व्यर्थ है। यमी ने फिर आग्रह किया। यम ने ऐसे संपर्क को अधम बताया। ऋग्वेद के ऋषि पति और पत्नी के बीच प्रेम को लेकर सतर्क थे। ऋग्वेद के सबसे बड़े देवता अग्नि दंपति समनसा कृणोपि-अग्नि पति-पत्नी का मन मिलाते हैं। (ऋग्वेद 5.3.2) विवाह संस्कार में अग्नि के सात फेरे की परंपरा शायद इसी वजह से आयी। मित्र भी यह काम करते हैं। वे दंपति मिलाते हैं। (ऋग्वेद 10.68.2) ऋषि सूर्य से कहते है ‘ आप आये, उसी तरह आयें जैसे पति-पत्नी के पास जाता है।(ऋग्वेद 10.149.4)’ पत्नी रूपवती है पर अपना सौन्दर्य सिर्फ पति को दिखाती है। दूसरे लोग केवल वस्त्र देखते हैं। (ऋग्वेद 10.71.4)

विवाह सामाजिक अनुष्ठान था। सिर्फ कन्या के पिता ही वर को कन्या का हाथ नहीं सौंपते, संपूर्ण समाज भी कन्यादान में हिस्सा लेता है। वर कहता है, हे वधू सौभाग्यवृध्दि के लिए मैं तेरा हाथ ग्रहण करता हूँ। भग, अर्यमा, सविता और पूष देवों ने गृहस्थ धर्म के लिए तुझे प्रदान किया। तुम वृद्धावस्था तक मेरे साथ रहो। (वही 36) फिर अग्नि से प्रार्थना है हे अग्नि आप सुसंतति प्रदान करें। फिर इंद्र से प्रार्थना है हे इंद्र इसे सौभाग्यशाली बनाये। फिर शुभकामनाओं की झड़ी लग जाती है आप कभी पृथक् न हो। पुत्र-नाती-पोतों के साथ प्रमोदपूर्वक जीवन का पूरा भोग करें। (वही 43)। वैदिक काल में भरे पूरे परिवार थे। नई बहू परिवार की ‘सम्राज्ञी’ थी। ऋग्वेद के एक मंत्र का आशीष बड़ा प्यारा है सम्राज्ञी श्वसुरे भव – ससुर पर सम्राज्ञी, सम्राज्ञी श्वसु्रवा भव, ननान्दरि सम्राज्ञी भव, सम्राज्ञी देवृषु सास-ननद-देवर सम्राज्ञी। विवाह संस्था किसी राजाज्ञा से नहीं आई। इसका सतत विकास हुआ है। महाभारत काल में भी विवाह हैं, पर कहीं कहीं कमजोरी भी है। धृतराष्ट्र पांडु और विदुर विवाह संस्था की संतानें नहीं हैं। समाजशास्त्रीय नजरिए से देखने पर तत्कालीन देशकाल की परिस्थितियां आसानी से समझी जा सकती हैं। महाभारत के अनुसार श्वेतकेतु ऋग्वैदिक काल की विवाह संस्था को मजबूत करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता थे। आधुनिक भारत श्वेतकेतु से कम परिचित है। महाभारत के आदि पर्व के अनुसार श्वेतकेतु के पिता उद्दालक प्रख्यात दर्शनशास्त्री ऋषि थे। श्वेतकेतु के सामने एक व्यक्ति ने उसकी मां का हाथ पकड़ा और कहा चलें। श्वेतकेतु को गुस्सा आया। पिता उद्दालक ने कहा पुत्र! क्रोध न करो इस भूमंडल में सभी वर्णों की स्त्रियाँ बिना रोकटोक सबों से मिल सकती है। श्वेतकेतु ने नियम बनाया कि जो स्त्री पति को छोड़ दूसरे से मिलेगी उसे भू्रणहत्या का पाप लगेगा और जो पुरुष अपनी स्त्री को छोड़ दूसरी से संपर्क करेगा उस पर भी वैसा ही कठोर पाप होगा। पांडु ने कुंती को यही बात बतायी थी। भारत में यही परंपरा है। छांदोग्य उपनिषद के छठा प्रपाठक में श्वेतकेतु व उनके पिता के बीच हुई प्रीतिकर बहस है। उद्दालक अपने पुत्र श्वेतकेतु को हड़काते हुए कहते हैं श्वेतकेतो! जाओ, ब्रह्मचर्य वास करो। हमारे कुल में ऐसा कोई पुरुष नहीं होता जो बिना वेद पढ़े, ज्ञानी हुए ही ब्राह्मण बन जाये। उपनिषद् के अनुसार श्वेतकेतु 12 वर्ष पढ़कर 24 वर्ष की आयु में ज्ञान में अकड़ता हुआ घर लौटा। पिता ने पूछा तुम स्वयं को ब्राह्मण मानने का अभिमान लेकर लौटे हो लेकिन क्या तुमने वह जाना है जिससे न जाना हुआ भी जान लिया जाता है और न सुना हुआ भी सुना हुआ हो जाता है। श्वेतकेतु हक्का-बक्का था। उसने पिता से ही वह ज्ञान जानने की प्रार्थना की, कथं नु भगवः!स आदेशो भवतीति। पिता ने सामान्य संसारी उदाहरणों के जरिए पुत्र को ब्रह्मज्ञान समझाया। श्वेतकेतु ने प्रश्न प्रति प्रश्न किये। उद्दालक ने उत्तर दिये और अंत में कहा तत्वमसि श्वेतकेतो वह तत्व तू है श्वेतकेतु, तेरे भीतर, तेरे बाहर वही तत्व है। पिता का अंतिम वाक्य दीर्घकाल तक भारतीय ज्ञान का मुहावरा बना रहा, तत्वमसि श्वेतकेतु। दर्शनशास्त्री होना आसान है। दर्शन को समाजहित में लागू करना ही असली बात है। पश्चिम में कोई ऋग्वेद नहीं उगा। कोई श्वेतकेतु नहीं हुआ। भारत में विवाह संस्था का दिलचस्प विकास हुआ। यहां विवाह संस्था स्थाई है। लेकिन अमेरिका में विवाह संस्था मर गयी। वहां ट्यूब टायर की तरह पत्नियां बदली जाती है, पति बदले जाते हैं। अमेरिका यूरोप भारत में घुस आया, अमेरिकी यूरोपीय संस्कृति प्रभावित कन्याएं अपना शरीर दिखाती हैं। वे कहती हैं देह सुंदर है, इसे दिखाने में बेजा क्या है? इसी में अविवाहित सहजीवन का चलन बढ़ा। दक्षिण कोरिया के कानून मंत्री ने हाल ही में सेक्स संबंधों का वैध ठहराने वाला वक्तव्य दिया है। दक्षिण कोरिया का सेक्स व्यापार जी. डी. पी. का 4 प्रतिशत है। भारत भी इसी व्यापार की ओर बढ़ रहा है। ऐसा भोगवादी सहजीवन अंततः विषाद है। लेकिन पति-पत्नी का मिलन फल ही परिवार है और वही दिव्य प्रसाद है। इसकी पवित्रता बचाकर ही भारतीय राष्ट्र का संवर्ध्दन होगा। -लेखक उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री रह चुके हैं।

7 COMMENTS

  1. सुरेश साहनी जी को धन्यवाद।
    उन्होंने इस “व्हॅलंटाईन डे” के उचित समय पर इस आलेख को उजागर कर दिया।
    दीक्षित जी का यह आलेख आज भी निश्चित समसामयिक ही है।

    अमरिका की समस्याग्रस्त वास्तविकता, आँकडों सहित प्रत्यक्ष देखने के लिए, निम्न आलेख के अंत के अनुसंधान शोध के निष्कर्शों को देखें।

    https://www.pravakta.com/whlntain-de-pathology

  2. बहुत ही ज्ञानवर्धक लेख है ।इसके लिए दीक्षित जी के साथ ही आप भी साधुवाद के पात्र है ।

  3. अधिकरो के नाम पर सुप्रीम कोर्ट जाने क्या क्या नियम निकल रहे है. विषय वाकई बहुत चिंताजनक है. हमारा वैभव शाली इतिहास है फिर क्यों न्यायालय पाश्चात्य संस्कृति का साथ दे रहा है. हमने अंग्रजो को आने दिया और हमारा वैभव नष्ट हो गया. उनकी गंदगी को लेकर पूरे परिवार व समाज वयवस्था को छीन भीन करना चाहते है.

  4. टिप्पणी दो: अमरिकामें (पश्चिममें?) व्यक्ति स्वातंत्र्यका अतिरेक हुआ है। कारण: (१)अधिकारोंपर(कर्तव्यपर नहीं) आधारित समाज।(२)अधिकार, व्यक्ति व्यक्ति को आपसमें लडाता है-दूरी पैदा करता है-बढते बढते -अंतमें विच्छेद/विघटन होता है। परस्पर कर्तव्य,(सारा रामायण जो सीख देता है) प्रेम को, बहुगुणित कर देता है, प्रेम-स्नेह-आदर-इत्यादि, व्यक्तिको समष्टि(सामुहिक )कल्याण की ओर आगे बढाते हैं। एक ’जिग-सॉ पज़ल’ के टुकडो जैसा आपसी गठन करते हैं।जो क्रिया-प्रतिक्रिया होते होते, बढते बढते, सारे समाजमें फैल जाता है।
    यह सारा मेरी दृष्टिमें हमारे “रामायण” जैसे ग्रंथोंका, और राम भगवानके आदर्श का ही परिणाम है, जो आज भी इस कलियुगमें समाजको बचा पाया है। भारत जैसी विपन्नावस्था झेलनेके पहलेही कई संस्कृतियां नष्ट हो चुकी थी, जिसका इतिहास प्रमाण है। व्यक्तिका आत्यंतिक अल्प कालिक सुख, दीर्घ कालिक दुःख का कारण हो जाता है। यह दूरदृष्टा चिंतकोंको सहज(?) है।
    भारत उन विचार प्रणालियोंसे चेतकर रहे, जो पति-पत्‍नी को लडाती है, जन जनको लडाती है।शत्रुता पैदा करती है। ऐसी उद्दाम, अदूरदर्शी और उथली प्रणालियोंसे भारत सीख ले/। अब भी देर हुयी नहीं है। विचार करें। मुक्त चर्चा भी हो, पर बंधुभाव रखते हुए। दीक्षित जी से सहमति व्यक्त करता हूं।

  5. अमरिका के आंकडे जानकारीके लिए प्रस्तुत:(१) २१% जोडेही, अपने (शरीरसे) जन्म पाए हुए बच्चोंके साथ कुटुंब सहित रहते हैं।(२) ३ में से २ विवाह विच्छेदित होते हैं।(३) ५४ % पुरुष और ५०% महिलाएं जीवन में, एक बार भी विवाह नहीं करते, पर स्वैर, स्वच्छंद जीवन जीते हैं।(४)संतानोकी, १८ वर्षकी आयु के बाद माता पिताका उनके प्रति, उत्तरदायित्व कानून से समाप्त हो जाता है। (५) कालेज छात्र विवाह करना नहीं चाह्ते। जब विवाहके बाद जो प्राप्त होना है, वह बिना जिम्मेदारी मिले, तो कौन मूरख(?) ब्याह करके झंझट मोल लेगा। (६) युनान, और रोम का सांस्कृतिक ‍र्‍हास उसकी विवाह संस्था नष्ट होनेसे हुआ था।
    मेरा मत: भारत ऐसे रास्तेसे बचे। यह अधःपतनका ऐसा रास्ता है, जिससे वापस लौटा नहीं जाता। अमरिकन छात्रोंका परामर्शक २५ वर्षोंसे भी अधिक काल तक रहा हूं।कई सत्य घटनाओंसे अवगत हूं।

  6. भारतीय संस्कार और भारतीय परम्पराए सारी दुनिया में आज भी स्थापित है, जिसका मुख्य आधार इस देश में रिश्तों में परस्पर विश्वास ,गहरे मानवीय मूल्य और इनकी मज़बूत मान्यता ही है,यदि पति-पत्नी के रिश्ते मज़बूत और विश्वसनीय नहीं होंगे तो परिवार और आने वाली नस्ल विकृत मानसिकता को लेकर जनम लेगी जो किसी भी प्रकार से मानवता के लिए शुभ नहीं है ,रिश्ते कोर्ट या कानून से नहीं बल्कि आत्मा-भावना या दिल से बनते और निभाए जाते है,वेद-पुराण धर्म सब हमें इस बारे में ज्ञान का बोध करा रहे है-फिर भी न जाने क्यों हम रिश्तो का व्यापर चलने की और अग्रसर हो रहे है ….हे ईश्वर सबको स्दबुधि देकर समस्त मानव सभ्यता और संस्कारो की रक्षा करना ये मेरी प्रार्थना स्वीकार केर मुझे अनुग्रहित करने की कृपा करना -विजय सोनी अधिवक्ता दुर्ग छत्तीसगढ़ .

    • बिलकुल हृदयनारायण जी और विजय सोनी जी आपसे मै भी सहमत हूँ …धन्यवाद

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here