उत्तर प्रदेश की अखिलेष यादव सरकार द्वारा मोचियों को गोद लिए जाने का फैसला अनुकरणीय है। आजादी के 67 साल बाद अपने ही दायरे में सिमटे इन शिल्पकारों के प्रति पहली बार किसी राज्य सरकार ने मानवीय संवेदनशीलता का परिचय दिया है। अन्यथा पूरे देश में मौजूद दलित की श्रेणी में आने वाले इस जातीय समूह का राजनीतिक दल वोट बैंक के रूप में ही इस्तेमाल करते रहे हैं। प्रदेश में जब इसी जाति से आने वाली मायावती बसपा के हाथी पर सवार होकर राज्य सिंहासन पर आरूढ़ हुई थीं,तब यह उम्मीद बंधी थी कि वे दलित कल्याण के कारगार उपाय करेंगी ? लेकिन सोशल इंजीनियंरिग के प्रपंच के बहाने उन्होंने सिर्फ बसपा के विस्तार और स्वयं प्रधानमंत्री बन जाने की महत्वकांक्षा के चलते दलितों से कहीं ज्यादा सवर्णों की परवाह की। लिहाजा दलितों के परिप्रेक्ष्य में सामाजिक,शैक्षिक व आर्थिक असमानता जस की तस बनी रही। अब घोशणा के बाद बड़ी चुनौती सपा सरकार के लिए भी है कि वह कहीं महज 2017 में होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिहाज से तो मोचियों को लुभाने का शगूफा नहीं छोड़ रही? क्योंकि बसपा की राजनीतिक पूंजी में सेंध लगाने की सपा की यह शुरूआती कोशिष हो सकती है ?
उत्तर प्रदेश में अखिलेष सरकार के वजूद में आने के बाद शायद यह पहला अवसर है,जब उन्होंने अपने राजनीतिक फायदे के लिए दलितों के लुभाने और बसपा के बोट बैंक में सेंध लगाने की नीतिगत कोशिष की है। हालांकि इस पहल के भविष्य में परिणाम जो भी निकलें,लेकिन फिलहाल यह कोशिष प्रगतिशील समाजवादी पहल ही मानी जाएगी। क्योंकि इनका सामाजिक स्तर बढ़ाने की ठोस कोशिषें मुख्यमंत्री मायावती के कार्यकाल में भी नहीं हुई। जबकि इस श्रमजीवी समुदाय को मायावती के राज में अच्छे दिनों की उम्मीद थी।
दरअसल बहुजन समाज पार्टी को वजूद में लाने से पहले कांशीराम ने लंबे समय तक दलितों के हितों की मुहिम डीएस-4 के माध्यम से चलाई थी। इसका सांगठनिक ढ़ांचा खड़ा करने के वक्त बसपा की बुनियाद पड़ी और पूरे हिंदी क्षेत्र में बसपा का संगठात्मक व रचनात्मक ढ़ांचा खड़ा करने की ईमानदार कोशिषें हुई। कांशीराम के वैचारिक दर्शन में डाॅ भीमराव अंबेडकर से आगे जाने की सोच तो थी ही दलित और वंचितों को करिश्माई अंदाज में लुभाने की प्रभावशाली नेतृत्व दक्षता भी थी। यही वजह रही कि बसपा दलित संगठन के रूप में अवतरित हो पाई। लेकिन मायावती की पद एवं धनलोलूप मंशाओं के चलते उन्होंने बसपा में ऐसे बेमेल प्रयोगों का तड़का लगाया कि उसके बुनियादी सिद्धांत चकनाचूर हो गए। नतीजतन दलित और सवर्ण का यह बेमेल समीकरण उत्तर-प्रदेश में तो ध्वस्त हुआ ही,नरेंद्र मोदी के देशव्यापी उदय के साथ पूरे देश में ध्वस्त हो गया। दलितों के सबसे मजबूत गढ़ रहे उत्तर प्रदेश में भी लोकसभा चुनाव में बसपा का सूपड़ा साफ हो गया।
ऐसा इसलिए संभव हुआ,क्योंकि मायावती ने उन नीतियों में बदलाव की कोई पहल नहीं की,जिनके बदलने से सामाजिक,शैक्षिक व आर्थिक परिदृष्य बदलने की उम्मीद बढ़ती ? यहां तक की मायावती जातीयता के बूते सत्ता हंस्तारण की बात खूब करती रहीं,लेकिन जातियता के चलते अछूत बना दिए गए समुदायों के अछूतोद्धार के लिए उन्होंने आज तक कुछ नहीं किया ? इसके उलट उन्होंने अपने शासनकाल में सवर्ण,पिछड़े व मुस्लिमों को लुभाए रखने के नजरिए से उन सब फौजदारी कानूनों को शिथिल कर दिया था,जिनके वजूद में रहते हुए ये लोग दलितों पर अत्याचार करने से भय खाते थे ? अनुसूचित जाति,जनजाति अत्याचार निरोधक अधिनियम को माया-राज में ही शिथिल किया गया। इससे दलित उत्पीड़न के आरोपी को दण्ड झेलने से बच निकलने की सुविधा हासिल हो गई। इस कानून में संशोधन करने से पहले तक 22 प्रकार के शोषण व उत्पीड़न की संहिताएं रेखांकित थीं। जिनके तहत दलित एफआईआर दर्ज करा सकते थे। संशोधन के बाद अब केवल हत्या और बलात्कार के मामले में ही दलित सीधे प्राथमिकी दर्ज करा सकते हैं। अन्य 20 प्रकृति के मामलों में पुलिस परीक्षण के बाद एफआईआर संभव है। यही एक वजह है कि प्रदेश में अखिलेष सरकार के सत्तारुढ़ होने के बाद से ही दलितों पर अत्याचार के भयावह मामले सामने आ रहे हैं। मोचियों को गोद लेने के क्रम में अखिलेष यादव को इस कानूनी मुद्दे पर पुनर्विचार करना जरूरी होगा ?
उत्तर-प्रदेश में आगरा और कानपूर का पूरा जूता उद्योग मोची कहे जाने वाले शिल्पकारों के दम पर ही आबाद है। पंरपागत ज्ञान के बूते यह इस कला में इतने परिपक्व हैं कि देश की नामी-गिरामी जूता बनाने वाली कंपनियां इन्हीं से मनचाहे जूते बनवाकर महज उस पर अपने नाम का ठप्पा लगाती हैं और आकर्षक पैंकिग में देशभर में ऊंचे दामों पर बेचती हैं। जूते-चप्पलों की मौलिक डिजाइन भी यही लोग रचते हैं। कम पढ़े-लिखे होने और आत्मविश्वास के अभाव में ये लोग अपने उत्पाद की मर्केटिंग नहीं कर पाते। जाहिर है,बजार में उत्पाद को सीधे उतरना इनके बूते की बात नहीं है। इसलिए वाकई यदि सरकार इनका कल्याण चाहती है तो जूता उद्योग को लघु उद्योग का दर्जा दे और इसी समुदाय के लोगों के सहकारी व स्व साहयता समूह बनाकर इनके व्यापार को नई दिशा दे। इस समुदाय के जो युवा बातचीत में निपुण हों,उन्हें वाणिज्य के गुर सिखाने का काम भी प्रदेश सरकार को करना होगा। इसके विपरीत यदि मोचियों के लिए आरक्षण में आरक्षण देने के उपाय तलाशे गए तो इस समुदाय का भला होने वाला नहीं है। क्योंकि यदि आरक्षण आर्थिक विषमता दूर करने का आधार वाकई बन गया होता तो ये आगरा और कानपूर में बद्हाल जिंदगी नहीं गुजार रहे होते ? हां इस परिप्रेक्ष्य में इतना जरूर करने की जरूरत है कि सरकार आरक्षण के आंकड़ों के आधार पर एक तो अनुसूवित जाति के लोगों की आर्थिक समीक्षा करे,दूसरे तथस्ट भाव से यह भी साफ करे कि वंचित मोचियों को अब तक आरक्षण का कितना लाभ मिला है ?
इस परिप्रेक्ष्य में यह भी गौरतलब है कि भारतीय समाज ने खासतौर से अनुसूचित जातियों और जनजातियों की बद्हाली के चलते,इनकी आरक्षण की निरंतरता को कमोबेष स्वीकार लिया था। लेकिन अपनी सत्ता की सुरक्षा के लिए प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने जिस जल्दबाजी में पिछड़ी जातियों के आरक्षण से जुड़ी मंडल कमीषन की रिपोर्ट को संवैधानिक दर्जा दिया,तब से जातिवाद एक नए शक्तिपुंज के रूप में उभरा। यह इतनी मजबूत संकीर्ण ताजीय भाव के साथ उभरा की इसने जाति-व्यवस्था विरोधी समूचे समाजिक व राजनीतिक अंदोलनों की समरसतावादी चेतना पर पानी फेर दिया। नतीजतन संसदीय लोकतंत्र,जातीय लोकतंत्र में बदलता गया। आज ज्यादातर क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का आधार जातीयता है। यही वजह रही कि जातिगत दलों का वजूद भारतीय लोकतंत्र पर पिछले 35-40 साल से हावी रहा है। अब जाकर मोदी के समरातावादी नारे ‘सबका साथ, सबका विकास‘ने जरूर इस जातीय प्रभाव को कमजोर किया है।
इस दिशा में अखिलेष सरकार का मोचियों को गोद लेने का निर्णय भी व्यावहरिक व तार्किक है। क्योंकि इस समुदाय के ज्यदातर कामगरों के पास घरों में ही जूता बनाने की लाचारी है। जूते-चप्पलों की मरम्मत व पालिश करने का काम तो ये आज भी फुटपाथों के किनारे खुले में करते हैं। इनके पास अपने उत्पाद बेचने के लिए बाजार में दुकानें नहीं हैं। सम्मानपूर्वक धंधा करने के लिए बाजार में दुकान का होना जरूरी है। गोद लेने की प्रक्रिया के क्रम में इन्हें बैंक से कर्ज दिलाने के हलात से न जोड़ा जाए ? क्योंकि यह कार्रवाई पेचीदी तो है ही,रिश्वतखोरी से भी जुड़ गई है। लिहाजा कर्ज के जोखिम में डालकर इनका भला मूमकिन नहीं है।
बहुजन समाज में इन्हें सम्मानजनक दर्जा हासिल कराने की दृष्टि से इन्हें ‘शुद्र‘ के कलंक से मुिक्त का जागरूकता अभियान भी चलाने की जरूरत है। डाॅ आंबेडेकर ने अपनी पुस्तक ‘हू वेअर शुद्राज‘ में लिखा है,‘मुझे वर्तमान शुद्रों के वैदिककालीन ‘शुद्र‘ वर्ण से संबंधित होने की अवधारणा पर शंका है। वर्तमान शुद्र वर्ण से नहीं हैं,अपितु उनका संबंध राजपूतों और क्षात्रियों से है।‘ इस तथ्य की पुष्टि इस बात से होती है कि भारत की अधिकांष दलित जातियां,उपजातियां अपनी उत्पत्ति का स्रोत राजवंशियों,क्षत्रियों एंव राजपूतो में तलाष्ती हैं। बाल्मीकियों पर किए गए ताजा शोधों से पता चला है कि अब तक प्राप्त 624 उपजातियों को विभाजित करके जो 27 समूह बनाए गए हैं,इनमें दो समूह ब्राह्मणों के और शेष 25 क्षत्रियों के हैं। बहरहाल,मोचियों को गोद लेने की प्रक्रिया में सामाजिक समरसता का निर्माण भी अह्म मुद्दा होना चाहिए। इसके लिए अतीत को खंगालने की जरूरत है।
प्रमोद भार्गव
सरकार का निर्णय तो सराहनीय है चाहे व वोटबैंक के लिए ही क्यों न हो , लेकिन यह कागजों तक ही सीमित न रह जाये यह भी नजर रखना जरुरी है ,मायावती तो दलित नाम पर वोट लेती रही हैं पर वे ह्रदय से कतई नहीं चाहती कि दलित ऊप्पर उठे क्योंकि उनके उठने से मायावती को खतरा होने का डर है और इसीलिए उनकी सरकार को जाना भी पड़ा हालाँकि वे इस तथ्य को कभी स्वीकार नहीं करेंगी