प्रतिभा या प्रदर्शन

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childप्रतिभा हो तो उसका प्रदर्शन भी होना चाहिये ‘’आपहि नाचे आपहि देखे’’ का क्या फायदा ? परन्तु प्रतिभा का प्रदर्शन कब हो, कहाँ हो, किस स्तर पर हो यह जानना और समझना बहुत ज़रूरी है। किसी बच्चे मे बचपन मे कोई प्रतिभा दिखते ही कुछ अति उत्साहित माता पिता उसे प्रदर्शन के लियें तैयार करने के सपने बुनकर उन पर अनावश्यक दबाव डालना शुरू कर देते हैं। ऐसा करना बच्चो को कुंठा, निराशा, घबराहट और असफलता के डर से ग्रसित कर सकता है। ये बच्चों के सर्वांगीण विकास पर विपरीत प्रभाव डालता है।

हर बच्चे मे कोई न कोई प्रतिभा होती है किसी मे कम किसी मे कुछ अधिक। बहुत थोड़े बच्चे ऐसे होते हैं जिनमे कोई असाधारण प्रतिभा होती है। आयु के साथ इसमे परिवर्तन भी होते रहते हैं। संभव है बचपन में कोई बच्चा बहुत अच्छे चित्र बनाता हो पर बड़े होते होते चित्र कला मे उसकी रुचि न रहे। बच्चों मे यदि कोई प्रतिभा दिखे तो उसके विकास के लियें उन्हे अवसर तो मिलना चाहिये पर छोटी आयु मे उन पर उपलब्धि के लियें कोई दबाव डाला जाय यह वाँछनीय नहीं है।यदि किसी बच्चे मे कोई असाधारण प्रतिभा भी हो तो उसे समय देना चाहिये। प्रतिभा परवान चढ़ने मे समय लगता है, प्रतिभा के अतिरिक्त धैर्य और परिपक्वता भी आयु के साथ ही आती है। प्रतिभा निखारने मे कड़ी महनत लगती है, फिर भी चरम सीमा सबकी होती है। बचपन मे ही यदि किसी बच्चे को उसकी चरम सीमा तक पंहुचा दिया जाय और बाद मे वह आगे न बढ पाय तो वह कुंठित हो सकता है। आदित्य नारायण ने बचपन मे कई सुन्दर गीत गाये थे परन्तु बडे होने के बाद गायन के क्षेत्र मे वो अपनी जगह नहीं बना पाये। ‘नानी तेरी मोरनी’ की गायिका रानू मुखर्जी के साथ भी ऐसा ही हुआ। कई अति लोकप्रिय बाल अभिनेता गुमनाम हो गये। इसका यह अर्थ भी नहीं है कि सिर्फ बचपन मे अभूतपूर्व सफलता देख लेने लने की वजह से ही उन्हे वांछित सफलता नहीं मिली। संभव है प्र तिभा की सीमा हो, अवसर की कमी हो या धैर्य और परिश्रम मे कमी रह गई हो। ये सब बाते संगीत, नृत्य, लेखन और खेलकूद सभी के लियें एक समान महत्वपूर्ण हैं।

बच्चों के लियें किसी भी चीज़ के मुक़ाबले शिक्षा का महत्व सबसे अधिक होता है। शिक्षा के अभाव मे बच्चों का सर्वांगीण विकास नहीं हो सकता। व्यक्तित्व के विकास के साथ साथ अधिकतर लोगों को शिक्षा ही रोज़गार देती है। कलाओ जैसे संगीत, नृत्य, चित्रकला लेखन अथवा खेलकूद को रोज़गार बनाने के लियें जिस स्तर की प्रतिभा, लगन, एकाग्रता और परिश्रम की आवशयकता होती है वह गिनेचुने लोगों मे ही होती है। इन क्षेत्रों मे अवसर भी कम ही होते हैं। बच्चों मे यदि असाधारण प्रतिभा की झलक भी दिखे तब भी पढ़ाई से समझौता करने की आवश्कता नहीं है। पढ़ाई के साथ साथ ही उनकी प्रतिभा का विकास होना ही सही है।

आजकल आरंभ से ही बच्चों पर पढ़ाई का बहुत बोझ होता है। शिक्षा का बहुत महत्व है पर उसमे भी अनावश्यक दबाव छोटी सी उम्र मे डालना अच्छी बात नहीं है। शिक्षा पर ध्यान न देकर उनकी अन्य प्रतिभाओं को प्राथमिकता देना भी उचित नहीं है। बच्चे की क्षमताओं को देखकर एक उचित संतुलन बनाने की आवश्यकता होती है। हर बच्चे की बुद्धि, अभिरुचि, मेहनत करने की क्षमता और तनाव झेलने की क्षमता को ध्यान मे रखना भी ज़रूरी है। छोटी सी उम्र मे न शैक्षिक योग्यता का सही पता चलता है न अन्य प्रतिभाओं का।

स्कूल मे पढ़ाई के अतिरिक्त जो अन्य स्पर्धायें होती हैं उनमे रुचि के अनुसार बच्चों को भाग लेने के लियें प्रोत्साहित करते रहना चाहिये परन्तु जीतने को प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं बनने देना चाहिये। बच्चों को जीत और हार दोनो को स्वीकार करना सिखाना भी ज़रूरी है। एक जीतता है तो दूसरा हारता है, न हमेशा जीत मिलती है न हमेशा हार। माता पिता को भी ये समझना चाहिये कि ये छोटी छोटी हार जीत जीवन के अंतिम फैसले नहीं होते।

पढ़ाई के साथ जब बच्चे बड़े होने लगें और उनकी प्रतिभा का स्तर भी अधिक ऊँचा दिखे तब एक बार विचार किया जा सकता है कि शिक्षा के मुक़ाबले उनके हुनर को अधिक समय और प्राथमिकता दी जाय, फिर भी शिक्षा जारी रखना बहुत ज़रूरी है। कला या खेल को शौक की तरह अपनाना सरल है पर व्यवसाय की तरह अपनाना बहुत ही कठिन है। जिस स्तर की प्रतिभा की आवश्यकता होती है उस स्तर के भी बहुत सारे प्रतिभाशाली व्यक्ति होते हैं, जिनके मुकाबले अवसर बेहद कम होते हैं। इन क्षेत्रों मे सफलता मिलने के लियें बहुत लम्बा और कड़ा संघर्ष करना पड़ता है फिर भी बहुत कम लोग सफल हो पाते हैं। कभी कभी कहा जाता है कि प्रतिभा हो तो सामने आ ही जाती है और पढाई लिखाई धरी रह जाती है, इस संदर्भ मे कई उदाहरण दिये जाते हैं – सचिन तेंदुलकर बारहवीं कक्षा उत्तीर्ण किये बिना क्रिकेट या कहें जीवन मे इतने सफल हुए, महेन्द्र सिंह धोनी या और कई लोगों ने कम पढ़ाई करने के बावजूद अपने अपने क्षेत्र मे अभूतपूर्व सफलता पाई। 122 करोड़ की जनसंख्या वाले इस देश मे इस तरह की सफलता पाने वाले लोगों के नाम उंगलियों पर गिने जा सकते हैं, जबकि असंख्य लोग कड़ी महनत और प्रतिभा होने के बाद भी सही अवसर न मिले के कारण संघर्ष करते करते गुमनाम हो जाते हैं। अतः संघर्ष शुरू करने से पहले ही एक ‘बैक अप प्लान’ की तैयारी करना बहुत जरूरी है।

17-18 वर्ष की आयु होते होते आमतौर पर विद्यार्थी बारहवीं कक्षा उत्तीर्ण कर लेते हैं।यह समय सही होता है जीवन की दिशा निर्धारत करने के लियें।किसी कला या खेल कूद मे अपना भविष्य दिखे तो पूरी तैयारी के साथ किसी अच्छे संस्थान मे प्रशिक्षण लेना चाहिये ,बिना प्रशिक्षण के सफलता की आशा नहीं की जा सकती, साथ ही ‘बैक अप प्लान’ को भी कुछ समय देना ज़रूरी है।प्रशिक्षण के बाद या कभी साथ साथ ही संघर्ष शुरू करना पड़ता है। संघर्ष के लियें एक निश्चित अवधि पहले से ही तय कर लेनी चाहिये, इसमे कुछ सफलता मिले या मिलने की संभावना दिखे तो संघर्ष जारी रखना चाहिये अन्यथा राह बदल कर अपने ‘बैक अप प्लान’ पर आ जाना चहिेये। हाँ, एक बात और वो ये कि इसे आपकी हार नहीं बुद्धिमानी समझना चहिये।

संगीत, नृत्य और अब अभिनय की प्रतिभा दिखाने के लियें भी विभिन्न आयुवर्ग के प्रतियोगियों के लियें टी. वी के कई चैनल कार्यक्रम करते रहते हैं। इनमे भाग लेने से भी एक पहचान बनती है जो लाभदायक हो सकती है।

ये टी.वी. चैनल छोटे छोटे बच्चों को लेकर भी कार्यक्रम बनाते हैं। हम दर्शक इन नन्हे नन्हे बच्चों की प्रतिभा और तैयारी को देखकर स्तबध रह जाते हैं। इन रियैलिटी शोज़ से दर्शकों को भरपूर मनोरंजन मिलता है, तो चैनल को विज्ञापन मिलते हैं, लाभ होता है, पर इसके लियें इन प्रतिभाशाली बच्चों को 6-8 वर्ष की उम्र मे जिस संघर्ष मे झोंक दिया जाता है, वह क्या उचित है? जीवन संघर्ष से भरा पड़ा है तो इतनी कम आयु मे उन्हे इतनी कड़ी परीक्षा मे डालकर उनके बचपन से खिलवाड़ क्यों? हर माता पिता को अपना बच्चा प्रतिभाशाली लगता है , उसकी उंगली पकड़ कर ओडिशन दिलाने निकल पड़ते हैं। हर केन्द्र पर हज़ारों बच्चों का औडिशन होता है, अधिकाँश बच्चे इसी स्तर से निराश होकर घर लौटते हैं, उनमे असवीकृति को झेलने की परिपक्वता भी नहीं होती, माता पिता के मायूस चेहरे उन्हे और निराश कर देते हैं। कुछ बच्चे आगे बढ़ते हैं जितना ऊपर जाकर अस्वीकार किये जाते हैं उतना ही दुखी होते हैं।पूरी प्रतिस्पर्धा के दौरान कड़ी महनत के साथ आलोचना और तनाव भी झेलना पड़ता है, हर सप्ताह प्रतियोगिता से बाहर होने का ख़तरा सर पर मंडराता रहता है। माता पिता के चेहरों पर भी तनाव की रेखायें स्पष्ट दिखती हैं ।जीतता तो केवल एक ही है। कुछ महीने बाद दर्शकों को अंतिम 5-6 के नाम भी याद नहीं रहते। जीतने वाले को भी अगले सीज़न आने तक भुला दिया जाता है। 3-4 महीने बच्चे स्कूल से, पढ़ाई से भी दूर हो जाते हैं। प्रतिस्पर्धा से बाहर होने के बाद मानसिक तौर पर वापिस स्कूल मे जाकर स्वयं को पढ़ाई मे पुनर्स्थापित करना भी सरल नहीं होता।अभी उन्हे पढ़ाई तो करनी ही होती है, प्रतिोगिता के बाद काफी समय तक रियाज़ की कमी भी हो जाती है, इसी कारण अक्सर बच्चों की प्रतियोगिता में अंतिम 5 -6 तक पंहुचे हुए बच्चे भी बड़े होकर पहले औडिशन मे ही अस्वीकृत हो जाते हैं। एक और बात है कि नृत्य और अभिनय की प्रतियोगिाओं मे कभी कभी बच्चों से ऐसे लटके झटके करवाये जाते हैं जो बच्चों पर बिलकुल नहीं जंचते। बच्चों को बच्चा ही रहने देना चाहिये , बड़ा करने की इतनी भी क्या जल्दी कि उनकी मासूमियत ही छीन ली जाय।

मेरे विचार से ये प्रतियोगितायें एक प्रकार की बाल मज़दूरी ही हैं, जिनपर प्रतिबंध लगना ज़रूरी है।

 

4 COMMENTS

  1. बीनू ji aapne बहुत ही शानदार लेख लिखा है. इसमें बेहद जानदार तर्क डाई गये हैं.

  2. आदरणीया बीनू जी:

    आपने कहा..”इसके लियें इन प्रतिभाशाली बच्चों को 6-8 वर्ष की उम्र मे जिस संघर्ष मे झोंक दिया जाता है, वह क्या उचित है? जीवन संघर्ष से भरा पड़ा है तो इतनी कम आयु मे उन्हे इतनी कड़ी परीक्षा मे डालकर उनके बचपन से खिलवाड़ क्यों? ”

    बीनू जी आपने बहुत ही उचित और ज़ोरदार प्रश्न उठाए हैं।
    आशा है टी-वी वाले इ्न्हें पढ़ेंगे और ध्यान देंगे।

    विजय निकोर

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