भारत की खाप पंचायतों के तालिबानी फरमान

राकेश कुमार आर्य

भारत में प्रचलित खाप पंचायतों के विरुद्ध शिक्षित वर्ग और देश के न्यायालयों की कड़ी आपत्ति समय-समय पर आती रही है। इसके उपरांत भी खाप पंचायतों के अन्यायपूर्ण और निर्दयता से भरे निर्णय को हम बार-बार सुनते रहते हैं। ऐसे में खाप पंचायतों की स्थिति के बारे में हमें गंभीरता से चिंतन करने की आवश्यकता है कि अंतत: इनका यह कार्य कितना नैतिक है, और कितना अनैतिक है, या कितना संवैधानिक या असंवैधानिक है? साथ ही यह भी कि क्या भारत की खाप पंचायतें तालिबानी पंचायतें हैं या उनका भारत की वर्तमान न्याय प्रणाली में कोई सम्मानजनक स्थान आज भी हो सकता है?

Read This – देश की संसद और हमारे माननीय
भारत प्राचीन काल से ही सामाजिक समरस्ता को अपनी शासन प्रणाली का मुख्य उद्देश्य मानकर चलने वाला देश रहा है। यह देश ही है जिसने वर्ण व्यवस्था के आधार पर व्यक्ति की प्रतिभा को चार भागों में विभाजित करके देखा और जिसकी जैसी प्रतिभा या योग्यता रही उसे वैसा ही काम देने का वैज्ञानिक सूत्र खोजकर समाज में वास्तविक समाजवाद की स्थापना की। संसार के अन्य देशों ने भारत की जूठन को खाया और फिर भी वह आज तक भारतीय शासन प्रणाली की इस न्याय व्यवस्था या सामाजिक समरसता स्थापित करने की उसकी अनोखी खोज की काट नहीं कर पाया।
भारत की न्याय प्रणाली में स्थानीय स्वशासन को मजबूती दी गई। इसके लिए शासन की ओर से ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायतों को मजबूती देने का सफल और सार्थक प्रयास किया गया। इस ग्राम पंचायत में स्वयंसेवी, न्यायप्रेमी और पक्षपात शून्य लोगों को स्थान दिया जाता था, जो न्याय करते समय ‘पंच परमेश्वर’ हो जाते थे। जैसे परमेश्वर किसी भी प्राणी को उसके कर्मो का फल देते समय कोई पक्षपात नहीं करता, अपितु ‘जैसा कर्म वैसा ही फल’ देने का सदा न्यायसंगत प्रयास करता है- वैसा ही कार्य हमारे पंच परमेश्वर करते थे। इससे हमारी न्यायप्रणाली सर्व सुलभ रहती थी। इसके लिए आजकल की तरह पूरा का पूरा एक भ्रष्ट सरकारी विभाग रखने की हमें आवश्यकता नहीं होती थी। स्थानीय लोगों को पंच के रूप में दो वादकारियों के झगड़े की पूरी जानकारी होती थी। इतना ही नहीं उन्हें यह भी पता होता था या सहज रुप में पता चल जाता था कि प्रकरण में दोषी वादी है या प्रतिवादी है? तब वे प्रकरण में निष्पक्ष निर्णय दिया करते थे। उनके निर्णय पूणर्त: न्याय संगत होते थे और उस न्याय में वे पारिस्थितिकीय साक्ष्य का भी पूरा ध्यान रखते थे। साथ ही वादी प्रतिवादी की अपनी मूल प्रकृति से भी वह परिचित होते थे कि इनमें से कौन सा व्यक्ति अपराधी या बेईमानी वाली प्रकृति का है? तब उनसे न्याय करने की पूरी आशा रहती थी।

उधर तालिबानी फरमान या कबायली अदालतों की भी एक व्यवस्था है। जिनके पीछे कोई शास्ति नहीं होती, अर्थात उनकी स्थापना में शासन प्रणाली का कोई सहयोग नहीं होता। इसके विपरीत यह अपनी मुठमर्दी से अपनी सर्वोच्चता को स्थापित करने के लिए स्थापित कर ली जाती हैं। तालिबानी या कबायली सोच की पंचायतों में एक वर्ग विशेष या जाति या संप्रदाय विशेष के हितों को ध्यान में रखकर निर्णय किया जाता है, जिसमें अन्याय की पूरी-पूरी संभावना होती है। क्योंकि इस प्रकार की पंचायतें प्रारंभ से ही क्रूरता व निर्दयता के आधार पर स्थापित की जाती हैं। इनका उद्देश्य एक वर्ग के हितों का पक्षपोषण और दूसरे वर्ग के हितों का शोषण करना होता है। अत: इन्हें न्याय संगत नहीं माना जा सकता।

हमारी न्याय पंचायतों को सुचारु रुप से कार्य न करने देने की परिस्थितियां अंग्रेजों ने बनाईं। वे नहीं चाहते थे कि भारत की शिक्षाप्रणाली और न्यायप्रणाली पर भारतीयों का अधिकार हो। इसलिए उन्होंने भारत की सुदृढ़ न्यायव्यवस्था को समाप्त करने के लिए अपने न्यायालयों की स्थापना की और उन्हीं के आदेशों को उन्होंने वैधानिक मानने का प्रचार करना आरंभ किया। इसके उपरांत भी भारत के लोगों ने अंग्रेजी न्यायालयों का और अंग्रेजी शिक्षाप्रणाली का बहिष्कार करने की नीति का अवलंबन किया। यही कारण था कि 1835 में लार्ड मैकाले की शिक्षा प्रणाली लागू होने के सौ वर्ष पश्चात 1931 की जनगणना में भी भारत में मात्र 3 लाख लोग ही अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त थे। शेष लोग अपनी गुरुकुल शिक्षा प्रणाली से शिक्षित हो रहे थे। यह स्थिति भारत के लोगों की राष्ट्रवादिता की भावना को प्रकट करती है कि उन्हें अपनी शिक्षाप्रणाली और अपनी न्यायप्रणाली से कितना लगाव था, और उस पर कितना भरोसा था कि उन्हें अपनाकर ही सच्चा न्याय मिल सकता है और व्यक्ति वास्तव में एक मानव बन सकता है।

अंग्रेजी न्यायालयों के बहिष्कार के कारण लोगों को उनमें जाने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। इसलिए जिला मुख्यालयों पर अवस्थित अंग्रेजों के न्यायालयों को भारत के लोग जानते ही नहीं थे। उन्हें वे न्याय का गला घोटने वाला और देशभक्तों को फांसी देने वाला मानते थे। उनमें भारतवासियों की कोई निष्ठा नहीं थी, तब भारत में न्याय करने वाली यही खाप पंचायतें थीं, जिनसे लोग प्रसन्न रहते थे और यह खाप पंचायतें पूरी ईमानदारी से अपने निर्णय देकर अपने लोगों को अंग्रेजी न्याय प्रणाली के शोषण से बचाती थीं। 20-30 वर्ष पूर्व तक भी जमीन जायदाद के ऐसे मामले वकीलों के पास आते रहते थे जो अंग्रेजी काल में संयुक्त परिवार की संपत्ति के मामले होते थे, उनका विभाजन मौका पर तो न्यायसंगत रूप से हो चुका होता था, पर सरकारी अभिलेखों में इसलिए संयुक्त संपत्ति के साथ में दर्ज थीं कि सरकारी अभिलेखों में उन्हें विभाजित करने का अधिकार खाप पंचायतों को नहीं था। जब वर्तमान न्यायप्रणाली की शरण में लोगों ने आना आरंभ किया तो उन्हें जो न्याय एक सप्ताह या दस दिन में मिल जाना चाहिए था वह उन्हें दो-दो, तीन-तीन दशक लडऩे पर भी नहीं मिला। फिर इस न्याय प्रणाली को कैसे अच्छा कहा जाए? आज भी लोग खाप पंचायतों से अपने बहुत से निर्णय बिना पैसा खर्च करे ले लेते हैं, भारत के निष्पक्ष पंच आज भी भारत की न्याय प्रणाली की बहुत सहायता कर रहे हैं जो बड़े-बड़े मुकदमों का निस्तारण न्याय संगत ढंग से करा देते हैं और उनका श्रेय लेने के लिए कभी ‘पद्मश्री’ पाने की मांग नहीं करते। जो लोग पद्मश्री पाने के लिए कुछ संगठन बनाकर इस दिशा में कार्य कर रहे हैं, वे सरकार को केवल चूना लगा रहे हैं। वास्तव में उनका कार्य नगण्य ही है, यदि आज भी भारत की इन खाप पंचायतों या ग्राम पंचायतों को पूर्णत: समाप्त कर दिया जाए तो भारत के न्यायालयों की गाड़ी पंचर हो जाएगी, क्योंकि यह न्यायालय पूर्व से ही कार्याधिक्यता से परेशान हैं और यदि ये पंचायतें समाप्त कर दी गईं तो निश्चय ही बहुत बड़ी संख्या में मुकदमें न्यायालयों में आ जाएंगे।

हमारा मानना है कि भारत के गांवों में पंचों को पुन: उनका ‘पंच परमेश्वर’ का स्वरूप याद दिलाया जाए और इस स्वयंसेवी न्यायप्रणाली को सही ढंग से पुनर्जीवित किया जाए। हम मानते हैं कि इसमें देशकाल परिस्थिति के अनुसार कुछ दोष आ गए हैं, परंतु ध्यान रहे कि दोष तो प्रचलित न्यायप्रणाली में भी है। जिसके द्वारा मिलने वाला न्याय इतना महंगा हो गया है कि उसे खरीदना हर किसी के वश की बात नहीं है। न्याय देरी से भी मिलता है और महंगा भी मिलता है- यह दोनों अवगुण भी न्याय को अन्याय में बदल रहे हैं और लोग मजबूरी में खाप पंचायतों की ओर जा रहे हैं। वर्तमान प्रणाली के चलते गरीबों की संपत्ति पर मुठमर्द लोग कब्जा कर रहे हैं और उनका खुलेआम शोषण हो रहा है। कहने का अभिप्राय है कि यदि वर्तमान न्याय प्रणाली सुधारों की दरकार रखती है तो भारत की हजारों लाखों वर्ष पुरानी पंचायत न्याय प्रणाली भी सुधारों की दरकार रखती होगी। यह क्यों नहीं माना जाता?

कुल मिलाकर भारत की खाप पंचायतों को उनके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखने की आवश्यकता है। जो पढ़े लिखे लोग शोर मचा रहे हैं कि ये खाप पंचायतें बेकार है, अनर्थक हैं, उन्हें पता होना चाहिए कि उनके बारे में ही भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि भारत में पढ़े लिखे लोग ही अधिक अपराधी, काइयां, चालाक और बेईमान होते हैं- अनपढ़ लोग नहीं। तब अनपढ़ों की न्याय प्रणाली में भी कुछ तो गुण होंगे ही? आवश्यकता उन्हीं गुणों को समझने व परखने की है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here