तमाचे को तूल अब तो जाइए भूल

वे चिंतन में थे कि गाल तन का ही बेहद मुलायम हिस्सा है, नेताई गाल पर पड़ा तमाचा अब बना सुर्खियों का हिस्सा है। जो चाहे कड़ाके की सर्दी हो,भीषण गर्मी – प्रत्ये क मौसम का रियल अहसास तन को कराने वाला संवेदनशील सेंसर है। एक सरदार ने असरदार बनने के लिए उनके गाल का सेंसर अपने कनटाप से सक्रिय कर दिया। तमाचे का नेता के गाल पर आम आदमी का इस्तेसमाल वैध है या अवैध, इस पर सरकार ने जांच कमेटी की घोषणा कर दी है। जिससे यह सच्चाई खुलने की प्रबल संभावना बन गई है कि जो सामने है, वह सच्चाई है या जो सामने नहीं आई है, वह सच्चाई है। सच्चाई को सामने न आने देने के लिए कौन जिम्मेईदार है, क्या, इन्हीं की मिलीभगत से झूठ सदा सबके सामने अपनी ढीठता का प्रदर्शन करता रहा है। इसकी परिणति इस प्रकार चांटों के तौर पर गूंजना क्या देशहित में जरूरी है। वैसे यह निश्चित है कि अगर नेताओं ने इस मामले को भरपूर तूल दिया तो सरकार की ओर से इस पर एकमुश्त मुआवजा राशि की घोषणा की जा सकती है लेकिन मुआवजे की घोषणा के बाद इस प्रकार की दुर्घटनाओं की बाढ़ आ जाएगी और खाने और खिलाने वाले दोनों इसे कैरियर के तौर पर स्वीकार लेंगे। चढ़ती हुई महंगाई और तेजी के साथ बढ़ने लगेगी। खिलाने वाले सम्मान के रूप में पुरस्कांर और और खाने वाले को मुआवजे के रूप में जो राशि मिलेगी, उससे निश्चित ही महंगाई का ग्राफ ऊपर की ओर ही बढ़ेगा।

थप्पगड़ बचपन में बच्चों के गाल पर सिर्फ माता-पिता या जिम्मेढदार अभिभावक ही नहीं मारते हैं बल्कि थप्पड़ कला के द्रुत विकास में अध्यापकों का भी महत्वमपूर्ण योगदान है। जब यह तमाचे के रूप में छात्र के गाल पर छप जाता है तो उसकी प्रतिक्रिया छात्र के पढ़ने में बदल जाती है। यह थप्पड़ की सकारात्मकता है फिर भी इस लगाई गई रोक इस कलाकारी के विकास में बाधक बन गई है। सरकार भी इसे नाजायज ठहरा चुकी है। जिसका नतीजा ऐसे युवाओं के रूप में सामने आ रहा है जिनके हौंसले परवान पर हैं और वे हिंसक, क्रूर और उच्श्रृंखल हो रहे हैं। बचपन में पड़ने वाला थप्पड़ पढ़ने के लिए तो प्रेरित करता ही था, उससे अध्यापक के हाथ और छात्र के गाल का भी जरूरी कसरत हो जाती थी और मांसपेशियों में रक्त का प्रवाह सुनिश्चित रहता था। फलस्वकरूप, गाल पर लालिमा रहती थी, इस चमक का प्रभाव गाल के जरिए मानस पर दिखाई देता था। तमाचे रूपी इस कसरत की बहाली के लिए प्रयास किए जाने जरूरी हैं।

एक रपट ने कितनी ही उम्मीदों के पट ओपन कर दिए हैं। कितने ही व्येवसायों में भरपूर तेजी की उम्मी दिखाई दी हैं। मेरी सलाह है कि नेता देश चलाते समय हेलमेट धारण करके रखें, जिससे ऐसी दुर्घटनाएं होने पर उनके गोल गोल गाल सलामत रह सकें। गालों की सलामती के लिए हेलमेट की उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए सरकार यह भी विचार करने को बाध्य हुई है कि नेताओं के हेलमेट धारण न करने पर जुर्माना और धारण करने पर राजस्वा की प्राप्ति हो। इसके लिए तुरंत ही आवश्यरक अध्यादेश देश में लागू करने पर संसद में प्रस्तारव पारित कराया जाएगा। सरकार ने यह भी साफ किया गया है कि इस मामले में जनलोकपाल बिल की तरह टालमटोल नहीं की जाएगी और न ही चालू रवैया अपनाया जाएगा।

थप्पड़ संस्कृति के विकास के हर संभव उपाय अपनाए जाने चाहिए। विभिन्नि वर्गों में इसकी उपयोगिता के मद्देनजर अखिल भारतीय अथवा वैश्विक प्रतिस्प र्द्धाओं का आयोजन किया जा सकता है। थप्पदड़ खाने से क्या पेट भरने का अहसास होता है और तो और क्या यह इतना जायकेदार होता है कि इसे खाने के प्रति नेताओं में भगदड़ मच जाए क्योंतकि इस संदर्भ में दिया जाने वाला मुआवजा दो चार करोड़ से कम का तो होगा नहीं, इस राशि को देखकर ही मुंह की लार बेकाबू हो सकती है।

तमाचा संस्कृति के सकारात्मक पहलुओं पर विचार किया जा रहा है। थप्पड़ कला रूपी संस्कृति के विकास के लिए योजनाएं बनाने में तेजी आने की उम्मीद जतलाई गई है। किसी भी दल ने इसे लोकतंत्र के लिए काला दाग नहीं बतलाया है और थप्पड़ से चिंतन-मनन की प्रक्रिया में तेजी आई है। इससे इन पंचलाईनों का भविष्य् ‘ गाल पर दाग अच्छे हैं, दाग बोले तो पंजे का निशान – लोकतंत्र का लोक नेता पर हो रहा है मेहरबान।‘ वैसे एक बात जरूर बतलाइयेगा कि क्या आप चांटा खाने वालों में शुमार होना चाहते हैं ?

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अविनाश वाचस्‍पति
14 दिसंबर 1958 को जन्‍म। शिक्षा- दिल्ली विश्वविद्यालय से कला स्नातक। भारतीय जन संचार संस्थान से 'संचार परिचय', तथा हिंदी पत्रकारिता पाठ्यक्रम। सभी साहित्यिक विधाओं में लेखन, परंतु व्यंग्य, कविता एवं फ़िल्म पत्रकारिता प्रमुख उपलब्धियाँ सैंकड़ों पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। जिनमें नई दिल्ली से प्रकाशित दैनिक नवभारत टाइम्स, हिंदुस्तान, राष्ट्रीय सहारा, जनसत्ता अनेक चर्चित काव्य संकलनों में कविताएँ संकलित। हरियाणवी फ़ीचर फ़िल्मों 'गुलाबो', 'छोटी साली' और 'ज़र, जोरू और ज़मीन' में प्रचार और जन-संपर्क तथा नेत्रदान पर बनी हिंदी टेली फ़िल्म 'ज्योति संकल्प' में सहायक निर्देशक। राष्ट्रभाषा नव-साहित्यकार परिषद और हरियाणवी फ़िल्म विकास परिषद के संस्थापकों में से एक। सामयिक साहित्यकार संगठन, दिल्ली तथा साहित्य कला भारती, दिल्ली में उपाध्यक्ष। केंद्रीय सचिवालय हिंदी परिषद के शाखा मंत्री रहे, वर्तमान में आजीवन सदस्य। 'साहित्यालंकार' , 'साहित्य दीप' उपाधियों और राष्ट्रीय हिंदी सेवी सहस्त्राब्दी सम्मान' से सम्मानित। काव्य संकलन 'तेताला' तथा 'नवें दशक के प्रगतिशील कवि कविता संकलन का संपादन। 'हिंदी हीरक' व 'झकाझक देहलवी' उपनामों से भी लिखते-छपते रहे हैं। संप्रति- फ़िल्म समारोह निदेशालय, सूचना और प्रसारण मंत्रालय, नई दिल्ली से संबद्ध।

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