तरुण गोगोई बताएं कि ये अस्थायी दंगे क्या होते है ??

प्रवीण गुगनानी,

क्यों सो रहा है तथाकथित बुद्धिजीवी मीडिया और प्रगतिशील अगड़ा समाज ??

असम में चल रहे दंगो की भयावहता पूरे देश के सामने आ चुकी है और असम प्रदेश सरकार और केन्द्र की सप्रंग सरकार की इन दंगो को रोकने और पीडितों के प्रति पूर्वाग्रही और असंवेदनशील आचरण भी अपने नग्नतम रूप में देश के सामने आ चुका है. गुजरात के दंगो को पानी पानी पी पी कर याद करने वाले कांग्रेसी और तथा कथित प्रगतिशील, बुद्धिजीवी, धर्मनिरपेक्ष, व्यापक दृष्टिकोण वाले लोग अब कहाँ है? वे आये और देखे !! असम की धरती को वे क्यों असम (असमान) दृष्टि से देखना चाहते है ? देश को इन प्रगतिशील अगड़े समाज से जवाब चाहिए की यदि गुजरात के दंगे प्रायोजित थे तो असम के दंगे क्या है ? क्या असम में दंगो के बीज कांग्रेसी नीतियों की दें नहीं है ? असम के दंगो में वे बांग्लादेशी घुसपेठियों की स्पष्ट छाप को देखकर भी आज देश का यह वर्ग चुप क्यों है? असम और पूरे देश में बांग्लादेशी घुसपेठियों को अनावश्यक, अवैध, आपराधिक ढंग से सरंक्षण कौन दे रहा है? कौन वोटों के लिए तुष्टिकरण की नीति अपनाते हुए आज असम में ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण राष्ट्र में इन परजीवियों को खून चूसने का खुला आमंत्रण दे रहा है?? असम के दंगो के पहले भी ये प्रश्न जीवित थे और समय समय पर इन प्रश्नों से हमारा वातावरण गूंजता ही नहीं बल्कि संत्रास्मान होता रहा है; किन्तु अब तो देश को इस विषय पर ठहरना चाहिए और बांग्लादेशी घुसपेठियों की समस्या पर एक राष्ट्रीय नीति बनाने के बाद ही आगे बढ़ना चाहिए.

यह स्पष्ट और सर्वविदित तथ्य रहा है कि असम गण परिषद के राजनैतिक वर्चस्व को समाप्त करने के लिए कांग्रेस ने असम में बांग्लादेशी घुसपेठियों की बस्तियां बसाने का खतरनाक, आत्मघाती, देशद्रोही और घिनौना खेल प्रारम्भ किया. इन स्थानीय नेताओं के दम पर ही ये परजीवी असम के स्थानीय परिवारों में कुछ समय के लिए रहकर राशनकार्ड में अपना नाम जुड़वा लेते है और फिर अलग होकर नया राशनकार्ड हासिल कर लेते है. बी बी सी की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में तीन करोड़ बांग्लादेशी अवैध रूप से रह रहे है . आईबी की ख़ुफ़िया रिपोर्ट के मुताबिक़ अभी भारत में करीब डेढ़ करोड़ से अधिक बांग्लादेशी अवैध रूप से रह रहे हैं जिसमें से ८० लाख पश्चिम बंगाल में और ५० लाख के लगभग असम में मौजूद हैं. वहीं बिहार के किशनगंज, कटिहार और पूर्णिया जिलों में और झारखण्ड के साहेबगंज जिले में भी लगभग ४.५ लाख बांग्लादेशी रह रहे हैं.राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में १३ लाख बांग्लादेशी हैं वहीं ३.७५ लाख बांग्लादेशी त्रिपुरा हैं. नागालैंड और मिजोरम भी बांग्लादेशी घुसपैठियों के लिए शरणस्थली बने हुए हैं. १९९१ में नागालैंड में अवैध घुसपैठियों की संख्या जहाँ २० हज़ार थी वहीं अब यह बढ़कर ८० हज़ार से अधिक हो गई है. असम के २७ जिलों में से ८ में बांग्लादेशी मुसलमान बहुसंख्यक बन चुके हैं. १९०१ से २००१ के बीच असम में मुसलामानों का अनुपात १५.०३ प्रतिशत से बढ़कर ३०.९२ प्रतिशत हो गया है.जाहिर है इन अवैध मुस्लिम बांग्लादेशी घुसपैठियों की वजह से असम सहित अन्य राज्यों का राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक ढांचा प्रभावित हो रहा है. ये अवैध मुस्लिम बांग्लादेशी घुसपैठिये भारत का राशन कार्ड बनवाकर उपयोग कर रहे हैं, चुनावों में वोट देने के अधिकार का उपयोग कर रहे हैं, सरकारी सुविधाओं का जी भर कर उपभोग कर रहे हैं और देश की राजनीतिक व्यवस्था में आये नैतिक पतन का जमकर लाभ उठा रहे हैं. यह स्वार्थी और वोटपंथी राजनीति का ज्वलंत किन्तु शर्मनाक उदाहरण है.

हाल के घटना क्रम में हिंसा १९ जुलाई, २०१२ को ऑल बोडो लैंड माइनोरिटी स्टूडेंट्स यूनियन नामक मुस्लिम छात्र संगठन के अध्यक्ष मोहिबुल इस्लाम और उसके साथी अब्दुल सिद्दीक शेख पर मोटर साइकिल पर सवार दो अनजान युवाओं द्वारा गोली चलाने के बाद भड़की. कुछ समय से वहां दो मुस्लिम छात्र संगठनों में आपसी प्रतिस्पर्द्धा के कारण तनाव चल रहा था और गोलीबारी भी केवल घायल करने के उद्देश्य से घुटने के नीचे की गयी लेकिन स्थानीय बांग्लादेशी मुस्लिम गुटों ने इसका आरोप बोडो हिंदुओं पर लगाकर शाम को घर लौट रहे चार बोडो नौजवानों को पकड़कर उन्हें वहशियाना ढंग से तड़पा-तड़पाकर इस प्रकार मारा कि उनकी टुकड़ा-टुकड़ा देह पहचान में भी बहुत मुश्किल से आयी। इसके साथ ही ओन्ताईबाड़ी, गोसाईंगांव नामक इलाके में बोडो जनजातीय समाज के अत्यंत प्राचीन और प्रतिष्ठित ब्रह्मा मंदिर को जला कर सामाजिक समरसता और शांति भंग करने का साशय प्रयास किया गया; इसकी बोडो समाज में स्वाभाविक प्रतिक्रिया हुई. आश्चर्य की बात यह है कि प्रदेश सरकार और पुलिस को घटना की पूरी जानकारी होने के बावजूद न सुरक्षा बल भेजे गए और न ही कोई कार्यवाही की गयी. आश्चर्जनक रूप से इस घटनाक्रम में ऐसा लगा जैसे बोडो इस देश के नागरिक ही न हो!! यद्दपि बोडो स्वायतशासी क्षेत्र के चार जिलों धुबरी, बोंगाईगांव, उदालगुड़ी और कोकराझार में बोडो बड़ी संख्या में हैं तथापि उनसे सटे धुबरी जिले की अधिकांश जनसंख्या बांग्लादेशी मुस्लिमों की है. वहां कोकराझार की प्रतिक्रिया में हिंदू छात्रों के एक होस्टल को जला दिया गया और २४ जुलाई को इनकी एक भीड़ ने राजधानी एक्सप्रेस पर हमला कर दिया. बांग्लादेशी मुस्लिमों की हिंसा ४०० गांवों तक फैल चुकी है और भारत के देशभक्त और मूल नागरिक अपने ही देश में विदेशी घुसपैठियों के हमलों से डर कर शरणार्थी बनने पर मजबूर हो गए हैं. असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई इन दंगो को अस्थायी दंगे या हिंसा बता रहे है. देश के बुद्धिजीवी दंगो के सम्बन्ध में इस नए शब्द या टर्म का अर्थ बताए तो कृपा होगी कि यह अस्थायी हिंसा क्या होती है? यदि बुद्धिजीवी और प्रगतिशील लोग इस अनोखे किन्तु घृणित, भावनाशून्य, पैशाचिक शब्द का अर्थ न खोज सके तो इसका उच्चारण करने वाले व्यक्ति से पूछे!! यह आज के दौर का यक्ष प्रश्न है!! यदि इसका जवाब इस पीढ़ी को नहीं मिला तो आने वाली हमारी पीढियां संभवतः हम पर ही हास्य, कटाक्ष और तानों की भाषा का उपयोग करने को बाध्य होगी.

असम में ४२ से अधिक विधानसभा क्षेत्र ऐसे हो गए हैं जहां बांग्लादेशी घुसपैठिये राजनैतिक रूप से निर्णायक हो गए है. लूट, हत्या, बोडो लड़कियां भगाकर जबरन धर्मांतरण और बोडो जनजातियों की जमीन पर अतिक्रमण करना इनका रोजमर्रा का काम हो गया है जिसके कारण सम्पूर्ण असम का सामाजिक ताना बाना ध्वस्त होने के कगार पर आ रहा है. ब्रह्मपुत्र नदी के उत्तरी किनारे पर बोडो क्षेत्र है, जहां १९७५ के आंदोलन के बाद बोडो स्वायत्तशासी परिषद् की स्थापना हुई, जिससे कोकराझार, बक्सा, चिरांग और उदालगुड़ी प्रभावित रहे है. बोडो बंधू लगातार बांग्लादेशी घुसपैठियों के हमलों का शिकार होते आए हैं. दो साल पहले हावरिया पेट नामक गांव में स्थापित मदरसे के लिए वहां के बांग्लादेशी घुसपेठियों ने काली मंदिर परिसर में शौचालय बनाने की कोशिश की थी, जिसका जब स्थानीय लोगों ने विरोध किया तो दो बांग्लादेशी हिंदू युवाओं की हत्या कर डी गई थी. एक अन्य घटना में इसी क्षेत्र में जब एक घुसपैठिये मुस्लिम युवक ने बोडो घर में घुसकर युवती से बलात्कार की कोशिश की और पकड़ा गया तो गांववालों ने उसकी पिटाई की. कुछ देर में उसके गांव के मुस्लिम भी आ गए, जिन्होंने भी उस बांग्लादेशी युवक को पीटा फलतः उसकी मृत्यु हो गयी थी.

इस प्रकार की धर्म आधारित हिंसा को क्षेत्र के विद्रोही आतंकवादी संगठन मुस्लिम यूनाईटेड लिबरेशन टाईगर्स ऑफ असम (मुलटा) से समर्थन मिलता है और मुस्लिमों की भावनाएं भड़काने में ऑल माईनोरिटी स्टूडेंट्स यूनियन (आमसू) का भी हाथ रहता है. उल्लेखनीय है कि आमसू प्रदेश सरकार से समय समय पर प्रत्यक्ष रूप से पोषित और कृतार्थ होती रही है. शासन के इस तुष्टिकरण वाले आचरण के कारण भी इस क्षेत्र में बांग्लादेशी मुस्लिमों और हिंदु समय समय आमने सामने की मुद्रा में आते रहे है. प्रश्न यह है कि प्रदेश सरकार ने तब के अनेकों मौको पर इस आसन्न संकट को जो कि प्रत्यक्षतः दिख रहा था; क्यों नहीं पहचाना!! यह सरकारी तंत्र की विफलता नहीं तो और क्या है!!! यह मानने के पर्याप्त कारण है कि वोटो के सेट अप को व्यवस्थित करने के लिए ये स्थानीय नेताओं की सुनियोजित चाल थी जिसे उनके सत्ता में बैठे आकाओं का -जो आज इन दंगो को अस्थायी दंगे बता रहे है- का इस घृणित चाल को समर्थन प्राप्त था.

सरकार भी बोडो जनजातियों की समस्याओं पर तब तक ध्यान नहीं देती जब तक कोई भयंकर आगजनी या दंगा न हो. बोडोलैण्ड स्वायत्तशासी परिषद् को ३०० करोड़ रुपये की बजट सहायता मिलती है जबकि समझौते के अनुसार आबादी के अनुपात से उन्हें १५०० करोड़ रुपये की सहायता मिलनी चाहिए. केंद्रीय सहायता के लिए भी बोडो स्वायत्तशासी परिषद को प्रदेश सरकार के माध्यम से केंद्र सरकार को आवेदन भेजना पड़ता है जिसे प्रदेश सरकार जानबूझकर विलंब से भेजती है और केंद्र में सुनवाई नहीं होती. इसके अलावा बोडो जनजातियों को असम के ही दो इलाकों में मान्यता नहीं दी गयी है. कारबीआंगलोंग तथा नार्थ कछार हिल में बोडो को जनजातीय नहीं माना जाता और न ही असम के मैदानी क्षेत्रों में. जबकि बोडो जनजातियों के लिए असम में स्वायत्त परिषद् बनी और बाकी देश में बोडो अनुसूचित जनजाति की सूची में है. १० फरवरी, २००३ को एक बड़े आंदोलन के बाद असम और केंद्र सरकार ने माना था कि यह विसंगति दूर की जाएगी लेकिन इस बीच अन्य जनजातियों जैसे- हाजोंग, गारो, दिमासा, लालुंग आदि को असम के सभी क्षेत्रों में समान रूप से अनुसूचित जनजाति की सूची में डाल दिया गया सिवाय बोडो लोगों के.

केंद्र की सप्रंग सरकार और प्रदेश सरकार की वोटपंथी राजनीति के कारण व विदेशी घुसपैठियों को शरण देकर सत्ता में आने की लालसा के कारण देश का भविष्य इन विदेशियों के कारण रक्तरंजित होता दिखता है. आज बांग्लादेशी घुसपैठिये जो उपद्रव असम में स्वदेशी और देशभक्त जनता के विरुद्ध कर रहे हैं, वहीं उपद्रव जड़ जमाने के बाद दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता में बैठे बड़ी संख्या में बांग्लादेशी घुसपैठिये कर सकते हैं. आज आवश्यकता इस बात की है सम्पूर्ण भारतीय राजनीति इस विषय पर एक हो और दलगत मतभेदों से ऊपर उठकर घुसपेठियों के सम्बन्ध में एक राष्ट्रीय नीति बनाकर इन अवैध नागरिकों को देश से निकाल बाहर करे साथ ही साथ इनका देश में प्रवेश बंद हो इसके लिए भी सख्त कानून बनाकर अपनी भोगौलिक सीमाओं को सील करें. महामहिम राष्ट्रपति को भी चाहिए की वे असम में न केवल अक्षम सरकार को भंग कर राष्ट्रपति शासन लगाये बल्कि घुसपेठियों के नाम पर चल रही स्वार्थी राजनीति को भी विराम का सख्त और स्पष्ट संकेत करें.

1 COMMENT

  1. पुरानी कहावत है “बोये पेड़ बबूल का, तो आम कहाँ से आये”.तरुण गोगोई क्या बताएँगे. उन्होंने तो वाही किया है जो कांग्रेस की संस्कृति है.आखिर पिछले सत्तर साल से कांग्रेस ने आसाम में बंगलादेश से घुसपेठ को बढ़ावा दिया है ताकि मुस्लिम वोट बेंक को अपने साथ जोड़े रखा जाये. लेकिन आज स्थिति केवल वोट बेंक तक सीमित नहीं रह गयी है बल्कि आज मुस्लिम समाज पूरी सत्ता अपने हाथ में लेना चाहता है ताकि इस दारुल हरब को दारुल इस्लाम बनाने का हजार साल पुराना मंसूबा पूरा हो सके. बंगलादेश के जहाँगीरनगर विश्वविद्यालय में मुगलस्तान रिसर्च इंस्टीट्युट में आई एस आई और डी आई एस ऍफ़ के सहयोग से मुगलस्तान की योजना बनायीं गयी है जिसके अनुसार पाकिस्तान से उत्तर भारत के मुस्लिम प्रभावी क्षेत्रों को जोड़कर आसाम को मिलाकर मुगलस्तान बनाया जायेगा.हमारे हुक्मरान कब जागेंगे. लोगों को भी जागरूक होना होगा.

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