तस्मै श्री गुरवे नम:

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अरविंद जयतिलक

अपने ज्ञान-विज्ञान, दर्शन और चिंतन से भारतीय समाज और राष्ट्र के जीवन में नवीन प्राणों का संचार करने वाले गुरुजनों के आज सम्मान का दिन है। राष्ट्र-समाज में उनकी गुरुत्तर भूमिका और सारगर्भित निर्वहन के कारण ही उनकी तुलना ब्रह्मा, विष्णु व महेश से की गयी है। शास्त्रों में कहा गया है कि ‘ऊं अज्ञान तिमिररान्धस्य ज्ञानाञजनशलाकया, चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः’। अर्थात् ‘मैं घोर अंधकार में उत्पन हुआ था और मेरे गुरु ने अपने ज्ञान रुपी प्रकाश से मेरी आंखे खोल दी और मैं उन्हें प्रणाम करता हूं।’ महान संत तुलसीदास जी ने श्रीरामचरित मानस में गुरु की वंदना करते हुए कहा है कि ‘बंदऊ गुरु पद पदुम परागा, सुरुचि सुबास सरस अनुरागा’। अर्थात् ‘मैं गुरु महाराज के चरणकमलों की रज की वंदना करता हूं जो सुरुचि, सुगन्ध तथा अनुरागरुपी रस से पूर्ण है।’ वैदिककालीन महान विदुषियां लोपामुद्रा, घोषा, सिकता, अपाला, गार्गी और मैत्रेयी की रचित ऋचाओं में भी गुरुओं के प्रति सम्मान है। उपनिषद्ों और स्मृति ग्रंथों में गुरु की महिमा का बखान किया गया है। ईश्वर की सत्ता में विश्वास न रखने वाले जैन व बौद्ध धर्मग्रंथ भी गुरुओं के प्रति श्रद्धावान हैं। वशिष्ठ, याज्ञवल्क्य, पतंजलि और अगस्तय से लेकर तक्षशिला के महान शिक्षक चाणक्य तक गुरुओं की ऐसी आदर्श परंपरा रही है जिन्होंने अपनी ज्ञान उर्जा से राष्ट्र व समाज की अंतश्चेतना को जाग्रत किया। उसी परंपरा के महान संवाहक डा0 सर्वपल्ली राधाकृष्णन भी हैं, जिनके जन्मदिवस को शिक्षक दिवस के रुप में मनाया जाता है। 1962 में जब वे भारतीय गणतंत्र के दूसरे राष्ट्रपति बने तो उनके विद्यार्थियों ने उनका जन्मोत्सव मनाने का विचार किया। लेकिन उन्होंने इस अनुरोध को अस्वीकार कर सुझाव दिया कि अगर वे उनके जन्मोत्सव को शिक्षक दिवस के रुप में मनाएं तो ज्यादा खुशी होगी। तभी से 5 सितंबर को देश भर में शिक्षक दिवस मनाया जाता है। डा0 राधाकृष्णन का जन्म 5 सितंबर 1888 को मद्रास के निकट तिरुतानी में हुआ और उनकी प्रारंभिक शिक्षा ईसाई संस्थाओं में हुई। उस समय योरोपिय लोग अक्सर भारतीय चिंतन, दर्शन, ‘आत्मा’ और ‘कर्म’ की खिल्ली उड़ाया करते थे। इससे राधाकृष्णन बेहद मर्माहत थे।

एक स्थान पर उन्होंने लिखा है कि ‘ईसाई आलोचकों की इस चुनौती ने मुझे हिंदू धर्म के अध्ययन और यह खोज निकालने के लिए बाध्य किया कि हिंदू धर्म में क्या जीवित बचा है और क्या मृत है।’ शिक्षा प्राप्ति के तदोपरांत डा0 राधाकृष्णन ने सर्वप्रथम एक शिक्षक के रुप में मद्रास में लेक्चरर नियुक्त हुए। 1911 में वे मद्रास के प्रेसीडेंसी कालेज में असिस्टेंट प्रोफेसर और 1916 में प्रोफेसर बने। 1918 में वह मैसूर विश्वविद्यालय में चले गए और वहां 1921 तक रहे। 1926 और 1929-30 में आक्सफोर्ड के मानचेस्टर कालेज और 1926 में शिकागो विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे। 1927 में भारतीय दर्शन परिषद के बंबई अधिवेशन के अध्यक्ष बने और 1936 में आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में प्राच्य धर्मों और नीतिशास्त्र के प्रोफेसर बने। दर्शनशास्त्र उनका प्रिय विषय था। सर आशुतोष मुखर्जी के निवेदन पर वे कलकत्ता विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर पद  पर कार्य करना स्वीकार किया। वे वहां 1921 से 1931 तथा 1937 से 1941 तक अध्यापन कार्य किए। इसके बाद वे आंध्रप्रदेश विश्वविद्यालय में 1939 से 1948 तक उपकुलपति रहे। 1931 से 1941 तक राष्ट्रसंघ की बौद्धिक सहकारिता संबंधी अंतर्राष्ट्रीय समिति के सदस्य रहे।

बंगाल की रायल एशियाटिक सोसायटी के फैलो और भारतीय विश्वविद्यालय कमीशन के अध्यक्ष के पद का भी उन्होंने शोभा बढ़ाया। 1916 महामना मदन मोहन मालवीय द्वारा बनारस में स्थापित काशी हिंदू विश्वविद्यालय में भी उन्होंने बतौर कुलपति अपनी भूमिका का गौरवपूर्ण निर्वहन किया। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान जब गांधी जी ने करो या मरो का नारा दिया उस दौरान काशी हिंदू विश्वविद्यालय के छात्रों ने इसमें बढ़ चढ़कर हिंसा लिया। इससे नाराज होकर उत्तर प्रदेश के तत्कालीन गवर्नर सर मारिस हेलेट ने पूरे विश्वविद्यालय को युद्ध अस्पताल के रुप में बदल देने की धमकी दी। डा0 राधाकृष्णन के लिए सामान्य स्थिति बनाए रखना एक बड़ी चुनौती थी। वे इससे निपटने के लिए तत्काल दिल्ली रवाना हो गए और वहां वायसराय लार्ड लिनालियगो से मिले। उन्हें अपनी बातों से प्रभावित कर गर्वनर के निर्णय को स्थगित कराया। फिर एक नयी समस्या उत्पन हो गयी। नाराज गवर्नर ने विश्वविद्यालय की आर्थिक सहायता रोकने की घोषणा कर दी। लेकिन डा0 राधाकृष्णन इससे विचलित नहीं हुए। उन्होंने शांतिपूर्वक येनकेन प्रकारेण धन की व्यवस्था की और विश्वविद्यालय संचालन में धन की कमी आड़े नहीं आने दी। डा0 राधाकृष्णन एक उत्कृष्ट विद्वान, महान शिक्षाशास्त्री के अलावा कुशल वक्ता भी थे। अंग्रेजी और संस्कृत पर उन्हें असामान्य अधिकार था। भारत में सत्ता हस्तांतरित होने के गौरवशाली अवसर पर जो गिने-चुने महापुरुषों ने अपने विचार व्यक्त किए उनमें डा. राधाकृष्णन भी थे। उनकी विद्वता और ज्ञान सिर्फ कोरी शास्त्रीय नहीं थी बल्कि इसे अपने जीवन में उतारा भी। शिक्षा में महान योगदान को देखते हुए ही भारत सरकार ने उन्हें 1954 में भारत रत्न की उपाधि से विभुषित किया। वास्तव में उनका ‘भारत रत्न’ से सम्मानित होना देश के हर शिक्षक के लिए गौरव की बात थी। दर्शनशास्त्र और भारतीय संस्कृति के मर्मज्ञ डा0 राधाकृष्णन ने कई महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखी। इनमें द एथिक्स आॅफ वेदांत, द फिलासफी आॅफ रविंद्र नाथ टैगोर, माई सर्च फॅार ट्रुथ, द रेन आॅफ कंटेम्परेरी फिलासफी, रिलीजन आॅफ सोसायटी, इंडियन फिलासफी और द एसेन्सियल आॅफ फिलाॅसफी अति महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं। उनके संपादित ग्रंथ ‘गांधी-अभिनंदन-ग्रंथ’ एक अभूतपूर्व प्रकाशन है। यह गांधीजी और उनकी विचारधारा को समझने की दृष्टि से एक विलक्षण ग्रंथ है। भारतीय संस्कृति, जीवन-दर्शन और मूल्यों के साथ ही उनकी वेस्टर्न फिलाॅसफी पर भी गजब की पकड़ थी। वे अपनी अपने व्याख्यान से भारतीय और योरोपिय दर्शन दोनों को एकदूसरे के निकट ला देते थे। प्रसिद्ध उपन्यासकार एल्डस हक्सले ने कहा भी है कि राधाकृष्णन के व्याख्यानों ने भारतीय तथा योरोपियन दो भिन्न संस्कृतियों को समझने के लिए सेतु का काम किया है। नोबेल पुरस्कार विजेता और महान वैज्ञानिक सीबी रमन ने डा0 राधाकृष्णन के बारे में कहा है कि ‘दुबले-पतले शरीर में एक महान आत्मा का निवास था। एक ऐसी श्रेष्ठ आत्मा जिसकी हम सभी श्रद्धात्र प्रशंसा यहां तक कि पूजा करना भी सीख गए।’ राधानकृष्णन बहुआयामी प्रतिभा के धनी थे। 1947 में देश के आजाद होने के बाद 1949 में उन्हें सोवियत संघ में भारत का प्रथम राजदूत नियुक्त किया गया। उस समय वहां के राष्ट्रपति जोसेफ स्टालिन थे। लोगों के बीच चर्चा का विषय बना कि एक आदर्शवादी शिक्षक भला कुटनीतिक भौतिकवाद की कसौटी पर खरा कैसे उतर सकता है। लेकिन डा.  राधाकृष्णन ने अपनी बुद्धिमता से अपने चयन को सही साबित कर दिया। उन्होंने भारत और सोवियत संघ के बीच सफलतापूर्वक एक मित्रतापूर्ण समझदारी की नींव डाली। 1962 में वे भारतीय गणतंत्र के दूसरे राष्ट्रपति बने। लेकिन वे कभी भी एक दल अथवा कार्यक्रम के समर्थक नहीं रहे। राष्ट्रपति के रुप में उन्होंने विदेशों में अपने भाषण के दौरान राजनीतिज्ञों और लोगों को प्रेरित करते हुए कहा कि ‘लोकतंत्र के प्रहरी के रुप में अपने कर्तव्य का पालने करें, इस बात को पूरी तरह समझ लें कि लोकतंत्र का अर्थ मतभेदों को मिटा डालना नहीं बल्कि मतभेदों के बीच समन्वय का रास्ता निकालना है।’ 1967 में राष्ट्रपति पद से मुक्त होने के बाद देशवासियों को सचेत करते हुए कहा कि ‘ इस धारणा को बल नहीं मिलना चाहिए कि हिंसापूर्ण अव्यवस्था फैलाए बिना कोई परिवर्तन नहीं लाया जा सकता। सार्वजनिक जीवन के सभी पहलूओं में जिस प्रकार से छल-कपट प्रवेश कर गया है उसके लिए अधिक बुद्धिमता का सहारा लेकर हमें अपने जीवन में उचित परिवर्तन लाना चाहिए। समय के साथ-साथ हमें आगे बढ़ना चाहिए।’ भारतीय शिक्षा, संस्कृति, चिंतन और दर्शन के इस महान शिक्षक, आदर्श राजनेता और सफल कुतनीतिज्ञ से भारतीय जनमानस को प्रेरणा लेना चाहिए। बदलते सामाजिक-आर्थिक व राजनीतिक परिदृश्य में भारतीय समाज और उसका मार्गदर्शन करने वाले गुरुजन राधाकृष्णन के आदर्शवादी मूल्यों और सारगर्भित विचारधारा को अपनाकर न केवल सम्मान का हकदार बन सकते हैं बल्कि राष्ट्र के जीवन में चेतना व संस्कार का संचार भी कर सकते हैं।

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