आत्ममुग्धता में स्वयं का नुकसान कर रही है टीम अन्ना

सिद्धार्थ शंकर गौतम

अन्ना हजारे के लोकपाल के गठन एवं भ्रष्टाचार के विरुद्ध किए जा रहे आंदोलन को एक वर्ष से अधिक का समय हो चुका है किन्तु अभी तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि आखिर अन्ना और उनकी टीम में सामंजस्य क्यों नहीं बैठ पा रहा? अरविन्द केजरीवाल, किरण बेदी, प्रशांत भूषण, संतोष हेगड़े, मनीष सिसौदिया; सभी अपनी ढपली-अपना राग अलापने में लगे हैं| अन्ना हजारे की छवि और ईमानदारी पर खड़ा हुआ आंदोलन आज अन्ना टीम के कुछ लोगों की बपौती बन गया है| फिर अन्ना-रामदेव गठजोड़ से भी अन्ना टीम के बाकी सदस्य बिदके हुए हैं| उन्हें यह आभास हो चला है कि यदि अन्ना-रामदेव साथ मिलकर भ्रष्टाचार के विरुद्ध मैदान में उतरे तो टीम के बाकी सदस्यों का नामलेवा भी कोई नहीं बचेगा| क्या स्वयं को प्रासंगिक रखने एवं चर्चाओं में बनाए रखने के लिए ही टीम अन्ना के सदस्य ऊल-जलूल बयानबाजी कर रहे हैं| उनकी इस बयानबाजी से अव्वल तो अन्ना के आंदोलन को जाने-अनजाने पलीता लग रहा है दूसरे जनता की नज़रों में टीम अन्ना की विश्वसनीयता पर संशय बढ़ रहा है| अपनी निजी महत्वकांक्षाओं की पूर्ति हेतु अन्ना टीम के सदस्य अपना ही नुकसान कर रहे हैं जिसका परिणाम भी उन्हें भुगतना पड़ेगा| जो अन्ना जनलोकपाल आंदोलन चलाकर भ्रष्ट हो चुकी व्यवस्था में शुद्धि लाना चाहते थे, अपनी टीम के सदस्यों की कारगुजारियों की वजह से एक वर्ष बाद भी वे खामोश खड़े नज़र आते हैं|

 

दरअसल अन्ना के आंदोलन की सबसे बड़ी कमी यह रही कि उनका आंदोलन विशुद्ध रूप से एक पार्टी के विरुद्ध हो गया जिससे यह माना जाने लगा कि अन्ना स्वयं दक्षिणपंथी विचारधारा के पोषक हैं, अतः केंद्र को अस्थिर करने हेतु विरोधी पक्षों के साथ मिल गए हैं| बतौर अन्ना के सहयोगी; कुछ ऐसे तत्व भी जुड़े जिनका दामन पहले से ही दागदार था| कुछ सहयोगियों का बड़बोलापन तथा कुछ का खुलेआम लोकतंत्र का अपमान करना, जनता की नज़रों में अन्ना आंदोलन की अहमियत को कम कर गया| सरकार द्वारा अन्ना टीम का पोल-खोल अभियान भी जनता के बीच उनकी ईमानदारी पर प्रश्न-चिन्ह लगा गया| बची-खुची साख मीडिया ने नेस्तनाबूत कर दी| लोक एवं तंत्र के बीच की दूरी बढ़ती गई| अन्ना आंदोलन की सबसे बड़ी विफलता टीम के सदस्यों का बडबोलापन रहा जिसने नेताओं को एक सूत्र में पिरोने का कार्य किया| चूँकि टीम अन्ना सदस्यों का जुबानी हमला सीधे तौर पर नेताओं की छवि को दागदार कर रहा था लिहाजा दुश्मन भी दोस्त बन गए और एकजुट होकर टीम अन्ना को नेस्तनाबूत करने की ठान ली| वे इसमें काफी हद तक सफल भी हुए हैं| अन्ना के आंदोलन की इससे बड़ी विफलता और क्या होगी कि हाल ही में संपन्न पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों सहित दिल्ली नगर निगम चुनाव में अन्ना और उनकी टीम का जादू नहीं चला| किसी भी क्षेत्र से ऐसा कोई समाचार नहीं मिला जिससे इस तथ्य की पुष्टि होती हो कि फलां प्रत्याशी टीम अन्ना के नकारात्मक प्रचार की वजह से हारा हो? और यह सब हुआ टीम अन्ना सदस्यों की बदजुबानी की वजह से|

 

अन्ना और उनकी टीम ने व्यवस्था में सुधार हेतु दबाव की जो राह चुनी है उससे उनकी जनलोकपाल के प्रति प्रतिबद्धता भी कम हुई है| व्यवस्था में तो सुधार होना ही चाहिए किन्तु उसके लिए संसद को दबाव में लाना कदापि उचित नहीं| दबाव की राजनीति जब बढ़ती है तो सरकार भी अन्ना और उनकी टीम को आइना दिखाने लगती है| तब अन्ना को लगता है कि सरकार उनके साथ धोखा कर रही है, जबकि अन्ना को मुश्किलों का सामना इसलिए करना पड़ रहा है, क्योंकि वह एक समानांतर न्यायिक व्यवस्था की मांग कर रहे हैं। और यह दबाव की राजनीति भी अन्ना और उनकी टीम के द्वारा चारित्रिक हनन के रूप में सामने आती है| यक़ीनन केंद्र सरकार राजनीतिक रूप से सभी मोर्चों पर अक्षम साबित हुई हो किन्तु इसका हिसाब करने का अधिकार जनता को है न कि कुछ लोगों द्वारा बनाए गए समूह को| मगर लगता है कि अन्ना और खासकर उनकी टीम मीडिया द्वारा दी गई लोकप्रियता के भ्रमजाल में इतनी आत्म-मुग्ध हो चुकी है कि वह अपने समक्ष सरकार को भी ठेंगा दिखाने से बाज नहीं आ रही| कहा जाता है कि राजनीति में भले ही कितने वैचारिक मतभेद क्यूँ न हों, बात जहां अस्तित्व के हनन की आती है तो हमाम के सभी नंगे एक हो जाते हैं| अब खुद ही सोचिए, कहाँ ७५० सांसदों सहित हज़ारों की संख्या में विधायकों की भीड़ और कहाँ अन्ना और उनकी टीम के गिने-चुने साथी? ये सभी वैचारिक रूप से चाहे जितने भी समृद्ध क्यूँ न हों मगर राजनीति के मामले में अपरिपक्व हैं और यही वजह है कि ये सभी राजनीति में उलझकर अन्ना के साथ-साथ अपना भी दीर्घकालीन नुकसान कर रहे हैं| ऐसे में कहा जा सकता है कि अन्ना और उनकी टीम के जनलोकपाल आंदोलन की सफलता अब संदिग्ध ही है|

2 COMMENTS

  1. भ्रष्टाचार इस देश से ख़तम हो जाए – यह बस एक सुहाना ख्वाब हैं कुछ अनजान, आदर्शवादी या अति चतुर सुविधावादी लोगो का ….. जिस देश में हमने जन्म लिया हैं …. जिस देश के इतिहास और पुराणिक गाथाओ के हम वारिस हैं …. जिस संस्कृति और ज्ञान की परम्पराओ के हम अनुयायी हैं ….. उसी देश के इतिहास और पुराणिक कथाए हमे कहती हैं की हम अब कलियुग में हैं और इस कलियुग में सत्ययुग की कल्पनाये ये सतयुग की मांग रखना – निहायती बेवकूफी भरा या नादान सोच हैं …..

    मेरा यह मानना हैं की अगर हम इस बात को थोडा देर के लिए किनारे पर रख दे की किसने किसको भ्रस्त बनाया और देश के आज की वास्तविक छबि को देखे तो …. मुझे यह लगता हैं जी जिस देश में वोट ख़रीदे जाते हैं पैसो से, टीवी, बाईक, जात-पात, मजहब के नाम से – उस देश में राजनेताओ को हक़ हैं भ्रस्त होने का ……. जैसा देश – वैसा नेता ! भ्रस्त देश के भ्रस्त नेता ……..

    ये कलियुग हैं भाई – कलियुग हैं ! कलियुग के प्रभाव को मिटने की सोच में बदलाव लाकर उसके प्रभावों को सामजिक और राष्ट्रीय जीवन में कम करने की मुहीम होना चाहिए ….. तभी कामयाबी का कुछ स्तर लोगो को या मुहीम चलने वालों को मिलेगा – वरना ये सब बस नासमझ लोगो की अलोकिक कल्पनाये हैं – और कुछ नहीं I

  2. अन्ना और उनकी टीम के जनलोकपाल आंदोलन की सफलता अब संदिग्ध इसलिए है कि एक तो हमें विश्वास नहीं हो रहा है कि भ्रष्टाचार से मुक्ति कभी संभव है और दूसरे हम किसी की भी छवि को अपने चहरे में बैठा कर देखते हैं.हमें यह भी विश्वास करने में दिक्कत हो रही है कि ऐसा कैसे संभव है कि कोई भी आदमी स्वार्थ से ऊपर उठ सकता है.
    अब इसका दूसरा पहलू लेते हैं.मान लीजिये कि अन्ना का यह आनोलन असफल हो जाता है ,तो हानि किसे होगी? हानि केवल भारत की आम जनता को होगा ,जो दिशा विहीन थी,भ्रष्टाचार से मुक्ति पाने केलिए तड़प रही थी.अन्ना और उनकी टीम जनता के सामने एक मुक्तिदाता के रूप में उभड कर आयी थी.इस टीम की असफलता उन्हें फिर उसी गन्दगी में तड़पते रहने के लिए वाध्य करेगी.जो देशद्रोही ,लम्पट,बलात्कारी और हत्यारे इस भ्रष्टाचार का लुफ्त उठा रहें हैं,वे उठाते रहेंगे.

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