मंदिर व भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था : एक चिंतन

clip_image0024भारतीय संस्कृति में पूजा-पाठ, कर्मकांड का चलन हमेशा से ही शीर्ष स्तर पर रहा हैं। पूजन की परम्परा युगों-युगों से चली आ रही हैं। जिसमें पूजन स्थल व मंदिरों का निमार्ण राजा-महाराजाओं के लिए सम्मान की बात होती थी।

भारतीय हिन्दू संस्कृति में चार चीजों को हमेशा से ही महत्व दिया गया हैं, गौ, गंगा, गीता और गायत्री। जिसकी आराधना प्राचीन समय से चली आ रही हैं। और इन्हीं के पूजा-अर्चना को आगे तक प्रसारित करने के लिए लोगों ने मंदिरों का निर्माण प्रारम्भ किया लेकिन इन सभी में प्रयुक्त वास्तु व कलाओं का निमार्ण भविष्य को ध्यान में रख कर किया गया हैं। ताकि आने वाले समय में समाज इससे लाभान्वित हो सके। मंदिरो के निमार्ण के लिए विशेष स्थानों का चयन किया जाता था, तथा उससे सम्बन्धित त्योहारों का आयोजन भी समय-समय पर होता रहता था। योजना के अनुसार उत्सव, मिलन व मेला आदि का आयोजन भी किया जाता था। यदि हम इन आयोजनों के आर्थिक पहलू को देखे तो हमें पता चलेगा कि प्राचीन समय से लोगों के आय का मुख्य साधन व्यापार व खेती थी। जिसके द्वारा व्यक्ति अपनी जीविका का निर्वाह करता था । अपने सामानों को वस्तु- विनिमय या फिर मुद्रा के द्वारा खरीदता व बेंचता रहता था। इस प्रकार जो मुद्रा उसे लाभ के रूप में उसे प्राप्त होती थी उसे वह अपने आवश्यकताओं के लिए तथा राज्य कर के लिए खर्च करते थे ताकि समाज की उन्नति हो सके। इस प्रकार हम देखते हैं कि हमारे समाज में मंदिर की परिकल्पना बहुत ही सुदृढ़ थी, जो राजा और प्रजा के बीच सम्बन्ध को ठोस आधार प्रदान करती थी। राजा द्वारा जनता से प्राप्त करों का एक निश्चित भाग धर्मकार्यों में लगाया जाता था ताकि समाज में आर्थिक व सामाजिक सुदृढ़ता आये और समाज में खुशहाली का वातावरण विकसित हो सके। ऐसे में ये देखना आवश्यक प्रतीत होता हैं कि मंदिर किन-किन रूपों में प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक अर्थव्यवस्था पर किस प्रकार प्रभाव डालता हैं।

मंदिर और प्राचीन भारतीय अर्थव्यवस्था :
प्राचीन काल में अर्थ का मुख्य स्रोत पशुधन, खेती तथा व्यापार था। जिसके द्वारा व्यक्ति अपनी जीवकोपार्जन करता था। परन्तु पहले यातायात के बहुत सुदृढ़ साधन नहीं थे जिसके कारण उनके व्यापार तथा अपने सामानों को दूर-दराज तक ले जाने में कठिनाइयाँ होतीं थी। यही कारण है कि दूर-दराज के लोगों से लोगों का सम्पर्क कम हो पाता था। लोग अपने निष्चित दायरे में ही बंधे रहते थे, और अपने एक सीमित दायरे में जीवकोपार्जन किया करते थे। लोगों के पास मुद्रा का प्रवाह एक सीमित स्तर हुआ करता था। जो कि अर्थव्यवस्था की उन्नति के लिए उचित नहीं था। इसी कारण प्राचीन मंदिर अर्थ वितरण का सुदृढ़ माध्यम रहे हैं। क्योंकि धार्मिक कर्मकाण्ड, पूजा-पाठ लोगों को अधिक प्रभावित करते हैं। इन भावनाओं तथा अर्थ के सही वितरण के लिए मंदिरों में मनाए जाने वाले त्यौहार, उत्सव तथा मेलों को भव्यता प्रदान किया गया जो कि आर्थिक उन्नति के द्योतक रहे। इसका परिणाम यह हुआ कि जो व्यापारी अपने सामानों को लेकर दूर-दराज के गाँवों में भटकते थे तथा ऐसे व्यक्ति जिनको वस्तुओं की आवश्‍यकता होती थी जो उन्हें सरलता से नहीं मिल पाता था, ऐसे में मंदिरों के माध्यम से मेलों का आयोजन क्रेता व विक्रेता दोनों के लिए एक उचित माध्यम सिद्ध हुआ। क्योंकि इस माध्यम से लोगों को निश्चित समय में लोगों को अपने सामान खरीदने व बेचने के साथ-साथ अधिक मुद्रा विनिमय का मार्ग प्रसस्त हुआ। दूसरी तरफ उत्सव व मेलों के आयोजन के बहाने दूसरे प्रांत के शासक, व्यापारी व आम जन व्यापार करने तथा मिलने के उद्देश्‍य से दूसरे प्रांतों व स्थानों तक आते थे। जिससे की मित्रता व धार्मिक व आर्थिक विकास को मजबूती मिलती थी। जो कि राजनीतिक व आर्थिक विकास को बढ़ावा देने वाले थे। क्योंकि उस समय जो राज्यों की आपसी वैमनस्यता में भी कमी आती थी। इन आयोजनों तथा इससे होने वाले क्रय-विक्रय से प्राप्त मुद्रा का लाभ सीधे तौर पर अर्थव्यवस्था व समाजिक लोगों को प्राप्त होता था। ऐसा कहा जा सकता है कि इन्हीं सब तथ्यों को देखकर मंदिरों तथा उसके प्रांगणों का निर्माण अधिक संख्या में प्रचलन में आया। साथ ही साथ जब व्यक्तियों के पास अर्थ की अधिकता हुई तो उसके अन्दर संचय व धार्मिक कार्यों की प्रवृति ने जन्म लिया। और मंदिर प्राचीन भारतीय अर्थव्यवस्था के प्रमुख केन्द्र बने। (विदेशी आक्रमण से पूर्व)

मंदिर व मध्यकालीन अर्थव्यवस्था :
मध्यकालीन समय आते-आते प्राचीन काल का विकासशील वृक्ष (मंदिर) अपने शीर्ष अवस्था को प्राप्त हो गये थे। मंदिर सामाजिक, राजनैतिक व आर्थिक सन्दर्भो में अपने उच्च अवस्था को प्राप्त थे। मंदिर एक प्रकार से बैंकिग तथा मुद्रा संरक्षण का कार्य करने लगे थे। मंदिरों के भव्य निर्माण व शिल्पकारी उसके आर्थिक उन्नति को दर्शा रहे थे। जो एक तरह से रोजगार व निवेश की संभावना को भी व्यक्त करता है। उस समय के राजा-महाराजा एवं व्यापारी वर्ग अपनी आमदनी का एक निश्चित हिस्सा धार्मिक कार्यों में लगाया करते थे। जिसके परिणामस्वरूप समाज का एक बडे समूह का भरण-पोषण होता था। जो सामाजिक व आर्थिक अन्तर को कम करती थी। मंदिर एक प्रकार से लोगों को रोजगार दिलाने का कार्य भी कर रहे थे। इस प्रकार मंदिरों की भव्यता व चमक इतनी बढ़ गयी कि बाहर से आने वाले व्यापारी इसकी भव्यता, कलाशिल्प व आर्थिक समृध्दि से इतने चकाचौंध थे अपने देश जाकर इसके गौरव को वर्णन अपने शब्दों में करते थे। आर्थिक समृध्दि से परिपूर्ण होने के कारण विदेशी आक्रमणकारियों के प्रमुख केन्द्र रहे। सर्वविदित है कि सोमनाथ का मंदिर इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। जिसपर आक्रमणकारियों ने अनेकानेक बार आक्रमण कर उसे लूटा परन्तु प्रत्येक आक्रमण के बाद मंदिर और भी समृध्दता को प्राप्त होता गया। यह घटना मुख्य रुप से दो बातों को दर्शाती है, पहला कि समाजिक लोगों की आस्था प्रबल रुप से मंदिरों मे थी तथा दूसरा इतने आक्रमण के बाद भी मंदिर पुन: अर्थसम्पन्न होता गया। अत: हम यह कह सकते कि मंदिर लोगों कि लिए मुद्रा बैंकिग व संचार का कार्य भी करते थे। जोकि समाज, अर्थ व मंदिर के परस्पर सम्बन्ध को दर्शाता है। परन्तु बाद के कालों में जब विदेशी शासन का प्रभुत्व बढ़ता गया तो उसके द्वारा मंदिरों के रीति-रिवाज तथा उसके सुदृढ़ आर्थिक प्रणाली को क्षति पहॅुंची जिससे कि पारम्परिक आर्थिक संतुलन के स्थान पर असंतुलन हाने लगा तथा वर्गों के बीच अन्तर बढ़ने लगा। (अंग्रेजों से पूर्व)

मंदिर व आधुनिक भारतीय अर्थव्यवस्था
आर्थिक दृष्टि से आधुनिक काल के प्रारम्भिक समय में मंदिरों की स्थिति कुछ खास नहीं रही। सत्ता अंग्रजो के हाथ में आने के बाद मंदिर पर आधारित आर्थिक व्यवस्था जो मध्यकाल में जर्जर हो रही थी उनकी विकास गति इस समय सीमित अवस्था को प्राप्त हो गये थे। जो मंदिर बैंकिग प्रणाली द्वारा सामाजिक व आर्थिक उन्नति को बढ़ावा देते थे, वर्तमान समय में श्रध्दा मात्र के केन्द्र रह गये। जिसके कारण विकास गति मन्द हो गयी। परन्तु बाद के दिनों में आये समाजसुधारक, संस्थापक व शंकराचार्यों ने धार्मिक जागरण व मंदिर जीर्णोध्दार का कार्य प्रारम्भ किया। जिसके परिणामस्वरुप मंदिर प्राचीन काल का आकर्षण तो नहीं अपितु पुन: अपना एक अस्तित्व प्राप्त करने लगे। इनके सान्निध्य में अनेकानेक मंदिरों का निर्माण कराया गया जो कि आर्थिक रूप से प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रुप में अर्थव्यस्था को सुदृढ़ता प्रदान करने वाला था। जो कि समाज के श्रमिक वर्गों के लिए आय का साधन भी बने।

विचार करने की बात है कि वर्तमान समय में मंदिर निवेश तथा आय का बहुत बड़ा साधन हैं। जिससे कि प्रत्येक वर्ग लाभान्वित होता रहता है। उदाहरण के तौर पर मंदिर में चढ़ने वाला प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष चढ़ावा जो कि मंदिर द्वारा विभिन्न सामाजिक कार्यों में खर्च होता है। जिससे समाज तो लाभान्वित होता है साथ ही साथ लोगों को रोजगार भी प्राप्त होता है। जब व्यक्तियों को रोजगार की प्राप्ति होगी तो उससे मुद्रा का अर्जन होगा, परिणाम स्वरूप उसकी क्रय शक्ति बढ़ेगी। मांग के बढ़ने पर उत्पादन को बढ़ावा मिलेगा जिससे अर्थव्यवस्था उन्नति की ओर उन्मुख होगी। अर्थात् जो मुद्रा छुपी या दबी हुई है लोग उसे मंदिर में श्रध्दा स्वरुप चढ़ाते हैं जो कि निवेश को बढावा देकर अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान करता है।

इस प्रकार अर्थव्यवस्था में आने वाली आर्थिक व सामाजिक समस्यायों को हल करने का एक बहुत बड़ा माध्यम मंदिर भी हो सकते हैं।

अत: हम देखते हैं कि जो आर्थिक सुदृढ़ता मंदिरों द्वारा प्राचीन काल में प्राप्त हुआ था वो मध्यकाल आते-आते कुछ जड़ता को प्राप्त हुआ। और आधुनिक काल में इसकी सहभागिता (आर्थिक) प्रत्यक्ष रुप से नही हो पा रही है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि अर्थव्यवस्था में व्याप्त समस्याओं का एक कारण सीधे समाज से जुड़े मंदिरों के बनाये हुए प्राचीन व्यवस्थाओं को उपेक्षित करना भी हो सकता है। इसलिए यह स्पष्ट हो जाता है कि मंदिरों का भारतीय समाज पर जो आर्थिक प्रभाव है, वह सीधे तौर पर समाज के सभी वर्गों से जुड़ा हुआ है। जिस प्रक्रिया में एक साथ समाज का प्रत्येक वर्ग लाभान्वित होता है। और किसी भी देश की अर्थव्यवस्था को समान रुप से चलाने के लिए यह एक आधार भी है।

-सौरभ कुमार मिश्र

5 COMMENTS

  1. इस लेख को यदि अन्य पत्रिकाओं में सम्मलित किया जाता है तो अपने देश के आर्थिक विकास में मंदिरो की सांझेदारी लोगो को समझ में आ सकती है । इस मंदर के व्यवस्थापन के लिए मंदिर व्यवस्थापन का सर्टिफिकेट कोर्ष अहमदाबाद में चलता है यदि किसी भी पंडितों को मदंरीरों में कार्य करना है तो उसे इस मंदिर व्यवस्थापन का कोर्ष अर्थात् अभ्यास अवश्य करना चाहिए । इस अभ्यास में जुड़ने के लिए संपर्क करे – 9426356575

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