निहत्थे श्रद्धालुओं पर आतंकी हमला

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प्रमोद भर्गव

कश्मीर से सावन के पहले सोमवार को दिल-दहलाने वाली खबर आई है। निहत्थे अमरनाथ यात्रियों के तीन जत्थों पर आतंकी हमले हुए हैं। अनंतनाग के बटेंगू में हुए इस हमले में सात यात्रियों की मौत हो गई और 14 घायल हैं। इस हमले की आशंका गुप्तचर संस्थाओं ने पहले ही जता दी थी। आतंक के आकाओं ने 100 से लेकर 150 तक अमरनाथ यात्रियों को मारने का आदेश आतंकवादियों को दिया था। इस आदेश को अंजाम तक पहुंचाने में आतंकियों को शुरूआती सफलता मिल गई है। यह ठीक है कि सुरक्षा में चूक हुई है, लेकिन सरेराह यात्री बस पर हमला, खुफिया तंत्र, पुलिस और सुरक्षा बलों के लिए बड़ी चुनौती है, कि आशंका के बाबजूद आतंकियों ने खुलेआम हमला करने की हिम्मत कैसे जुटा ली ? इससे बड़ी यह चुनौती केंद्र सरकार के लिए है, जो 56 इंची सीना होने का दावा तो करती है, लेकिन उसके अब तक के सभी उपाय कश्मीर और पाकिस्तान के परिप्रेक्ष्य में रक्षात्मक हैं। इन उपायों से उभरकर अब केंद्र सरकार को तत्काल आतंक का पोषण कर रहे पाकिस्तान को कठोर सबक सिखाने की जरूरत है।

जम्मू-कश्मीर और पंजाब के अनेक सैन्य ठिकानों पर पाक प्रायोजित आतंकी हमलों के साथ 2 मई 2017 को पाकिस्तानी सेना ने निर्मम बर्बरता दिखाते हुए 2 भारतीय सैनिकों के शवों को क्षत-विक्षत कर उनके सिर धड़ से अलग कर दिए थे। सैनिकों के सिर काटने की यह घटना पाक की बर्बरता की पराकाष्ठ थी। अब उसने आतंकियों के जरिए धार्मिक श्रद्धालुओं पर हमला कराकर अपनी बर्बरता को चरम पर पहुंचा दिया है। इन घात लगाकर किए हमलों ने साफ कर दिया है कि पाक सेना और पाक से निर्यात आतंकी अपराधी गिरोहों की तरह काम कर रहे हैं। लिहाजा इस हमले से पूरा देश गम और गुस्से में है। क्योंकि जिनेवा समझौते की शर्तों में स्पष्ट है कि युद्ध के दौरान आम नागरिक, श्रद्धालुओं, शहीद हुए सैनिकों, घायल या फिर बंदी बनाए गए सैनिकों के साथ कैसा आचरण किया जाए ? मगर पाकिस्तान की सेना उन नियम-कायदों और मर्यादाओं को भुला चुकी है तो उसकी बड़ी वजह यह है कि आतंकवादियों को शह देते-देते वह खुद भी उनका आचरण सीख गई है। घात लगा कर या धोखे से हमला सेना के लोग नहीं करते, अपराधी या आतंकवादी करते हैं। फिर कोई सैनिक दुश्मन देश के मारे गए सैनिक का गला काटे या भोले के भक्तों पर धोखे से हमला करे तो यह न तो मानवता का तकाजा है और न किसी सेना का धर्म ?

जम्मू कश्मीर में आतंकवादियों को हतोत्साहित किये बिना कोई सुधार होने की उम्मीद नहीं है। लेकिन भाजपा और पीडीपी गठबंधन सरकार ने अलगावादियों और पत्थरबाजों के दवाब में आकर जम्मू-कश्मीर के 60×80 वर्ग किलोमीटर के उस इलाके से सेना के शिविर हटा दिए हैं, जो आतंकियों पर नकेल कसे हुए थे। घाटी के इसी इलाके में अब आतंकी संगठन लश्कर ने फिर से सिर उठा लिया है। भक्तों की बस पर इसी क्षेत्र में हमला हुआ है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यदि वाकई 56 इंची सीना रखते हैं तो उन्हें तीन दिन के भीतर लश्कर से जुडे़ सभी आतंकियों का सफाया कर देना चाहिए। भत्र्सना व निंदा करने और महबूबा मुफ्ती की तरह आंसू बहाने से समस्या का कोई हल निकलने वाला नहीं है। इसलिए तत्काल जवाबी हमला तो  जरूरी है ही, इस क्षेत्र में फिर से सैनिकों के शिविर बहाल करने की भी जरूरत है। हमले के बाद गृहमंत्री राजनाथ सिंह का बयान आया है, उसमें एक बार फिर रक्षात्मक रुख की झलक दिखाई दे रही है। जबकि उन्हें भारत के इतिहास से सबक लेने की जरूरत है कि जब-जब हमने रक्षात्मक होकर लड़ाईयां लड़ी हैं, तब-तब हम हारे हैं। याद रहे, लड़ाई अकेली ढाल से नहीं, बल्कि तलवार से लड़ी जाती है।

आतंकवादियों को पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई से प्रोत्साहन तो मिल ही रहा है, भारत सरकार भी ऐसे कोई उपाय नहीं कर पा रही है, जिससे आतंकवादी हतोत्साहित हों और उनकी घुसपैठ आसान न रह जाए। ऐसा तभी संभव है, जब कश्मीर के बहुसंख्यक चरित्र में अल्पसंख्यक विस्थापितों का पुर्नवास किया जाकर जनसंख्यात्मक घनत्व की समावेशी अवधारणा सामने आये। लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि वीपी सिंह से लेकर मनमोहन सिंह की सरकार तक और अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार से नरेंद्र मोदी के अब तब के कार्यकाल में ऐसी कोई इच्छाशक्ति सामने नहीं आई, जिससे विस्थापितों के पुनर्वास की बहाली होती ? यहीं वजह है कि कश्मीर आतंकवादियों का एक आसान ठिकाना बनकर रह गया है।

1990 में शुरू हुए पाक प्रायोजित आतंकवाद के चलते घाटी से कश्मीर के मूल सांस्कृतिक चरित्र के प्रतीक कश्मीरी पंडितों को बेदखल करने की सुनियोजित साजिश रची गई थी। इस्लामी कट्टरपंथियों का मूल मकसद घाटी को हिन्दुओं से विहीन कर देना था। इस मंशापूर्ति में वे सफल भी रहे। देखते-देखते वादी से हिन्दुओं का पलायन शुरू हो गया और वे अपने ही पुश्तैनी राज्य में शरणार्थी बना दिए गए। ऐसा हैरान कर देने वाला उदाहरण अन्य किसी देश में नहीं है। पूरे जम्मू-कश्मीर में करीब 45 लाख कश्मीरी अल्पसंख्यक हैं, जिनमें से 7 लाख से भी ज्यादा विस्थापन का दंश झेल रहे हैं।

कश्मीर की महिला शासक कोटा रानी पर लिखे मदन मोहन शर्मा ‘शाही’ के प्रसिद्ध ऐतिहासिक उपन्यास ‘कोटा रानी’ पर गौर करें तो बिना किसी अतिरिक्त आहट के कश्मीर में शांति और सद्भाव का वातावरण था। प्राचीन काल में कश्मीर संस्कृत, सनातन धर्म और बौद्ध शिक्षा का उत्कृष्ठ केंद्र था। ‘नीलमत पुराण’ और कल्हण रचित ‘राजतरंगिनी’ में कश्मीर के उद्भव के भी किस्से हैं। कश्यप ऋषि ने इस सुंदर वादी की खोज कर मानव बसाहटों का सिलसिला शुरू किया था। कश्यप पुत्र नील इस प्रांत के पहले राजा थे। कश्मीर में यहीं से अनुशासित शासन व्यवस्था की बुनियाद पड़ी। 14 वीं सदी तक यहां शैव और बौद्ध मतों ने प्रभाव बनाए रखा। इस समय तक कश्मीर को काशी, नालंदा और पाटली पुत्र के बाद विद्या व ज्ञान का प्रमुख केंद्र माना जाता था। कश्मीरी पंडितों में ऋषि परंपरा और सूफी संप्रदाय साथ-साथ परवान चढ़े। लेकिन यही वह समय था जब इस्लाम कश्मीर का प्रमुख धर्म बन गया।

सिंध पर सातवीं शताबदी में अरबियों ने हमला कर, उसे कब्जा लिया। सिंध के राजा दाहिर के पुत्र जयसिंह ने भागकर कश्मीर में शरण ली। तब यहां की शासिका रानी कोटा थीं। कोटा रानी के आत्म-बलिदान के बाद पर्शिया से आए इस्लाम के प्रचारक शाह मीर ने कश्मीर का राजकाज संभाला। यहीं से जबरन धर्म परिवर्तन करते हुए कश्मीर का इस्लामीकरण शुरू हुआ। जिस पर आज तक स्थायी विराम नहीं लगा है। हालात यहां तक बद्हाल हो गए हैं कि हिन्दु धर्म से मुस्लिम बने श्रीनगर के एसडीओपी मोहम्मद अयूब पंडित को इसलिए भीड़ ने हाल ही में मार दिया था, क्योंकि वे पंडित के रूप में अपनी मूल पहचान जीवित रखे हुए थे। गोया, कश्मीर के हालात बिना सख्ती के सुधरने वाले नहीं हैं। इसके साथ ही कश्मीरी विस्थापितों का पुनर्वास भी जरूरी है। जब तक यहां का जनसंख्यात्मक घनत्व नहीं बदलेगा, तब तक कश्मीर का मौजूदा चरित्र बदलने वाला नहीं है।

 

प्रमोद भार्गव

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