बिहार की कसौटी पर उत्तर प्रदेश

डॉ. दिलीप अग्निहोत्री

बिहार विधानसभा चुनाव की कसौटी पर उत्तर प्रदेश को परखना अजीब-सा लग सकता है। यहाँ चुनाव में करीब डेढ़ वर्ष का समय है। क्षेत्रीय दल मुख्य मुकाबले में हैं। बसपा सत्ता में है, सपा मुख्य विपक्षी है। दोनों राष्ट्रीय दलों की स्थिति विधानसभा में इनके बाद है। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन या राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का यहां कोई स्वरूप नहीं है। उपचुनावों में नवगठित पीस पार्टी ने भी अपनी ओर लोगों का ध्यान आकर्षित किया है। दूसरी ओर बिहार में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सत्ता में था। इसके मुख्य मुकाबले मेंं क्षेत्रीय दल था। मतदाताओं का लगभग एक तरफा समर्थन सत्तारूढ़ राजग को मिला।

सत्ता पक्ष ने विकास को मुख्य चुनावी मुद्दा बनया। जाति-मजहब के समीकरण ध्वस्त हो गए। बिजली, पानी, सड़क महत्वपूर्ण हो गए। इन मुद्दों पर विपक्ष प्रायः सरकार को घेरता है। बिहार में उल्टा हुआ। विकास के मुद्दे पर मुख्य विपक्षी राजद घिरा हुआ था। क्योंकि पांच वर्ष पहले उसी का पंद्रह वर्षीय शासन था। इस बार प्रमुख प्रतिद्वंदी थे। सत्ता के दावेदार थे। सत्ता में रह चुके थे, इसलिए जबाबदेह भी थे लेकिन मतदाताओं ने विश्वास नहीं किया।

जाहिर है कि अब विकास के मुद्दे पर चुनाव का चलन बढ़ा है। यह भारतीय प्रजातंत्र का सकारात्मक अध्याय है। उत्तर प्रदेश भी इससे अछूता नहीं है। पांच वर्षों पहले बिहार के मतदाताओं ने राजद को सत्ता से बेदखल किया था। तब शासन की लापरवाही, असुरक्षा, भय, अपहरण, बदहाली, दबंगों का कहर, अवैध कब्जे, घोटालें आदि के चलते राजद चुनाव में पराजित हुई। पांच वर्षों पहले बिहार के मतदाताओं ने जिस आधार पर निर्णय लिया था, वही आधार साढ़े तीन वर्षों पहले उत्तर प्रदेश के चुनाव में था। विकास और सुरक्षा की इच्छा ने बिहार से राजद को हटाया। अपने पांच वर्षों के शासन में राजग ने विकास और सुरक्षा को सर्वाधिक महत्व दिया।

उत्तर प्रदेश को बिहार की कसौटी पर देखने का यही आधार है क्या? यहां सपा मतदाताओं को सुशासन देने का विश्वास दिला सकती है? क्या सत्तारूढ बसपा विकास और सुरक्षा के मुद्दे पर सफलता जातिवादी राजनीति, पिछड़ेपन, गरीबी, औद्याेगिक दृष्टि से बीमार रहे हैं। राजद, लोजपा, कांग्रेस मतदाताओं की नब्ज नहीं समझ सकी। उत्तर प्रदेश में सपा भी पीछे नही है। लालू यादव और रामविलास पासवान या कांग्रेस के नेता वोट बैंक की राजनीति के लिए जमीन-आसमान एक करते रहते हैं। यहां मुलायम सिंह यादव और आजम खां की दोस्ती उसी नीति पर आधारित है। विकास के मसले पर इनकी कोई नीति नहीं है। मुलायम और आजम ने एवं दूसरे के खिलाफ कुछ महीने पहले तक क्या कहा, इसे व दोनों याद नहीं करना चाहेंगे। लेकिन लोगों की स्मरण शक्ति इतनी कमजोर नहीं। आजम का यह दावा गलत है कि वह मुलायम और कल्याण की दोस्ती से वे आहत थे। सच्चाई यह है कि उनकी बेहिसाब नाराजगी जयप्रदा को लेकर थीै। जयाप्रदा को अमर सिंह का संरक्षण था, इसलिए वह आजम के निशाने पर आ गए। मुलायम सिंह ने अमर का साथ छोड़ने से इंकार कर दिया, इसलिए आजम ने उन्हें भी कोसने की कसर नहीं छोड़ी। कल्याण सिंह के सहयोग से तो आजम मंत्री बन चुके हैं कल्याण के पुत्र इनके सहयोगी थे। रामपुर के स्थानीय समीकरण से वह बसपा, कांग्रेस में नहीं गए। अंततः वोटबैंक के समीकरण पर लौटे। जाहिर है कि सपा जहां थी, वही है। वह वोटबैंक से ही सफलता की उम्मीद करती है। कांग्रेस भी इसी जद्दोजहद में है।

विकास और सुरक्षा के प्रति जबावदेही बसपा की है। लेकिन उत्तर प्रदेश में विकास का क्या मॉडल है। बिजली, पानी, सड़क का सुधार सहज उपलब्धता प्राथमिकता नही है। औद्योगिक दृष्टि से उत्तर प्रदेश आज भी बीमार है। उत्तर प्रदेश में कोई भी बड़ा निवेश नही करना चाहता। सुरक्षा के मसले में मुख्यमंत्री को कुछ महीने के अंतराल पर पुलिस प्रशासन को चेतावनी देनी पड़ती है। साफ है कि सब कुछ ठीक नही है। अधिकारी भी चेतावनी के अभ्यस्त और स्थानांतरण के लिए सदैव तैयार रहते हैं। शासन की प्राथमिकता क्या है? क्या इसमें गरीबी, बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, सड़क, पानी की दशा शामिल है? ऐसे में जो विकास के प्रति विश्वसनीयता साबित करेगा वही जनसमर्थन का दावा कर सकता है।

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