थम नहीं रहा नक्सली कहर

प्रमोद भार्गव

छत्तीसगढ़ में एक बार फिर माओवादी नक्सलियों ने सीआरपीएफ की 74वीं बटालियन कें भोजन करते जवानों पर हमला किया है। इस हमले में 26 जवान शहीद हो गए। इस बार नक्सलियों ने हमले का नया तरीका अपनाया। करीब तीन सौ की संख्या में आए नक्सली काली वर्दी पहने थे। इन्होंने महिला और बच्चों को ढाल बनाकर गोलियां दागीं। इसी साल 11 मार्च को भी सुकमा में नक्सली हमला हुआ था, जिसमें सीआरपीएफ के 12 जवान हताहत हुए थे। जिस समय प्रदेश सरकार और सुरक्षाबलों को यह लग रहा था कि अब लाल आतंक की कमर टूट गई है, तब नक्सलियों ने यह कहर बरपाया। यह हमला बुरकापाल और चिंतागुफा के बीच हुआ। यहां सुरक्षाबलों की सुरक्षा में सड़क निर्माण कार्य चल रहा है।

सुरक्षा बलों के अधिकारियों ने इस हमले के बाद कहा है कि नक्सली मार्च से जून माह के बीच में अकसर बदले की कार्रवाही तेज कर देते हैं। क्योंकि इस दौरान घात लगाकर हमला करना आसान होता है। जब यह सूचना अधिकारियों के पास थी, तो उन्हें और सतर्कता बरतने की जरूरत थी ? दरअसल  ऐसे तर्क अधिकारी अपनी खामियों पर पर्दा डालने के नजरिये से देते हैं, जबकि हकीकत में नक्सली हमला बोलकर भाग निकलने में सफल हो जाते हैं। इस हमले से तो यह सच्चाई सामने आई है कि नक्सलियों का तंत्र और विकसित हुआ है, साथ ही उनके पास सूचनाएं हासिल करने का मुखबिर तंत्र भी हैं। हमला करके बच निकलने की रणनीति बनाने में भी वे सक्षम हैं। इसीलिए वे अपनी कामयाबी का झण्डा फहराए हुए हैं। बस्तर के इस जंगली क्षेत्र में नक्सली नेता हिडमा का बोलबाला है। वह सरकार और सुरक्षाबलों को लगातार चुनौती दे रहा हैं और राज्य एवं केंद्र सरकार के पास रणनीति की कमी है। यही वजह है कि नक्सली क्षेत्र में जब भी कोई विकास कार्य होता है तो नक्सली उसमें रोड़ा अटका देते हैं। सड़क निर्माण के पक्ष में तो नक्सली कतई नहीं रहते, क्योंकि इससे पुलिस व सुरक्षाबलों की आवाजाही आसन हो जाएगी।

नक्सली समस्या से निपटने के लिए राज्य व केंद्र सरकार दावा कर रही हैं कि विकास इस समस्या का निदान है। यदि छत्तीसगढ़ सरकार के विकास संबंधी विज्ञापनों में दिए जा रहे आकड़ों पर भरोसा करें तो छत्तीसगढ़ की तस्वीर विकास के मानदण्डों को छूती दिख रही हैं, लेकिन इस अनुपात में यह दावा बेमानी है कि समस्या पर अंकुष लग रहा है ? बल्कि अब छत्तीसगढ़ नक्सली हिंसा से सबसे ज्यादा प्रभावित राज्य बन गया है। अब बड़ी संख्या में महिलाओं को नक्सली बनाए जाने के प्रमाण भी मिल रहे हैं।

व्यवस्था बदलने के बहाने 1967 में पश्चिम बंगाल के उत्तरी छोर पर नक्सलवाड़ी ग्राम से यह खूनी आंदोलन शुरू हुआ था। तब इसे नए विचार और राजनीति का वाहक कुछ साम्यवादी नेता, समाजशास्त्री, अर्थशास्त्री और मानवाधिकारवादियों ने माना था। लेकिन अंततः माओवादी नक्सलवाद में बदला यह यह तथाकथित आंदोलन खून से इबारत लिखने का ही पर्याय बना हुआ है। जबकि इसके मूल उद्देश्यों में नौजवानों की बेकारी, बिहार में जाति तथा भूमि के सवाल पर कमजोर व निर्बलों का उत्थान, आंध्रप्रदेश और अविभाजित मध्यप्रदेश के आदिवासियों का कल्याण तथा राजस्थान के श्रीनाथ मंदिर में आदिवासियों के प्रवेष शामिल थे। किंतु विषमता और शोषण से जुड़ी भूमण्डलीय आर्थिक उदारवादी नीतियों को जबरन अमल में लाने की प्रक्रिया ने देश में एक बड़े लाल गलियारे का निर्माण कर दिया है, जो पशुपति ;नेपाल से तिरुपति ;आंध्रप्रदेश तक जाता है। इस पूरे क्षेत्र में माओवादी वाम चरमपंथ पसरा हुआ है। इसने नेपाल झारखण्ड, बिहार, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, तेलांगना और आंध्रप्रदेश के एक ऐसे बड़े हिस्से को अपनी गिरफ्त में ले लिया है, जो बेशकीमती जंगलों और खनिजों से भरे हैं। छत्तीसगढ़ के बैलाडीला में लौह अयस्क के उत्खनन से हुई यह शुरुआत ओड़ीसा की नियमगिरी पहाड़ियों में मौजूद बाॅक्साइट के खनन तक पहुंच गई है। यहां आदिवासियों की जमीनें वेदांता समूह ने अवैध हथकंडे अपनाकर जिस तरीके से छीनी थीं, उसे गैरकानूनी खुद देश की सर्वोच्च न्यायालय ने ठहराया था। सर्वोच्च न्यायालय का यह एक ऐसा फैसला है, जिसे मिसाल मानकर केंद्र और राज्य सरकारें ऐसे उपाय कर सकती हैं, जो नक्सली चरमपंथ को रोकने में सहायक बन सकते हैं। लेकिन तात्कालिक हित साधने की राजनीति के चलते ऐसा हो नहीं रहा है। राज्य सरकारें केवल इतना चाहती हैं कि उनका राज्य नक्सली हमले से बचा रहे। छत्तीसगढ़ इस नजरिए से और भी ज्यादा दलगत हित साधने वाला राज्य है। क्योंकि भाजपा के इन्हीं नक्सली क्षेत्रों से ज्यादा विधायक जीतकर आते हैं। जबकि दूसरी तरफ नक्सलियों ने कांग्रेस पर 2013 में बड़ा हमला बोलकर लगभग उसका सफाया कर दिया था। क्योंकि कांग्रेस नेता महेन्द्र कर्मा ने नक्सलियों के विरुद्ध सलवा जुडूम को 2005 में खड़ा किया था। सबसे पहले बीजापुर जिले के कुर्तु विकासखण्ड के आदिवासी ग्राम अंबेली के लोग नक्सलियों के खिलाफ खड़े हुए थे। नतीजतन नक्सलियों की महेन्द्र कर्मा से दुषमनी ठन गई। इस हमले में महेंद्र कर्मा के साथ पूर्व केंद्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल, कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष नंदकुमार पटेल और हरिप्रसाद समेत एक दर्जन नेता मारे गए थे। इसके पहले 2010 में नक्सलियों ने सबसे बड़ा हमला बोलकर सीआरपीएफ के 76 जवानों को हताहत कर दिया था।

सुनियोजित इन हत्याकांड के बाद जो जानकारियां सामने आई थीं, उनसे खुलासा हुआ था कि नक्सलियों के पास आधुनिक तकनीक से समृद्ध राॅकेट लांचर, इंसास, हेंडग्रेनेड, ऐके-56, एसएलआर और एके-47 जैसे घातक हथियार शामिल हैं। साथ ही आरडीएक्स जैसे विस्फोटक हैं। लैपटाॅप, वाॅकी-टाॅकी, आईपाॅड जैसे संचार के संसाधन है। साथ ही वे भलीभांति अंग्रेजी भी जानते हैं। तय है, ये हथियार न तो नक्सली बनाते हैं और न ही नक्सली क्षेत्रों में इनके कारखाने हैं। जाहिर है, ये सभी हथियार नगरीय क्षेत्रों से पहुंचाए जाते हैं ? हालांकि खबरें तो यहां तक हैं कि पाकिस्तान और चीन माओवाद को बढ़ावा देने की दृष्टि से हथियार पंहुचाने की पूरी एक श्रृंखला बनाए हुए हैं। चीन ने नेपाल को माओवाद का गढ़ ऐसे ही सुनियोजित षड्यंत्र रचकर वहां के हिंदू राष्ट्र की अवधारणा को ध्वस्त किया। नेपाल के पशुपति से तिरुपति तक इसी तर्ज के माओवाद को आगे बढ़ाया जा रहा है। हमारी खुफिया एजेंसियां नगरों से चलने वाले हथियारों की सप्लाई चैन का भी पर्दाफाश करने में कमोबेश नाकाम रही हैं। यदि एजेंसियां इस चैन की ही नाकेबंदी करने में कामयाब हो जाती हैं तो एक हद तक नक्सली बनाम माओवाद पर लगाम लग सकती है ?

जब किसी भी किस्म का चरमपंथ राष्ट्र-राज्य की परिकल्पना को चुनौती बन जाए तो जरुरी हो जाता है, कि उसे नेस्तानाबूद करने के लिए जो भी कारगर उपाय उचित हों, उनका उपयोग किया जाए ? किंतु इसे देश की आंतरिक समस्या मानते हुए न तो इसका बातचीत से हल खोजा जा रहा है और न ही समस्या की तह में जाकर इसे निपटाने की कोशिश की जा रही है ? जबकि समाधान के उपाय कई स्तर पर तलाशने की जरूरत है। यहां सीआरपीएफ की तैनाती स्थाई रूप में बदल जाने के कारण पुलिस ने लगभग दूरी बना ली है। जबकि पुलिस सुधार के साथ उसे इस लड़ाई का अनिवार्य हिस्सा बनाने की जरूरत है। क्योंकि अर्धसैनिक बल के जवान एक तो स्थानीय भूगोल से अपरीचित हैं, दूसरे वे आदिवासियों की स्थानीय बोलियों और भाषाओं से भी अनजान हैं। ऐसे में कोई सूचना उन्हें टेलीफोन या मोबाइल से मिलती भी है, तो वे वास्तविक स्थिति को समझ नहीं पाते हैं। पुलिस के ज्यादातर लोग उन्हीं जिलों से हैं, जो नक्सल प्रभावित हैं। इसलिए वे स्थानीय भूगोल और बोली के जानकार होते हैं।

सीआरपीएफ के पास अब तक अपना हवाई तंत्र नहीं है। इस कारण घायल जवानों को अस्पताल तक पहुंचाने में तो देरी होती ही है, दूसरी बटालियनों की मदद में भी देरी होती है। इसलिए हेलिकाॅप्टर जैसी सुविधाएं इन्हें देना मुनासिफ होगा। द्रोण भी यहां निगरानी में लगाए जाने चाहिए। क्योंकि जिस आईईडी विस्फोटकों का इस्तेमाल नक्सली बारूदी सुरंगें बिछाने में कर रहे हैं, उनकी टोह लेना दूर संवेदक उपकरणों से मुश्किल हो रहा है। दरअसल पूरा नक्सली क्षेत्र लौह अयस्कों से भरा है, इसलिए चुंबकीय व लेजर उपकरण धरती के नीचे छिपाकर रखे बम अथवा विस्फोटक की सटीक जानकारी नहीं दे पाते है। नक्सली अब इतने चालाक हो गए है कि वे पेड़ों की छाया में भी दबाव से फूट जाने वाले प्रेशर बम लगाने लगे हैं। गर्मियों में जैसे ही छाया की तलाश में कोई जवान पेड़ के नीचे बैठता है तो विस्फोटक का शिकार हो जाता है। इसलिए अब रडार प्रणाली से विस्फोटकों की टोह लेने वाले उपकरण जवानों के पास होना जरूरी है।

गौरतलब है कि जो नक्सली संघर्ष वंचितों के हित साधने के लिए शुरू हुआ था, उससे अब आजीविका के प्राकृतिक संसाधन बचाए रखने की लड़ाई भी जुड़ गई है। जबकि राज्य सरकारें आदिवासियों की बजाय बहुराश्ट्रीय कंपनियों के हितों की कहीं ज्यादा परवाह करती हैं। इनसे मिले राजस्व से नेता और सरकारी कर्मचारियों के आर्थिक हितों की पूर्ति होती हैं। तथाकथित लोककल्याणकारी योजनाएं भी इसी राशि से चलती हैं। नतीजतन स्थानीय आदिवासियों के वास्तविक हित सर्वथा नजरअंदाज कर दिए जाते है। जबकि ये आदिवासी इसी प्रकृति का हिस्सा हैं। इस लिहाज से समस्या के स्थाई समाधान के लिए विकास की समझ, दिशा और तरीकों में आमूलचूल परिवर्तन की जरूरत है। तभी ज्वलंत नक्सलीय समस्या निरंतरित हो पाएगी ?

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