उनके वो हरे पत्ते
जिसके छाॅंव पर
हम बनते थे। मिटटी के गत्ते
चैरहे पर अकेला ही तो था
किसी अनाथ की तरह
परोपकार में चढा मानव के हत्थे ।
दोपहरी में होते हम उसके परिवार
दादा देते , हम सबको दुलार
चुन्नू, मन्नू, रानू सखियों की होती पुकार
और इनमें उनकी वो शीतल छाया
महक उठता था।हमारी काया ।
उनकी मंद सी सरसराती गीत पर
राजू ढोलक बजाता, हम नाचते
झूमते और गाते
भोर भाय घोसलों से
चह चह की ध्वनि होती
अब तो बस उनकी यादें है
उनकी यादों मंे ये आॅखंे रोती।
आओं ढूढे. बूढे. पीपल को
उनको नाच दिखायें ,गीत सुनायें
आओं ढूढे.उनके शीतल को
आओं ढूढे. बूढे. पीपल को
राकेश कुमार पटेल