जो एक रस्मे दरबार थी ,गुज़रे वक्त में

जावेद उसमानी

जो एक रस्मे दरबार थी ,गुज़रे वक्त में
आज भी वही कलिब तख्तेरवां दरबार है
जम्हूरियत की आड़ में ताकत का खेल है
अब न उसूल हैं न कोई साहिबे किरदार है
लिहाज़ का हर आँचल करके भी तार -तार
न अफ़सोस हैं किसी को न कोई शर्मसार है
साध्य के लिए साधन भी पावन ही चाहिए
नसीहत खो गई बाकी बस उनका मज़ार है
कैसे हथियारों से लड़ रहे है ये भी तो देखिए
लोकतंत्र का मतलब क्या बस जीत हार हैं
अलविदा तो कब की कह चुकी रूहे सियासत
बेपर्दा इस लाश को बस दफ़्न का इंतज़ार हैं

कलिब = ढांचा , साँचा
तख्तेरवां = कहारों के कंधे के सहारे चलने वाला तख्त जिस पर बादशाह सैर के लिए जाता था , पालकी

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