लोकतंत्र को कमजोर करती है सांसदों की गैरहाजिरी

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ललित गर्ग

सांसदों की उपस्थिति को लेकर प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी एक बार फिर तीखे तेवर में दिखे। इस मुद्दे पर वे बहुत सख्त है और इस विषय को लेकर उन्होंने सांसदों को चेताया भी है और सुदृढ़ लोकतंत्र के लिये इसे प्राथमिक आवश्यकता बताई। वे समय-समय पर सांसदों को संसद में उपस्थित रहने के लिए कहते रहते हैं। कुछ दिनों तक उनकी चेतावनी का असर दिखता है लेकिन फिर सांसद उपस्थिति के मामले को नजरअंदाज करने लगते हैं। इसलिये शीतकालीन सत्र के प्रारंभ में भाजपा की संसदीय बैठक में एक बार फिर प्रधानमंत्री ने सदन में उपस्थिति के मसले पर सांसदों को सलाह दी है, लेकिन उनकी बातें सभी दलों से जुड़े जनप्रतिनिधियों के लिए अहम एवं एक अनिवार्य सीख एवं लोकतांत्रिक आवश्यकता मानी जानी चाहिए। बात चाहे लोकसभा की हो, राज्यसभा की हो या विधानसभाओं एवं अन्य लोकतांत्रिक सदनों की हो। जानबूझकर अनुपस्थित रहना भी वीवीआईपी संस्कृति की एक त्रासदी रही है, ऐसी त्रासदियों से मुक्ति दिलाने में मोदी ने सार्थक प्रयत्न किये हैं। बिना किसी महत्त्वपूर्ण वजह के गैरहाजिर होना अगर एक प्रवृत्ति या अहंकार को प्रदर्शित करने का तरीका है तो यह न सिर्फ संसद के कामकाज में सभी पक्षों की भागीदारी को कमजोर करता है बल्कि लोकतंत्र को भी आहत करता है।
प्रश्न किसी दल का नहीं, प्रश्न किसी बिल को बहुमत से पारित कराने का भी नहीं है। प्रश्न लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में लोकतांत्रिक प्रतिनिधियों की जबावदेही एवं जिम्मेदारी का है। सबके लिये नियम बनाने वाले, सबको नियमों का अनुशासन से पालन करने की प्रेरणा देने वाले सांसद या विधायक यदि स्वयं अनुशासित नहीं होंगे तो यह लोकतंत्र के साथ मखौल हो जाएगा। जब नेताओं के लिये कोई मूल्य मानक नहीं होंगे तो फिर जनता से मूल्यों के पालन की आशा कैसे की जा सकती है? यह किसी से छिपा नहीं है कि लोकसभा या राज्यसभा या विधानसभाओं में सदस्य के तौर पर चुने जाने के बाद बहुत सारे सदस्य संबंधित सदन में नियमित तौर पर उपस्थित होना बहुत जरूरी नहीं समझते। शायद ही कभी ऐसा होता हो जब इन सदनों में सभी जनप्रतिनिधियों की उपस्थिति सुनिश्चित होती हो। ऐसे मौके आम होते हैं, जब सदन में बहुत कम सदस्य मौजूद होते हैं और इस बीच वहां कई जरूरी काम निपटाए जाते हैं। सिने स्टार या क्रिकेटर या ऐसी ही अन्य हस्तियां हो, इनकी सदन में उपस्थिति न के बराबर रहती है। इसलिये अब मांग भी उठने लगी है कि राज्यसभा में ऐसे सदस्यों को नामांकित किया जाए जो कम से कम अपने काम को गंभीरता से ले सकें, जो संसद को पूरा समय दे, जो संसद में आएं और सत्र में कुछ बोलें। अपने अनुभव बांटें और अपने क्षेत्र या राष्ट्र की समस्याओं को सरकार के सामने रखे।
प्रधानमंत्री ने भाजपा सांसदों के बहाने एक तरह से सदन से बेवजह अनुपस्थित रहने की इसी प्रवृत्ति एवं लोकतांत्रिक विसंगति पर टिप्पणी की है। भाजपा संसदीय दल की बैठक में उन्होंने सांसदों की गैरहाजिरी को जिस तरह गंभीरता से लिया, उसकी अपनी अहमियत है। इसके लिए उन्होंने साफ लहजे में हिदायत दी कि वे खुद में बदलाव लाएं, नहीं तो बदलाव वैसे ही हो जाता है। प्रधानमंत्री की इस बात में जरूरी संदेश छिपे हो सकते हैं, मगर इतना साफ है कि अगर सांसद अपनी जिम्मेदारी के प्रति गंभीर नहीं होते हैं तो लोकतंत्र में जनता ऐसे नेताओं का भविष्य तय करती है। मोदी ने जिस कडाई एवं कठोरता से यह संदेश दे दिया है कि अपनी जिम्मेदारी के प्रति लापरवाह रहने वालों को पार्टी घर का रास्ता दिखा सकती है, अन्यथा जनता तो अपना निर्णय देते वक्त ऐसे सांसदों को नकार सकती है। कैसी विडम्बनापूर्ण स्थिति है कि एक सरकारी कर्मी कार्यालय न पहुंचे तो वेतन कट जाता है, स्कूली छात्र स्कूल में न जाये तो अनुपस्थिति दर्ज या दंड का प्रावधान है, फिर सांसदों को अपनी मनमर्जी बरतने की सुविधा क्यों?
सवाल तो यह भी है कि लोकसभा या राज्यसभा के लिए चुने जाने के बाद सांसदों को यह अलग से बताए जाने की जरूरत क्यों होनी चाहिए कि सदन में मौजूदगी उनका दायित्व है! इस जिम्मेदारी को उन्हें खुद क्यों नहीं महसूस करना चाहिए? इसलिए प्रधानमंत्री की इस टिप्पणी का संदर्भ भी समझा जा सकता है कि बच्चों को बार-बार टोका जाता है तो उन्हें भी अच्छा नहीं लगता है। जाहिर है, यह सांसदों के लिए थोड़ी कड़वी घुट्टी है, मगर उनकी कमियों की ओर ध्यान दिलाने की कोशिश भी है, यह कोशिश भी किसी के द्वारा होनी ही चाहिए। यह इसलिये जरूरी है कि हमारे देश की राजनीतिक-सामाजिक और भौगोलिक परिस्थितियों के मद्देनजर देखें तो संसद की कार्यवाही और वहां तय होने वाले नियम-कायदों, बनने वाले कानूनों में जरूरी विविधता की झलक मौजूद रहनी चाहिए, इनमें सभी सांसदों यानी सम्पूर्ण देश का प्रतिनिधित्व भी होना चाहिए।
संसद देश की सर्वाेच्च संस्था है। सांसद देश की संसद का सम्मान करतेे हैं या नहीं, यह गहराई से सोचने की बात है। सांसद सरकार से सुख-सुविधा प्राप्त करें, यह बहुत गौण बात है। प्रमुख काम है देश के सामने आनेवाली समस्याओं का डटकर मुकाबला करना। अपना समुचित प्रतिनिधित्व करते हुए देश को प्रगति की ओर अग्रसर करना, उसे सशक्त बनाना। लेकिन ऐसा न होना दुर्भाग्यपूर्ण है, लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को कमजोर करना है। संसद देश को उन्नत भविष्य देने का मंच है। सरकार इस पर जनता की गाढ़ी कमाई का बड़ा हिस्सा खर्च करती है। इसलिये संसद का प्रति क्षण तभी कारगर, उपयोगी एवं संतोषजनक हो सकता है जब चुना हुआ या मनोनीत प्रत्येक सदस्य अपनी प्रभावी एवं सक्रिय भागीदारी निभाये।
देश जल रहा हो और नीरो बंशी बजाने बैठ जाये तो इतिहास उसे शासक नहीं, विदूषक ही कहेगा। ठीक वैसा ही पार्ट आज की अति संवेदनशील स्थितियों में सांसद अदा कर रहे हैं। चाहिए तो यह है कि आकाश भी टूटे तो उसे झेलने के लिये सात सौ नब्बे सांसद एक साथ खड़े होकर अमावस की घड़ी में देश को साहस एवं उजाला दे। लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है, यह विडम्बनापूर्ण है। हर दिन किसी न किसी विषय पर विवाद खड़ा कर संसद का कीमती समय गंवाया जा रहा है। महत्वपूर्ण प्रस्ताव पर सार्थक चर्चा की बजाय हो-हल्ला करके संसद की कार्रवाही को स्थगित करने का प्रचलन चल रहा है। कोई भी नहीं सोच रहा है कि इन स्थितियों में देश कहां पहुंचेगा? यह कर्तव्य-च्युति, असंसदीय गतिविधियां क्या संसदीय इतिहास में एक काली रेखा नहीं होगी? निश्चित ही सांसदों की गैर-जिम्मेदाराना हरकतों से संसद अपने कर्तव्य से चूक रही है।
देश का भविष्य संसद एवं सांसदों के चेहरों पर लिखा होता है। यदि वहां भी अनुशासनहीनता, अशालीनता एवं अपने कर्त्तव्यों के प्रति अरुचि-लापरवाही का प्रदर्शन दिखाई देता है तो समझना होगा कि सत्ता सेवा का साधन नहीं, बल्कि विलास का साधन है। यदि सांसद में विलासिता, गैरजिम्मेदाराना व्यवहार, आलस्य और कदाचार है तो देश को अनुशासन का पाठ कौन पढ़ायेगा? आज सांसदों की अनुपस्थिति के परिप्रेक्ष्य में इस विषय पर भी चिन्तन होना चाहिए कि जो वास्तविक रूप में देश के लिये कुछ करना चाहते हैं, ऐसे व्यक्तियों को संसद के पटल पर लाने की व्यवस्था बने। कोरा दिखावा न हो, बल्कि देश को सशक्त बनाने वाले चरित्रसम्पन्न व्यक्ति राज्यसभा में जुडे़- या लोकसभा की टिकट ऐसे ही जिम्मेदार व्यक्तियों को देकर उनको विजयी बनाने के प्रयत्न हो, इसके लिये नये चिन्तन की अपेक्षा है। हर कीमत पर राष्ट्र की प्रगति, विकास-विस्तार और समृद्धि को सर्वाेपरि महत्व देने वाले व्यक्तित्वों को महत्व मिले, जो संसद के हर क्षण को निर्माण का आधार दे सके। लोकसभा कुछ खम्भों पर टिकी एक सुन्दर ईमारत ही नहीं है, यह एक अरब 30 करोड़ जनता के दिलों की धड़कन है। उसके एक-एक मिनट का सदुपयोग हो। जो मंच जनता की भावना की आवाज देने के लिए है, उसे स्वार्थ का एवं स्व-इच्छा का मंच न बनने दे।

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