राजनैतिक कर्मज्ञों का अभाव…

 

आज निसंदेह यह कहना अनुचित नही होगा कि  विश्व में भारत जैसे विराट देश में  लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के होते हुए भी ऐसे राजनैतिक कर्मज्ञों का अभाव प्रतीत होता है जो राष्ट्र को एक सूत्र में पिरोकर विकास के पथ पर अग्रसर कर सकें ? कुशल व सक्षम राजनीतिज्ञों के अभाव के कारण अनेक प्रकार के अल्पकालिक राजनैतिक लाभ दीर्धकाल में विनाशकारी बन जाएं तो उसका उत्तरदायी कौन होगा ? देश की सर्वोच्च संस्था संसद में चाहे-अनचाहे गतिरोध बनायें रखकर बार-बार और बात-बात पर विधायी कार्यों में अवरोध उत्पन्न करना राजनेताओं की विरोधी व दूषित मानसिकता से ग्रस्त होने का ही परिचय कराती हैं। परिणामस्वरूप वर्तमान राजनीति समाज में संघर्षों का समाधान करने के स्थान पर अनगिनत संघर्षों को जन्म दे रही हैं।साथ ही ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे राजनेता सत्ता के लिये इतने अधिक आतुर हैं कि देश को विश्व गुरु बनाने के स्थान पर कूटनीति , रणनीति व राजनीति के क्षेत्र में आगे बढ़ा रहें हैं।
आज देश में विभिन्न राजनेता मुख्यतः लोकतंत्र के उच्च मापदंडों को त्याग कर राष्ट्रहित की उपेक्षा करके आम नागरिकों की भावनाओं का दोहन करने में अधिक सक्रिय हो गये हैं। इससे भ्रमित होकर हम ऐसे राजनीतिज्ञों व देशद्रोही षडयंत्रकारियों के झांसे में आकर अप्रत्यक्ष रूप से अज्ञानवश अपने को ही हानि पहुँचा रहें हैं। हम क्यों नही सोचते कि यह समाज , यह नगर, यह प्रदेश और सम्पूर्ण देश हमारा ही तो हैं, फिर हम क्यों ऐसे भ्रम फैलाने वाले सत्ता लोभी नेताओं की असामाजिक व अराष्ट्रीय मानसिकता को नही समझते ? हम बहुसंख्यक व अल्पसंख्यक एवं स्वर्ण व दलित के तथाकथित भेदभरे रिसते हुए घावों को भरने के स्थान पर उसे क्यों हरा होने दें ? क्या ऐसे नेताओं के रहते भारतविरोधी शक्तियां हमको खंडित करने के लिये अपने-अपने स्तर से और अधिक सक्रिय नही हो जायेगी ? विचार करना होगा कि हमारे देश के नेताओं की सत्ता लोभी राजनीति का परिणाम कितना भयंकर हो सकता हैं ? क्यों नही राष्ट्रीय एकता व अखंडता के लिये राजनीति को पवित्र करके एक ऐसी राष्ट्रनीति अपनायी जाती जिससे सभी वर्गों व पंथों को समान अधिकार मिलें और देश सुदृढ़ हो सकें ? क्या हम कभी देश की राजनीति में निरंतर हो रही गिरावट पर चर्चा करके राष्ट्रहित में इसको पावन करने के लिये कोई मार्ग ढूंढने का प्रयास करेंगे ?
वस्तुतःराजनीति तो राष्ट्रनीति निश्चित करके सम्पूर्ण समाज के हितों के लिये कार्य करते हुए राष्ट्र को विकास के मार्ग पर ले जाने के लिये प्रतिबद्ध होती हैं।जबकि आज आधुनिक भोगवादी युग की चकाचौंध से आकर्षित होकर उसे पाने की अभिलाषा में विभिन्न राजनैतिक दलों के सामान्य कार्यकर्ताओं में नेता बनने की होड़ लगी हुई हैं। आज राजनीति को आत्मस्तुति व आनंददायी जीवन शैली व्यतीत करने का माध्यम बनाया जा रहा हैं। जिस कारण राजसत्ता के प्रति मोह बढ़ने से विभिन्न नेताओं में तीव्र प्रतिद्वंदिता छिड़ी हुई हैं । ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियां होने से देश के उज्ज्वल भविष्य के लिये किसी भी प्रकार के चिंतन व त्याग का पूर्णतः अभाव बना हुआ हैं। परिणामस्वरूप देशभक्ति या राष्ट्रप्रेम की अनभिज्ञता से अधिकांश युवा पीढी को सरलता से भ्रमित करके उनको असामाजिक , अराष्ट्रीय व देशद्रोही आंदोलनों में झोंकना भी सरल हो गया हैं। अभी पिछले दिनों (2 अप्रैल 2018) देश के विभिन्न भागों में एससी/एसटी एक्ट (अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निरोधक अधिनियम 1989) में सुधार से संबंधित उच्चतम न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध जो उपद्रव हुए वे अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण थे। यह कोई आंदोलन नही बल्कि षडयंत्रकारियों द्वारा सुनियोजित अराजकता का निंदनीय प्रदर्शन था। अतः भविष्य में ऐसी स्थिति पुनः न उभरे और सभी षडयंत्रकारियों की भारतविरोधी योजनाऐ विफल हो, इसके लिये हम सबकी यह प्राथमिकता होनी चाहिये कि राष्ट्रहित में हर संभव प्रयास करके राष्ट्र की एकता व अखंडता पर कोई संकट न आने दें । संभवतः  ऐसे प्रयासों से हम देश के विभिन्न राजनैतिक दलों को भी राष्ट्रहित की राजनीति करने के लिये प्रेरित कर सकेंगे।
वर्तमान परिप्रेक्ष में यह विचार करना भी आवश्यक है कि जब तक अल्पसंख्यकवाद व तथाकथित दलितों को विशेषाधिकार देनें के लिये राजकोष और सरकारी सुविधायें लुटायी जाती रहेगी तब तक “सबका साथ व सबका विकास” कैसे संभव हो सकेगा ? भारतीय संविधान में तथाकथित दलित हिंदुओं को आरक्षण देने की सीमित अवधि के लिये व्यवस्था की गयी थी परंतु यह आरक्षण अभी भी यथावत जारी है। इसके अतिरिक्त्त एससी/एसटी एक्ट के द्वारा उनको एक ऐसा वैधानिक विशेषाधिकार देना कि वे अन्य वर्ग के निर्दोषित होने पर भी उनको झूठा आरोपित करने का अनुचित व अमानवीय कार्य करके सरलता से उनको प्रताड़ित कर सकें , कहाँ तक उचित है ? धार्मिक आधार पर देशवासियों को बहुसंख्यक व अल्पसंख्यक में वर्गीकरण करके केवल एक वर्ग को अतिरिक्त अधिकार देना क्या साम्प्रदायिक्त सौहार्द व धर्मनिरपेक्षता पर आघात नही है ? हमारे नीतिनियन्ता ऐसी धार्मिक व जातीय राजनीति के चलते सम्पूर्ण समाज को समग्र दृष्टि से न देख कर वर्तमान के लिये भविष्य को भी संकट में क्यों डाल रहें हैं ? क्या इन परिस्थितियों में सबका साथ संभव हो सकता हैं ? सम्पूर्ण समाज में परस्पर भेदभाव व वैमनस्य बढ़ाने वाली और वर्ग विशेष को लुभाने वाली नीतियां क्या राष्ट्रीय परिप्रेक्ष में कोई सकारात्मक संदेश का संचार कर पायेगी ? मानवीय आधार पर यह नीतियां न्यायसंगत कैसे हो सकती है ? क्या वर्ग विशेषों के अतिरिक्त देश पर किसी और समाज का आधिपत्य नही हैं ? क्या सामान्य वर्गो के मौलिक अधिकारों में विभिन्न प्रकार के वैधानिक व राजनैतिक प्रावधानों के हस्तक्षेप होने से उनका प्रत्यक्ष उत्पीडन नही हो रहा हैं ? समाज को विभाजित करने वाली ऐसी व्यवस्था से प्रगतिशील समाज व मानवाधिकार कब तक मौन रहेगा ? जब न्याय सम्पूर्ण समाज के लिए बराबर का अधिकार प्रदत्त करता है तो किसी एक को अधिक और दूसरे को कम देने का भेदभाव नही करता। न्याय तो जीवन के मौलिक अधिकारों की रक्षा का सरंक्षण करके उसको उन्नति की ओर ले जाने के लिए होता हैं। जब यह माना जाता है कि न्याय एक स्वतंत्र तत्व होने के कारण दोषपूर्ण कानूनों का दास नही हैं ,  तो फिर ऐसे दोषपूर्ण व मानव विरोधी व्यवस्थाओं का क्या औचित्य हैं ?
आज जब देश को अखंड रखने की चुनौती से जूझना पड़ रहा है तो ऐसे में राष्ट्रहित को सर्वोपरि मान कर सभी देशवासियों के लिए एक समान व्यवस्था को क्यों नही लाया जाता ? क्या हमारे देश की लोकतांत्रिक प्रणाली कभी अल्पसंख्यकवाद, जातिवाद व दलितवाद से मुक्त हो पायेगी ? क्या हमारे राजनैतिक दल कभी अपने स्वार्थों से ऊपर उठकर कोई राष्ट्रव्यापी सोच विकसित कर पायेंगे ? आज राष्ट्र की एकता व अखंडता की रक्षा के लिये किसी भी वर्ग को दिये जाने वाले विशेषाधिकारों को प्रतिबंधित करने के लिये सार्वजनिक मंचों पर राजनेताओं, अधिकारियों , बुद्धिजीवियों व समाज सेवियों को वैचारिक मंथन करना होगा। साथ ही लोकतांत्रिक व्यवस्था को सुदृण करने के लिये राजनीति को व्यापक राष्ट्रनीति में परिलक्षित करने के लिये राजनैतिक कर्मज्ञों के अभाव को भी दूर करना होगा। सामान्यतः यह धारणा बनी हुई हैं कि राजनीति में धन व बाहु बलियों का वर्चस्व बढ़ने से सुशिक्षित, समर्पित, सुयोग्य व समाज की सेवा में सक्रिय राष्ट्रभक्तो का अभाव हो रहा है।परंतु राजनीति से अपने को पृथक रखने वाले सभी बुद्धिजीवियों व उद्योगपतियों आदि को यह समझना चाहिये की देश की शासकीय व्यवस्था को कुशल व योग्य व्यक्तियों का मार्गदर्शन मिलें ।
याद रखो आचार्य चाणक्य का विचार था कि राजनीति सबसे उत्तम व पुण्य कार्य है परंतु अगर सज्जन और योग्य व्यक्ति राजनीति में सक्रिय नही होगें तो उनको अपने ऊपर अयोग्य व दुर्जन व्यक्तियों द्वारा शासित होने के पाप का भागी बनना होगा।

विनोद कुमार सर्वोदय

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