इस सवाल का जवाब जरूरी है

0
204

landमेरे पूर्व लिखित लेखों में भूमि अर्जन, पुनस्र्थापन और पुनव्र्यवस्थापन में उचित प्रतिकार और पारदर्शिता कानून-2013 के पक्ष में कई तर्क हैं। इन तर्कों को सामने रख कोई सहमत हो सकता है कि वह भूमि बचाने वाला कानून था। वह बहुमत की राय के आधार पर भूमिधर को भूमि बेचने, न बेचने की आजादी देता था। उसे यह तय करने की आजादी देता था कि उसे कैसा विकास चाहिए।

इससे भी सहमति संभव है कि देश को अन्न, अन्नदाता और अन्न उपजाने की भूमि के स्वावलंबन को नष्ट करने वाला विकास नहीं चाहिए।मोदी सरकार द्वारा पेश संशोधनों की मंशा भूमि बचाने की कतई नहीं है। मुआवजा बढाने को भूमि बचाने या भू-अधिकार सुनिश्चित करने की कवायद नहीं कह सकते। भूमि अधिग्रहण कैसे सहज और सुनिश्चित हो; संशोधनों को ऐसी कवायद कहा जा सकता है। केन्द्रीय मंत्री कलराज मिश्र द्वारालिखा ताजा लेख, संशोधनों के पक्ष में कोई ज़मीनी और तथ्यात्मक तर्क पेश करने में असमर्थ है।

एक हकीकत

मोदी सरकार, अपनी पीठ सबसे ज्यादा भूमि अधिग्रहण संबंधी 13 कानूनों को मूल कानून के दायरे में लाने के संशोधन को लेकर ठोक रही है। वह कह रही है कि असल फायदा तो लोगों को इससे होगा। 13 कानूनों को मूल कानून में न रखने के लिए वह संप्रग सरकार पर दोष भी मढ रही है।

भूमि अधिग्रहण संबंधी कानून-2013 के रचनाकार, जयराम रमेश ने ठीक कहा। हकीकत यह है कि संप्रग सरकार ने पुनस्र्थापन और पुनव्र्यावस्थापन संबंधी ऐसे 13 कानूनों को 2013 के मूल कानून से यह कहते हुए बाहर रखा था कि इन्हे एक वर्ष के भीतर भूमि अर्जन, और पुनव्र्यवस्थापन में उचित प्रतिकार एवम् पारदर्शिता कानून-2013 के अनुरूप बना लिया जायेगा। ये 13 कानून रक्षा, रेलवे, मेट्रो, परमाणु ऊर्जा, बिजली, सस्ते मकान, ग्रामीण ढांचागत निर्माण, औद्योगिक गलियारे तथा पीपीपी यानी सार्वजनिक-निजी भागीदारी परियोजनाओं आदि से संबंधित हैं। मोदी सरकार के अध्यादेश ने उन 13 कानूनों को मूल कानून के अनुरूप बनाने की बजाय, कानून में ही शामिल करने का प्रस्ताव दिया।

एक सवाल

अतः आप सहमत हो सकते हैं कि विरोध करने वाले राजनैतिक दल,दोषारोपण और संशोधनों को लेकर केन्द्र सरकार पर निशाना साधें। सदन से लेकर सङक तक विरोध करें। विरोध करने वालों का समर्थन करें। रैली, धरना, यात्रा, अनशन.. जो शांतिमय तरीका मुफीद हो, वह करें। इस सभी से सहमति संभव है। किंतु क्या इस बात से सहमत हुआ जा सकता है कि विरोध करने वाले राजनैतिक दलों के मुख्यमंत्री अधिकारिक तौर पर यह घोषित न करें कि वे अपने-अपने राज्य में इन संशोधनों को लागू नहीं करेंगे , भूमि, राज्य का विषय है। संविधान, राज्य सरकारों को यह अधिकार देता है। फिर भी विरोधी दलों के मुख्यमंत्रियों द्वारा ऐसी अधिकारिक घोषणा न करना राजनैतिक दलों के विरोध को दिखावटी घोषित करती है।

केन्द्रीय मंत्री अरुण जेटली ने बयान दिया – ’’पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी को भूमि अधिग्रहण संशोधनों के विरोध में रैली करने की जरूरत कहां हैं?यदि वह संशोधनों से सहमत नहीं हैं, तो वह अपने राज्य में इन्हे न लागू करें।’’

यह सवाल,संशोधनविरोधी ऐसे सभी दलों के विरोध पर सवाल खङा करता है, जिनके दल की किसी एक राज्य में भी सरकार है। अरुणांचल, असम, हिमाचल, कर्नाटक, मणिपुर, मिजोरम और उत्तराखण्ड में अकेले कांग्रेस की सरकार है। पश्चिमी बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, बिहार में जनता दल यूनाइटेड, उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी, दिल्ली में आम आदमी पार्टी, त्रिपुरा में कम्युनस्टि पार्टी आफ इंडिया (माक्र्सवादी) की सरकारें हैं। छह दल और 12 राज्य सरकारें। इनके अलावा सीपीआई, जनता दल सेक्यूलर, द्रविण मुनेत्र कज़गम, इंडियन नेशनल लोकदल, केरल कांग्रेस (मणि) और इंडियन यूनाइटेड मुसलिम लीग उन 14 दलों में शामिल हैं, जिन्होने सोनिया गांधी की अगुवाई में एकजुट होकर राष्ट्रपति भवन तक कदमताल किया था।सवाल इनसे भी है कि इन्होने अपने-अपने प्रदेश की सरकारों से भूमि अधिग्रहण को लेकर सवाल क्यों नहीं किया नीतीश का अनशन, ममता का मार्च हो चुका है। कांग्रेस और आम आदमी पार्टी ने रैली का ऐलान कर दिया है। क्या जरूरी नहीं था कि ये इससे पहले राज्य सरकार की ओर से वैधानिक तौर पर संशोधनवार सूची पेश कर घोषित करते कि उनके प्रदेश में इन्हे लागू नहीं किया जायेगा क्या किसानों का हितैषी दिखाने के लिए यह करना जरूरी नहीं था

अन्ना से सवाल

इन चैदह अलावा सवाल, 15वें और सबसे प्रखर विरोधी श्री अन्ना और उनके नेतृत्व में दिल्ली आये एकता परिषद के श्री पी व्ही राजागोपाल, श्री राजेन्द्र सिंह, बहन मेधा पाटकर व साथियों से भी है कि उन्होने केन्द्र सरकार पर तो निशाना साधा, किंतु विरोधी दलों की राज्य सरकारों के इस रवैये को लेकर वे चुप क्यों हैं ?

 

दिल्ली के मुख्यमंत्री श्री अरविंद केजरीवाल ने तो अन्ना के मंच से कहा था कि वह दिल्ली में इस कानून को लागू नहीं होने देंगे। वैधानिक तौर पर यह सुनिश्चित करने के लिए उन्होने स्वयं क्या किया? क्या अपने मंच पर राजनैतिक लोगों को जगह न देने के अपने ही सिद्धांत को तोङकर श्री अन्ना ने जिस मुख्यमंत्री को जगह दी, उससे यह पूछने का दायित्व अन्ना का नहीं है?

 

अन्ना टीम इसका सार्वजनिक खुलासा क्यों नहीं करती कि श्री नितिन गडकरी आदि भाजपा नेताओं के साथ-साथ जिन राज्य मुख्यमंत्रियों के साथ उनकी उनकी बातचीत हुई है, भू-अधिकार के मसौदे पर उन्होने उनसे क्या कहा?

 

क्या देश को यह जानने का नैतिक हक नहीं है कि अन्ना टीम आग लगाकर, सवाल उठाकर या कहें कि देश जगाकर क्यों भागे?सेवाग्राम, वर्धा से दिल्ली तक की यात्रा क्यों रद्द की?’’अभी खेती का समय है। किसान व्यस्त है।’’ क्या रद्द करने के लिए यह कारण पर्याप्त है,खासतौर पर ऐसे समय, जब फसल बर्बादी को लेकर किसान दुखी है। आगे तेल, सब्जी, गेहूं की कीमतों को लेकर खाना वाले दुखी होंगे।

सच है कि यदि सामाजिक संगठनों ने जंतर-मंतर न रौंदा होता, तो भूमि अधिग्रहण के सवाल और बवाल सामने न आते। अध्यादेश तो दिसम्बर, 2014 में ही आ गया था और बिना बवाल, केबिनेट और राष्ट्रपति ने मोहर भी लगा दी थी। तब कोई व्यापक बवाल नहीं हुआ। किसी राजनैतिक दल की चेतना ज़मीन पर नहीं उतरी; बावजूद, इस श्रेय के अन्ना टीम के समक्ष यह सवाल हमेशा रहेगा कि क्या सिर्फ सवाल उठाना पर्याप्त है?

आगाज कर, अंजाम तक पहुंचाना क्या किसी और दायित्व है?इस रवैये के अंजाम से अभी-अभी दिल्ली दो-चार हुई है। आगे ऐसा न हो। क्या इसके लिए ऐसे कई सवालों का जवाब जानना जरूरी नहीं है ?

–अरुण तिवारी

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here